कछुआ और खरगोश – इब्ने इंशा

लोक कथा

एक था कछुआ, एक था खरगोश। दोनों ने आपस में दौड़ की शर्त लगाई। कोई कछुए से पूछे कि तूने शर्त क्यों लगाई? क्या सोचकर लगाई?

बहरहाल…तय यह हुआ कि दोनों में से जो नीम के टीले तक पहले पहुंचे, उसे अख्तियार है कि हारने वाले के कान काट ले।

दौड़ शुरू हुई तो कछुआ रह गया और खरगोश यह जा वह जा। मियां कछुवे वज़ादारी (परम्परागत) की चाल चलते रहे। कुछ दूर चलकर ख्य़ाल आया कि अब आराम करना चाहिए। बहुत चल लिए। आराम करते-करते नींद आ गई।

न जाने कितना जमाना सोते रहे। जब आंख खुली तो सुस्ती बाकी थी। बोले-‘अभी क्या जल्दी है…इस खरगोश के बच्चे की क्या औकात है कि मुझ जैसे अजीम विरसे के मालिक से शर्त जीत सके। वाह भई वाह मेरे क्या कहने।’

काफी जमाना सुस्ता लिए, तो फिर मंजिल की तरफ चल पड़े। वहां पहुंचे तो खरगोश न था। बेहद खुश हुए। अपनी मुस्तैदी की दाद देने लगे। इतने में उनकी नजर खरगोश के एक पिल्ले पर पड़ी। उससे खरगोश के बारे में पूछने लगे।

खरगोश का बच्चा बोला-‘जनाब! वह मेरे वालिद साहब थे। वह तो पांच मिनट बाद ही यहां पहुंच गए थे और मुद्दतों इंतजार करने के बाद मर गए और वसीयत कर गए कि कछुए मियां यहां आ जाएं तो उनके कान काट लेना। लिहाजा लाइए इधर कान…।’

कछुए ने फौरन ही अपने कान और अपनी सिर खोल के अंदर कर ली और आज तक छिपाए फिरता है।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (जुलाई-अगस्त 2017, अंक-12), पेज-

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