सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का गिरता स्तर

अमरजीत सैनी

शिक्षा ही मनुष्य को सही मायने में मानव बनाती है। समय परिवर्तन के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्रों में बहुत परिवर्तन हुए। सरकार ने शिक्षा के स्तर को ऊंचा उठाने के लिए सरकारी विद्यालयों का निर्माण किया और निशुल्क प्रारंभिक शिक्षा की व्यवस्था की। धीरे-धीरे निजी विद्यालयों का प्रार्दुभाव हुआ। शुरू में तो हर कोई अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में पढ़ाते थे।  इक्का-दुक्का ही निजी स्कूल थे। किंतु धीरे-धीरे सरकारी विद्यालय निम्र स्तर पर पहुंच गए।

सरकारी विद्यालयों के गिरते स्तर का ठीकरा सदा सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले अध्यापकों पर फोड़ा गया। किंतु वास्तव में अध्यापक इस स्थिति के लिए जिम्मेवार हैं या फिर सरकार स्वयं ही स्कूलों को बंद करने के मूड में है।अगर आंकड़े उठाकर देखें तो ज्यादातर निजी स्कूल किसी न किसी राजनेता से संबंधित हैं या तो वे किसी राजनेता के स्वयं के होते हैं या फिर नेताजी के किसी रिश्तेदार या मित्रों के।

जहां प्राइवेट स्कूलों में हर तरह की सुविधाएं विद्यार्थियों के लिए होती हैं वहीं सरकारी स्कूलों में न तो पीने के पानी का उचित प्रबंध होता है, न ही शौचालयों की साफ-सफाई के लिए सफाई कर्मचारी होता है। जहां निजी स्कूलों के प्रवेश द्वारा रंग-बिरंगे फूलों से आगंंतुक का मन मोह लेते हैं, वहीं ज्यादातर सरकारी स्कूलों में माली की पोस्ट ही नहीं होती। अगर अध्यापक बच्चों की सहायता से फूल-पौधे लगवाते हैं। उन्हें गांव के बच्चे आकर तोड़ देते हैं, क्योंकि छुट्टी के बाद स्कूलों की देख-रेख के लिए चौकीदार ही नहीं होता।

जहां प्राईवेट स्कूलों में एक विषय के कई-कई अध्यापक होते हैं। वहीं सरकारी स्कूलों में ज्यादातर स्कूलों में स्टाफ की कमी रहती है। जो स्टाफ स्कूलों में पढ़ाता है उन्हें सही सम्मान व सुविधाएं नहीं दी जाती।

सरकारी स्कूलों के अध्यापक जैसे-तैसे करके बच्चों को स्कूलों में दाखिल करते हैं, वो भी गरीब परिवारों के बच्चे। उनको पढ़ाते हैं, उनको योग्य बनाते हैं। यहां भी सरकार अपना रूप दिखाती है। जो योग्य व बुद्धिमान बच्चे होते थे, उन्हें पहले नवोदय विद्यालय ले जाते थे, फिर आरोही स्कूल और अब उनसे भी बढ़कर शर्मनाक नियम 134-ए के तहत सरकारी स्कूलों के होशियार बीपीएल बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजकर और उनकी ट्यूशन फीस का बोझ उठाकर सरकार क्या दर्शाना चाहती है। ये तो ऐसे ही हुआ, रोगियों को निजी अस्पतालों में इलाज के लिए भेजकर उनके इलाज का खर्च वहन करना। ये तो वही बात हुई ‘कमाए कोई खाए कोए।’ नर्सरी से बच्चों को पढ़ाता कौन, संभालता कौन? जहां निजी स्कूलों में नर्सरी कक्षाओं के लिए दो-दो अध्यापिकाएं एवं दो आया होती हैं, वहीं सरकारी स्कूलों में प्राईमरी स्कूलों में एक या दो अध्यापक ही नर्सरी से पांचवीं तक पढ़ाते हैं। न प्ले रूम न आया। स्कूलों में न सफेदी दस-दस साल होती है।

कभी-कभार सफेदी का ठेका दे दिया जाता है, जिससे स्कूलों की बाहरी दीवारों पर निम्र स्तर का पेंट कर खानापूर्ति हो जाती है। प्राईवेट स्कूलों में बच्चों को लाने व ले जाने के लिए वाहन हैं, जबकि सरकारी स्कूलों में दो-दो किलोमीटर प्राईमरी के छोटे बच्चे पैदल ही आते हैं। छटी कक्षा में साईकिल दी जाती है लगता है जैसे स्पेशल ऑर्डर देकर ऐसी साइकिलें बनवाई जाती हैं, जो साल भर भी नहीं चल पाती। स्कूलों के प्रबंधन के लिए एस.एम.सी. का गठन तो किया जाता है, किंतु ज्यादातर एस.एम. सी. प्रधान अनपढ़ होते हैं, जिन्हें अपनी शक्तियों एवं कत्र्तव्यों का ज्ञान ही नहीं होता।

जहां निजी स्कूलों में अध्यापकों को स्कूल में आने के बाद सिर्फ बच्चों को पढ़ाना एवं पढ़ाई से संबंधित कार्य करने होते हैं। वहीं सरकारी स्कूलों में अध्यापकों को डाक बनाना, सर्वे करना, कर्मचारी, आया, गेट कीपर और न जाने क्या-क्या काम करने पड़ते हैं। सरकारी स्कूलों में आज भी दीवारों पर काला पेंट करके ब्लैक बोर्ड बने हैं न पुस्तकालय है, न साईंस लैब, न कम्प्यूटर लैब है, न स्द्बष्द्मह्म्शशद्व न योगा रूम, न खेलने के लिए उचित सामग्री एवं कोच। बच्चों के बैठने के लिए या तो बैंच हैं ही नहीं, अगर हैं तो इतने निम्न स्तर के कि बच्चे सही से बैठकर काम नहीं कर सकते। सरकारी स्कूलों की इमारतें जहां जर्जर हालत में हैं, वहीं निजी स्कूलों की आसमान को छूती इमारतें, जिनमें परदे एवं ए.सी. तक लगे होते हैं।

निजी स्कूलों में हर तरह की सुविधाएं बच्चों को दी जाती हैं। वहां केवल क्रीम जाती है। सरकारी स्कूलों में अध्यापक लस्सी बिलोकर मक्खन निकालने की कोशिश करते हैं और जो मक्खन निकलता  है उसे भी निजी स्कूल ले जाते हैंं। निजी स्कूलों में पढऩे वाले बच्चों के माता-पिता का शैक्षणिक स्तर भी आंका जाता है, जबकि सरकारी स्कूलों में पढऩे वाले बच्चोंं के माता-पिता ज्यादातर अनपढ़ होने के कारण गृहकार्य करवाने में बच्चों की मदद नहीं कर पाते। जहां निजी स्कूलों के बच्चे ट्यूशन पर निर्भर होते हैं, वहीं सरकारी स्कूलों के बच्चे पूरी तरह अपने अध्यापकों पर निर्भर होते हैं।

अगर सरकार सरकारी विद्यालयों का उत्थान करना चाहती है तो अध्यापकों पर दोषारोपण करना छोड़ कुछ फैसले ले, जिससे सरकारी स्कूलों का स्तर सुधर सके। जैसे सरकारी स्कूलों में आधारभूत सुविधाएं मुहैया कराए, स्टाफ की कमी पूरी की जाए, अंग्रेजी एवं हिन्दी दोनों शिक्षा के माध्यम  होने चाहिएं, सभी सरकारी खजाने से तनख्वाह लेने वालों के डीसी से लेकर पीयन-स्वीपर तक के बच्चे सरकारी स्कूलों में दाखिल होने चाहिएं, सरकारी नौकरियों में सरकारी विद्यालयों से पढ़े-लिखे युवकों के लिए कोटा निर्धारित होना चाहिए। सरकारी अध्यापकों को उचित सम्मान दिया जाना चाहिए। तभी सरकारी विद्यालयों का स्तर सुधर सकेगा।

गांव रामसरन माजरा(कुरुक्षेत्र)-94664-87839

 

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