हरियाणा की राजनीति में पिछले 40 वर्षों में केवल पांच महिलाएं ही लोकसभा चुनाव लड़ पाई हैं. वो भी पारिवारिक सियासी रसूख और राष्ट्रीय दलों के टिकट के बल पर वरना महिलाओं की भागीदारी शून्यता पर टिकी होती.इसके अलावा निर्दलीय कोई महिला आज तक हरियाणा से संसद का मुंह नहीं देख पाई है.
प्रदेश से पहली महिला सांसद बनने का गौरव जनता पार्टी की चंद्रावती के नाम है जिन्होंने वर्ष 1977 में आपातकाल के हीरो स्व. चौधरी बंसीलाल को हराया था. कांग्रेस की चंद्रावती, कुमारी सैलजा और श्रुति चौधरी, भाजपा की सुधा यादव और इनेलो की कैलाशो सैनी ही हरियाणा गठन के बाद इस दौरान लोकसभा में पहुंच पाईं है.
इस दौरान प्रदेश से चुने गए 151 सांसदों में (जब यह पंजाब का हिस्सा था, तब से) महिलाओं को केवल आठ बार ही चुना गया है. करनाल, रोहतक, हिसार, फरीदाबाद, गुरुग्राम और सोनीपत ने आज तक एक बार भी किसी महिला को संसद में नहीं भेजा है. सबसे ज्यादा तीन बार कांग्रेस की कुमारी सैलजा संसद पहुंचीं. वह दो बार अंबाला और एक बार सिरसा आरक्षित सीट पर चुनी गईं.
इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) के टिकट पर कैलाशो सैनी दो बार कुरुक्षेत्र से जीतीं तो पूर्व मुख्यमंत्री बंसीलाल की पौत्री श्रुति चौधरी भिवानी-महेंद्रगढ़ और भाजपा की सुधा यादव महेंद्रगढ़ से एक-एक बार लोकसभा पहुंचने में सफल रहीं.
1951 में पहले आम चुनाव के दौरान भी संयुक्त पंजाब में करनाल, रोहतक और हिसार सीटें मौजूद थीं, जबकि फरीदाबाद, गुरुग्राम और सोनीपत की सीटें 1977 में अस्तित्व में आईं. वर्ष 1999 में प्रदेश ने पहली बार दो महिला सांसदों महेंद्रगढ़ से भाजपा की सुधा यादव और कुरुक्षेत्र से इनेलो की कैलाशो सैनी को लोकसभा में भेजा.
महिलाओं के लिए वर्ष 2014 सबसे निराशाजनक रहा जब एक भी महिला प्रदेश से संसद नहीं पहुंच पाई. अंबाला से इनेलो की कुसुम शेरवाल, भिवानी-महेंद्रगढ़ से कांग्रेस की श्रुति चौधरी और कुरुक्षेत्र से आम आदमी पार्टी की बलविंदर कौर को हार का मुंह देखना पड़ा. पिछले आम चुनाव में भाजपा ने एक भी महिला उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारा.
साल 2019 में हरियाणा की सियासत में नया मोड़ आने की उम्मीद है. नई नवेली पार्टी बनी जजपा के तत्वाधान में डबवाली से विधायक नैना चौटाला हरी चुनरी चौपाल के 50 कार्यक्रम पूरी कर चुकी हैं और लगातार जजपा पार्टी के प्रचार-प्रसार के लिए सक्रिय हैं. श्रुति चौधरी, किरण चौधरी, सुनीता दुग्गल, कुमारी शैलजा अपनी-अपनी पार्टियों से लोकसभा सीट के लिए मैदान में उतारीं हैं लेकिन देखना होगा की कितनी महिलाएं चौधर कर पाएंगी…..
ग्रामीण इलाकों में कम पढ़ी लिखी आम महिलाएं वोटर भी अपने घर, कुनबे और पति की सलाह पर ही वोट डालती हैं. हालांकि जितने ईलीट वर्ग के लोग हैं वो अपनी महिलाओं से दिलचस्पी लेते कम दिखे हैं की वो किनको वोट देंगीं क्यों की यहां पर स्वयं निर्णय की बात आड़े आती है. कई मामलों में ग्रामीण लेवल पर वोट केवल पारिवारिक और जातिय आधारों पर ही दिया जाता है. महिला वोटरों की कम भागीदारी और कम शिक्षा के कारण कही न कहीं महिला नेत्रियां भी चौधर का हिस्सा न रह पाई हैं.
जिन महिलाओं का काम खेत से घर तक सीमित रहता है और पति का काम गली में ताश खेलने और दारु पीने तक सीमित रहता है वो अपना वोट खुद के ही निर्णय पर ही डालतीं दिखी हैं क्यों की वो एकल कार्य ही करती आईं हैं.
गांव की. एक महिला से जब मैंने पूछा की आप महिला नेता को वोट डालती हैं या फिर पुरुष नेता को, तो उनका जवाब था की जो म्हारै बालकां नै नौकरी ला देगा अर म्हारै जाण पिछाण का होगा उसती रै( वोट) गेरांगे….गांव के एक पुरुष से जब यही सवाल पूछा तो उन्होंने कहा की …..हाम किसे बिरबानी आग्गै काम की क्यों कहवांगें…किसे मर्द नै गेरांगे बोट…चार माणसां म्ह बैठे नै भी किम्मे कह सकां ….बोल सकां…लुगाईयां गेल्यां कोन्या होवै म्हारा व्यवहार..
हालांकि सपना चौधरी के राजनीति में आने की खबर से कई तरह के भद्दे मजाक सोशल मीडिया पर भरे हुए थे. मात्र महिला होने पर, नृतकी होने पर और जातिसूचक रागिणी गाने के बिंदुओं से खूब ट्रोल किया गया. आलोचना के साथ ट्रोल करना लोगों की विकृत मानसिकता का परिचय है.
विपक्ष की बात की जाए या जनसामान्य की तो लगभग प्रतिक्रियाएं समान ही थीं. हालांकि सपना चौधरी की आवश्यकता हरियाणा की राजनीति में ना के बराबर ही है लेकिन लोगों की मानसिकता साबित करती है की महिला कैंडिंडेट होने पर प्रतिक्रियाएं किस प्रकार की होती हैं….
हरियाणा की राजनीति में महिलाओं की सक्रियता पहले से बढ़ी है लेकिन महिलाओं के स्वयं निर्णय पर वोट ना डालने के कारण से भी महिलाएँ चुनावी रण में फतह नहीं कर पाई हैं. लोग भी तभी अपने समक्ष महिला नेता को तब स्वीकार कर पाएंगें जब हर क्षेत्र में महिला नेताओं की सक्रियता होगी. सरपंच महिला का काम भी उसके पति द्वारा किया जाता है तो अधिकतर सरपंच महिला भी डमी की तरह ही काम कर रहीं हैं मात्र कागजों तक .
आम परिवार अपनी बेटियों व महिलाओं को राजनीति में भेजने के लिए रजामंद नहीं होते हैं क्यों की राजनीति में भी असुरक्षा का माहौल प्रतीत होता है. नेताओं पर छींटाकशीं व महिलाओं पर चारित्रिक टिप्पणी से सामाजिक मूल्यों के हनन के साथ राजनीति में महिलाओं के भविष्य का निर्धारण भी नहीं हो पा रहा है. पार्टियां भी महिलाओं को टिकट देने के लिए राजी नहीं दिख रहीं हैं. हालांकि राजनीति में महिलाओं को आरक्षण प्राप्त तो है लेकिन देखिएगा की क्या ये सच है? कितनी पार्टियों ने कितनी महिलाओ को टिकट दिया है …आरक्षण से कम ही …तो महिलाओं की राजनीति में कम भागीदारी में सरकार का एजेंडा मात्र जीत प्राप्त करना भी आड़े आता है.