राजकिशन नैन
(राजकिशन नैन हरियाणवी संस्कृति के ज्ञाता हैं और बेजोड़ छायाकार हैं। साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं उनके चित्र प्रकाशित होते रहे हैं।)
घसीटा कतई भोला अर घणा सीधा था। आठ पहर चौबीस घड़ी किताबां कै चिपट्या रहया करदा। दुनियां म्हं के होरया सै अर क्यूं होरया सै इसकी उसनै रत्ती भर परवाह ना थी। पर एक बात ओ जरुर सोच्या करदा। अक गाम के सब लोग उसनै सब तैं फालतू स्याणा समझैं।
एक बर की बात। पोह-माह का पाळा पड़ै था। रात का बखत था। घसीटा गुदड़ै मैं बैठया, सौड़ ओढीं कोए किताब पढ़ण म्हं मगन था। स्याहमी आळे मैं दीवा धरया था। एकदम उसकी निगाह एक लैन पै अटकगी। लिख्या था – ‘जिसकी डाढ़ी उसकै मुंह तै बड्डी हो सै, ओ बावली बूच हो सै’
या लैन पढ़दींए घसीटै नै आई झुरझुरी। तावळे से नै आपणी डाढ़ी नापी। डाढ़ी उसकै मुंह तै बड़ी थी। घसीटै का दिमाग घूमग्या अर किताब पढ़णा भूलग्या। सोचण लाग्या। जिन लोगां नै या किताब मेरै तैं पहल्यां पढ़ ली होगी, वैं तै मन्नै देख दीं ए जांण जांदे होंगे अक मैं बावली बूच सूं। या तै तुरंत छोटी करणी चाहिए। घसीटा दुखी होग्या। घरां कैंची थी, पर टोहवै कोण। चाकू तैं डाढ़ी बणान की सोची, पर उसकी धार खूहंडी हो री थी।
एकदम दीवे कान्ही लखाकै ओ बड़बड़ाया, ‘आच्छा चाळा होया। मैं तो साच्चीए बावळा होग्या। दीवा तै मन्नै देख्याए ना। के जरुरत थी मन्नै चाकू की अर उस्तरे-कैंची की। ‘दीवै की लौ तै डाढ़ी की नोक जला दयूं सूं।’
फेर के था, घसीटे नै दो-तीन बै नाप कै डाढ़ी पकड़ी अर एक नौक दीवै कान्ही कर दी। फक्क दे सी चिरड़का उठ्या अर पलक झपकण तैं पहल्यां डाढ़ी फूस की ढाल जळगी।
घसीटै नै भाज कै पाणी कै पहंडे मैं मुंह देख्या। हाय, यू मन्नै के करया। मैं तै साच्चीए बावली बूच सूं। किताब छापणियां नै ठीकए लिख्या सै।
साभार: हरियाणवी लघुकथाएं, भारत ज्ञान विज्ञान समिति