विनोबा भावे
रामकृष्ण परमहंस ने इस्लाम, ईसाई आदि अन्य धर्मों की उपासना की थी, उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति प्राप्त करने के लिए साधना की थी और सब धर्मों का समन्वय उन्हें प्राप्त हुआ था। उन्होंने भिन्न-भिन्न धर्मों में की जाने वाली उपासनाओं का अध्ययन किया, अनुकरण किया तथा परिशीलन किया। इन उपासनाओं के द्वारा जो अनुभूतियां हुई, उनका मनन, चिंतन करके सभी धर्मों को आत्मसात करने की साधना की। मैंने सभी धर्मों का अत्याधिक प्रेम से और बड़ी गहराई से अध्ययन किया है। सभी धर्मों की विशेषताएं देखने का मैंने प्रयत्न किया है और उनके सार को ग्रहण किया है हम सबको सभी वर्गों के प्रति अपनत्व के भाव का अनुभव करना है।
मुझे इसका अनुभव है। जब मैंने अपने हाथ में ‘कुरान शरीफ’ लिया, तब मैंने देखा कि जितने भक्ति भाव से मैं वेद पढ़ सकता हूं, उतने ही भक्ति भाव से कुरान भी पढ़ सकता हूं। कुरान के कई भागों को पढ़ते हुए तो मैं एकदम गदगद् हो जाता था और मेरी आंखें भर आती थीं। जब तक मुझे विश्वास नहीं हो गया कि मैं इसके साथ एकाकार हो गया हूं, उसमें पूरी तरह डूब गया हूं, तब तक मैंने कोई टिप्पणी आदि अवश्य कर रखी थी, लेकिन कुरान के उद्धरण आदि का काम नहीं किया था। मुझे स्वयं के प्रति जब इस प्रकार का अनुभव हुआ, तभी मैंने कुरान के दोहन का काम शुरू किया। ‘कुरान-सार’ नामक पुस्तिका जब प्रकाशित हुई तब पाकिस्तान के जाने-माने समाचार-पत्र ‘डॉन’ ने इसके प्रति आक्षेप किया था कि ‘सार’ वह भी ‘कुरान’ का और करने वाला भी एक काफिर? लेकिन जब पुस्तक पढ़ी गयी तब हिंदुस्तान के मुसलमानों ने स्वीकार किया कि बहुत अच्छा किया गया है। बाद में रावलपिंडी के एक अच्छे समाचार-पत्र में ‘कुरान-सार’ की बहुत सुंदर समीक्षा छपी थी, यानी वह स्वीकृत हो गयी थी। यह एक बहुत बड़ी घटना हो गयी कि कुरान का भी सार निकाला जा सकता है। सार निकालना असंभव नहीं वरना संभव है अर्थात् धर्मविरुद्ध नहीं है।
कश्मीर में मुसलमानों के बीच रहने और घूमने का अवसर मिला। मैंने उन लोगों से कहा कि ‘देखो भाई! वेद, कुरान आदि किसी भी ग्रंथ को जस का तस अपने सिर पर चढ़ाने के लिए मैं तैयार नहीं हूं। उनमें जो सार तत्व होगा, उसे ही मैं ग्रहण करूंगा अन्यथा सभी ग्रंथ मेरे लिए एक बोझ बन जाएंगे।’
मेरी पद यात्रा की अवधि में एक स्थान पर गाय का कत्ल हो गया था और इसके कारण वहां का वातावरण तनावपूर्ण हो गया था। मैं उस स्थान पर पहुंचा। उस दिन शुक्रवार था इसलिए मस्जिद में गांव के पंद्रह-बीस लोग जमा थे। मैंने मस्जिद में ही सभा की। मैंने कहा कि अल्लाह यदि गाय, बकरे के बलिदान से ही खुश हो जाता तो वह पैगम्बर क्यों भेजता? इसके लिए तो कसाई ही पर्याप्त था? कुरान में स्पष्ट कहा गया है कि अल्लाह तो प्रेम का भूखा है, बलिदान का नहीं।
इस्लाम के प्रति हमारे देश में बहुत अधिक गलतफहमी है। यहां पर मुसलमान बादशाहों ने जो अत्याचार किये उन्हें हम लोगों ने इस्लाम के साथ जोड़ दिया किंतु कुरान में तो कहा गया है कि सभी जमातें एक हैं। सभी धर्मों का एक ही परिवार है। कुछ लोग इसमें भेद डालते हैं लेकिन सभी भेद झूठे हैं। इस्लाम में बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि जबरदस्ती करना अन्याय है। परमेश्वर को एक ही मानकर सबके साथ प्रेम रखना चाहिए, यही इस्लाम की शिक्षा है, इस्लाम यानि ईश्वर की शरण और इस्लाम यानि शांति। इसके अतिरिक्त तीसरा और कोई मतलब इस्लाम का नहीं है। ‘इस्लाम’ शब्द में सलम धातु है। इसका अर्थ है शरण में जाना। इसी धातु से सलाम शब्द बना है। सलाम यानि शांति।
इससे भी बढ़कर कुरान में एक सुंदर आयत है- ‘हम किसी भी रसूल में फर्क नहीं करते’ अर्थात् दुनिया में केवल मोहम्मद ही एक रसूल नहीं है, यीशू भी एक रसूल हैं और मूसा भी, दूसरे भी बहुत से रसूल हो गए हैं जिनका हम नाम भी नहीं जानते। ‘हम रसूलों में कोई फर्क नहीं करते- यह इस्लाम का विश्वास है। मुझे लगता है कि हिंदुओं की भी ऐसी ही निष्ठा है।’ वे कहते हैं कि दुनिया के सद्पुरुषों ने जो मार्ग बताया है, वह एक ही है। उसमें जो भेद उत्पन्न होता है वह हमारी संकुचित वृत्ति के कारण ही उत्पन्न होता है। यह देखने लायक है कि सभी धर्मों में कितना अधिक साम्य है।
कई वर्षों पहले मुंबई में इस्लाम के एक अध्ययनकर्ता श्री मुहम्मद अली का ‘कुरान का अध्ययन’ विषय पर भाषण हुआ था। अपने भाषण में उन्होंने जो कहा था वह स्मरण रखने योग्य है। उन्होंने कहा ‘कुरान के उपदेशों के संबंध में, हिन्दुओं या ईसाइयों के मन में उठने वाली विपरीत भावनाओं की जिम्मेदारी मुसलमानों की है। अन्य धर्मों के प्रति जो व्यवहार कुरान का मान लिया जाता है वास्तव में इसके लिए कुरान जिम्मेदार नहीं है वरन् ऐसे कई मुसलमान जिम्मेदार हैं जो कुरान के उपदेश के विरुद्ध आचरण कर रहे हैं।’
ईश्वर को संस्कृत में ओम् कहते हैं और अरबी में अल्लाह। दोनों एक ही हैं। अबुल कलाम आज़ाद ने कुरान पर एक सुंदर पुस्तक उर्दू में लिखी है। इसकी प्रस्तावना में इस्लाम को उन्होंने बहुत अच्छी तरह से समझाया है। इसलिए इस्लाम के प्रति गलतफहमी रखना और सभी मुसलमान खराब हैं, ऐसा भाव मन में रखना, अत्यंत गलत है। ‘परमेश्वर ने किसी एक समुदाय को खराब बनाया’ – ऐसा कहना ईश्वर पर बहुत बड़ा आरोप लगाना है। यह एक गलत विचारधारा है।
बचपन में एक बार किसी ने मुझसे कहा कि उस पेड़ पर भूत है, इससे मैं डर गया, लेकिन मेरी मां ने कहा कि भूत-वूत कुछ नहीं है, अगर है तो क्या दिखाई नहीं देता। तू पेड़ के पास जाकर देख। मैंने पेड़ के पास जाकर देखा कि भूत तो है ही नहीं, बढिय़ा मज़ेदार पेड़ है। कहने का मतलब है कि पास जाने से डर समाप्त हो गया, इसलिए पास जाकर परिचय प्राप्त करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से झूठ-भ्रम समाप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार सभी धर्मों के पास आकर मैंने परिचय प्राप्त करने का प्रयास किया है। इसी अर्थ में, मैं कहता हूं कि मैं हिन्दू भी हूं और मुसलमान भी हूं, मैं ईसाई भी हूं और बौद्ध भी हूं।
साभार-सांप्रदायिकता-भाग-1, 2014