(वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक राजेंद्र गौतम, दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी-विभाग से सेवानिवृत हुए हैं। इनके दोहे छंद-निर्वाह की कारीगरी नहीं, बल्कि आधुनिक कविता के तमाम गुण लिए हैं। कात्यक की रुत दोहों में एक विशेष बात ध्यान देने की ये है कि इनमें हरियाणा की जलवायु-मौसम के साथ-साथ प्रकृति में हो रहे गतिमय परिवर्तन और ग्रामीण जीवन के आर्थिक-सांस्कृतिक पक्षों को एक चित्रकार की तरह प्रस्तुत किया है – सं.)
अम्मा का संसार
चला कहीं जाये नहीं मेहमानों का ध्यान
धीरे-धीरे माँ हुई कोने का सामान।
बड़का दिल्ली जा बसा मँझला दूजे देश
दीपक धर माँ ‘थान’ पर माँगे कुशल हमेश।
व्यर्थ सभी संचार हैं तार और बेतार
खटिया तक महदूद है अम्मा का संसार।
रखी ताक पर ताकती बापू की तस्वीर
छिपा गयी हँस फेर मुख माँ नयनों का नीर।
फूलों, काँटों से भरी कैसी थी यह राह
पीहर से ससुराल तक फैली एक कराह
सुनी-अनसुनी रह गयी माँ के दिल की हूक
आँखों आगे जब खुला यादों का संदूक
दोपहरी की ऊंघ का कैसा यह जंजाल
एक घडी में जी लिए दुःख के सत्तर साल
चूल्हे-चौके में खटे जीवन का अनुवाद.
माँ की पोथी में मिले लिखे यहीं संवाद
अनबोला कब तक चले सास-बहू के बीच
तुतले बोलों ने दिया सारा रोष उलीच।
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