कात्यक की रुत आ गई – डा. राजेंद्र गौतम

वरिष्ठ साहित्यकार एवं समीक्षक राजेंद्र गौतम, दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी-विभाग से सेवानिवृत हुए हैं। इनके दोहे छंद-निर्वाह की कारीगरी नहीं, बल्कि आधुनिक कविता के तमाम गुण लिए हैं। कात्यक की रुत दोहों में एक विशेष बात ध्यान देने की ये है कि इनमें हरियाणा की जलवायु-मौसम के साथ-साथ प्रकृति में हो रहे गतिमय परिवर्तन और  ग्रामीण जीवन के आर्थिक-सांस्कृतिक पक्षों को एक चित्रकार की तरह प्रस्तुत किया है – सं.

दोहे

कात्यक मै
काई छँटी
निर्मल होगे ताल
कंठारै गोरी खड़ी
जल मैं दमकैं गाल

कट्या बाजरा
काल्ह था
आज कटैगी ज्वार
उड़द-मूँग-त्यल पाक गे
हर्या-भर्या सै ग्वार

मैं तो
इस क्यारी चुगूँ
तूँ उसकी कर ख्यास
नणदी तेरे रूप-सी
सुधरी खिली कपास

पके धान के
खेत नै
प्यछवा रही दुलार
स्योनै की क्यारी भरी
धरती करै सिंगार

बाँध सणी के
घूंघरू
धर छाती बंभूल
कात्यक की रुत आ गई
दुख-दरदाँ नैं भूल

दिन ढलदें
उडकै चली
जब सारस की डार
धान्नाँ आलै खेत मैं
उट्ठैं थी झनकार

मीठी कचरी
फल रही
थलियां आलै खेत
मीठी ठ्यारी आ गई
ठंडी-ठंडी रेत

मनै दिवाली
खूब गी
दीव्याँ की रुजनास
हीड़ो- कप्पड़ बाल़
कर गाल़ा मैं परकास

खील-पतासे
थाल भर
लिया गोरधन पूज
माँ-जाया जुग-जुग जियो
परसूँ भैया दूज

सारी छोरी
गाल़ की
जावैं कात्यक न्हाण
भजन राम के गा रही
सुख राखैं भगवान

चोगरदै
गूँजण लगे
‘दे’ ठावण के गीत
कात्यक की इस ग्यास नै
सारे अपणे मीत

बीत्या कात्यक
मास जा
लगी कूँज कुरलाण
बाल्यम बसे बिदेस मैं
कूण बचावै ज्यान

खेताँ मैं
म्हारे राम जी
खेताँ मैं भगवान
खेताँ मैं सै द्वारका
गढ़-गंगा का न्हाण

कुछ दिन मैं
कोल्हू चालैं
गुड़गोई के ठाठ
भेली पै भेली बणैं
बजैं ताखड़ी-बाट

Leave a reply

Loading Next Post...
Sign In/Sign Up Sidebar Search Add a link / post
Popular Now
Loading

Signing-in 3 seconds...

Signing-up 3 seconds...