(दयाल चंद जास्ट, रा.उ.वि.खेड़ा, करनाल में हिंदी के प्राध्यापक हैं। कविता लेखन व रागनी लेखन में निरंतर सक्रिय हैं)
(1)
मैं
सूखे पत्ते सी
उड़ रही हूं
पहुंचूंगी किस ओर
ये तो मुझको पता नहीं
पहुंचूंगी भी या नहीं
या हवा में
उड़ती ही रहूंगी
या कि
मिल जाऊंगी धूल में
चूर-चूर होकर
या कि फैंकेगा
कहीं दूर ले जाकर
कोई झंझावात
जहां होगी दूसरी दुनिया
जहां होगा मेरे सपनों का राजकुमार
और मुझे
ले जाएगा अपने देश
अपनी गाड़ी में बिठा।
(2)
फुदकती, थिरकती
कोई चिड़िया
कब पिंजरे में बंद हो जाए
उसे पता नहीं चलता
पिंजरा सोने का हो
या चांदी का
या हो लोहे का
कैसा भी हो
पिंजरा तो पिंजरा होता है
उसमें बंद कैदी का दर्द
एक सा होता है
चिड़िया को उड़ने दो
खुले आकाश में
दाना-चुग्गा चुगने दो
हरी-भरी धरा पर
प्रियतम को मिलने दो
प्यार के क्षितिज पर।
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