सिद्दीक अहमद मेव
(सिद्दीक अहमद मेव पेशे से इंजीनियर हैं, हरियाणा सरकार में कार्यरत हैं। मेवाती समाज, साहित्य, संस्कृति के इतिहासकार हैं। इनकी मेवात पर कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मेवाती लोक साहित्य और संस्कृति के अनछुए पहलुओं पर शोधपरक लेखन में निरंतर सक्रिय हैं—सं.)
दिल्ली से लगभग 65 किलोमीटर दक्षिण में दिल्ली – अलवर सड़क के किनारे बसा हुआ है,मेवात का सबसे पुराने व सबसे बडे गांवों में एक ऐतिहासिक गांवघासेड़ा । यह गांव मेवों की प्रतिष्ठित पाल, देंहगलां पाल के घासेड़िया थाबा का पाबा है जहां घासेड़िया देंहगल के 210 गांवों की चौधर भी है । लगभग 4 कि.मी. की परिधि में बसा गढ़ घासेड़ा मेवात सब प्राचीन गांवों में से एक है । हालांकि यह गांव मेव बाहुल्य है । मगर इस गांवमें मेवों के साथ ही बनिये, अहीर, ब्राह्मण, हरिजन, वाल्मीकि, नाई, मीरासी, सक्का, फकीर, गडरिया, कसाई, कुम्हार आदि जातियां आपसी सदभाव प्रेम ,भाईचारा एवं मेल – मिलाप के साथ रहती हैं । गांवके पूर्व में एक जोहड़ ऐसा भी है ,जिसके पश्चिमी किनारे पर मस्जिद और पूर्वी किनारे पर मन्दिर बना हुआ है । दोनों समुदाय (हिंदू और मुसलमान) अपनी-अपनी आस्था के अनुसार अपने-अपने धर्मस्थल में पूजा एवं इबादत करते हैं। कहीं कोई ईर्ष्या या द्वेष नहीं ,कहीं कोई वैमनस्य नहीं ।
गाँव में कई प्राचीन कुँएं, ऐतिहासिक मकबरे, चौपाल, मन्दिर व मस्जिद तथा राव हाथी सिंह बड़गूजर के ‘गढ़ घासेड़ा ‘ के खण्डहर इस बात के प्रमाण हैं कि ‘ इमारत कभी बुलन्द थी। ‘ तबलीग आन्दोलन के बानियों में से एक मिंयाजी मूसा के इस गाँव ने हमेशा ही मेवात की राजनीति को प्रभावित किया । गाँव में इस वक्त राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय राजकीय और कन्या वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय के साथ-साथ एक प्रतिष्ठित इस्लामी मदरसा भी चल रहा है। गांव के कुछ जागरूक एवं उत्साही नौजवानों ने ‘फलाह -ए- मेवात यूथ क्लब’ बनाकर गांव में सामाजिक, सांस्कृतिक व शैक्षिक जागृति लाने का सराहनीय काम शुरू कर रखा है । इन लोगों ने ‘चौ. रणबीर सिंह हुड्डा‘ पब्लिक लाईब्रेरी स्थापित कर एक ऐसा कीर्तिमान बनाया है ,जिसे लोग वर्षों याद रखेंगे ।
घासेड़ा मेवात का प्राचीन ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक गांव भी है । प्रागैतिहास के कोई प्रमाण अभी तक इस गांव में नहीं मिले हैं , मगर वैदिक एवं महाभारत कालीन प्रमाण,समय-समय पर इस गांव की मिट्टी के गर्भ से प्राप्त होते रहे हैं । मुगल काल में तो इस इस गांव को विशेष दर्जा प्राप्त था । औरंगजेब ने घासेड़ा तथा आस-पास के बारह गांवों, (जिनमें नूंह व मालब भी शामिल थे ) की जागीर हाथी सिंह नामक एक बड़गूजर राजपूत को अता कर घासेड़ा को ‘गढ़ घासेड़ा’ बना दिया ।
यद्यपि मेवात में औरंगजेब के इस फैसले के विरूद्ध तीव्र प्रतिक्रिया हुई और घासेड़ा के मेवों ने सहसौला में जाकर शरण ली, मगर हाथी सिंह तो घासेड़ा का गढ़पति बन ही गया था। घासेड़ा का जागीरदार बनने के पश्चात हाथी सिंह ने इस गाँव को योजनानुसार दोबारा बसाया । उसने गाँव के बीचों बीच अपने महल का निर्माण करवाया जिसके नीचे तहखाने थे। महलों के चारों ओर ईंटों की पक्की दीवार बनवाई। इस दीवार के अन्दर ही उत्तर की ओर एक कुँआं बनवाया, जिसमें बरसात के समय नालियों द्वारा पानी इकट्टा किया जाता था, जिसे बाद में पीने व दूसरे उपयोग में लिया जाता था ।
पास में ही स्थित एक जोहड़ के दक्षिणी किनारे पर एक छोटा सा मन्दिर है, जिसे ‘पथवारी’ के नाम से जाना जाता है। पक्की दीवार के चारों ओर कच्चा गढ़ था, जिसमें पूर्व व पश्चिम की ओर दो दरवाजे थे । पश्चिमी दरवाजे के दाईं तरफ हाथी सिंह का अस्तबल था तथा पूर्वी दरवाजे के बाहर बाजार था । पक्की चारदीवारी के अन्दर हाथी सिंह का निवास व कचहरी थी, जबकि पक्की दीवार के बाहर एवं गढ़ के अन्दर आम जनता रहती थी।
गाँव अथवा गढ़ की बाहरी सीमा पर चारों कोनों पर बुर्ज बुनवाये गये थे, ताकि आक्रमणकारी शत्रु पर नजर रखी जा सके । गढ़, महल, दरवाजे तथा बुर्जों के खण्डहर आज भी गांव में मौजूद हैं ।
हाथी सिंह के बाद उसका बेटा राव बहादुर सिंह, घासेड़ा की गद्दी पर बैठा। वह बड़ा अभिमानी, क्रूर एवं कठोर व्यक्ति था। जनता के प्रति उसका व्यवहार अत्यन्त कठोर एवं रूखा था, जिसके कारण जनता काफी परेशान थी। उसके इसी कठोर एवं निर्दयी व्यवहार को देखकर महाकवि सादल्लाह ने उसके भरे दरबार में ही कह दिया था कि –
सादल्ला सांची कहे,कदी न बोले झूठ !
राजा तेरा महल में ,गादड़ बोलां च्यारू कूंट !!
इस समय राजा सूरजमल के नेतृत्व में जाटों ने शकिल प्राप्त कर भरतपुर रियासत कायम कर ली थी। सूरजमल एक साहसी एंव महत्त्वाकांक्षी सरदार था ,जो रोहतक तक अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था! मगर यह तभी संभव था जब मेवात या तो उसके आधीन हो जाय या उसका सहायक बन जाए। मौके का फायदा उठा कर मेवाती सरदारों ने ‘कांटे से कांटा निकालने’ का निर्णय लिया और सूरजमल को घासेड़ा पर हमला करने के लिए उकसाया ।
सूरजमल ने पूरी शकिल के साथ घासेड़ा पर हमला किया। राव बहादुर ने भी अपने गढ़ से बाहर आकर पश्चिमी किनारे पर मोर्चा लगाया । भीषण युद्घ के पश्चात राव बहादुर गढ़ के अन्दर लौट आया और गढ़ के दरवाजे बन्द कर लिये। जाट सेना ने गढ़ की घेराबन्दी कर ली। तीन महीने तक जाट सेना ‘गढ़‘ का घेरा डाले रही।
तीन महीने की घेराबन्दी से परेशान हो राव बहादुर ने एक भंयकर फैसला लिया । वह नंगी तलवार लेकर महलों में गया और रानियों सहित सम्पूर्ण परिवार को मौत के घाट उतार कर,लाशों को कुँए में डलवा दिया । उसके बाद पूरे जोश के साथ जाट सेना पर टूट पडा। भीषण युद्ध हुआ । घासेड़ा का युद्ध मैदान लाशों से पट गया । मगर वह (बहादुर सिंह) जाट सेना के हाथों मारा गया और मैदान सूरजमल के हाथ रहा । लौटते समय जाट सेना गढ़ घासेड़ा के दरवाजे भी अपने साथ ले गई । ये दरवाजे आज भी डीग के किले में लगे हुए हैं।
इस लड़ाई के बाद काफी दिनों तक घासेड़ा गाँव यूँ ही खण्डहर के रूप में पड़ा रहा। फिर कायम खाँ नामक व्यक्ति ने सहसौला से आकर इसे दोबारा आबाद किया ।
सन् 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्रम के समय घासेड़ा मेवाती क्रान्तिकारियों की गतिविधियों का एक बड़ा केन्द्र था । अंग्रेजी सेना से विद्रोह कर मेवाती सैनिकों ने हसन अली खाँ के नेतृत्व में एक सैनिक दल का गठन कर घासेड़ा में मोर्चा लगाया था । अंग्रेज सेनाधिकारियों को जब इसका पता लगा तो उन्होंने लैफ्टीनेन्ट रांगटन के नेतृत्व में कुमाऊं रैजीमेंट का एक दस्ता तथा टोहाना हॉर्सेज की एक टुकडी घासेड़ा की तरफ रवाना की। इस सेना के पास तोप भी थी। टोहाना हार्सेज, जिसमें पचास घुड़सवार थे, का नेतृत्व लै. रांगटन स्वयं कर रहा था। जबकि कुमाऊँ रैजीमेन्ट जिसका नेतृत्व कैप्टन ग्रान्ट कर रहा था, में एक नेटिव आफिसर, दो नॉन कमीशन्ड आफीसर एवं 62 पैदल सैनिक थे। इस सेना ने घासेड़ा से लगभग दो मील उत्तर-पूर्व में स्थित गाँव मेलावास की पहाड़ी के पास डेरा डाला। सेना ने रास्ते में पड़ने वाले ग्राम आटा व रेवासन को आग लगाकर तहस-नहस कर दिया।
अगले दिन दो दिशाओं से इस सेना ने घासेड़ा पर हमला किया। एक दल सीधा तथा दूसरा दल रेवासन की ओर से आगे बढ़ा। पहले सीधे आने वाले सैनिकों ने गाँव पर हमला किया, जिसका क्रान्तिकारियों ने मुंह तोड़ जवाब दिया । घमासान युद्ध छिड़ गया। अचानक रेवासन की ओर से आने वाली सैनिक टुकडी ने गाँव पर गोलाबारी शुरू कर दी । भीषण युद्ध छिड़ गया । देखते ही देखते 150 क्रान्तिकारी शहीद हो गये । शेष बचकर निकल गये और मैदान अंग्रेजी सेना के हाथ रहा ।
गाँधी जी के नेतृत्व में चले स्वतन्त्रता आन्दोलन में भी इस गाँव का सराहनीय योगदान रहा। 1938 में इस गाँव में औपचारिक रूप से कांग्रेस कमेटी का गठन हुआ और 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन में लोगों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया ।
आखिर 15 अगस्त,1947 को देश आजाद हुआ, मगर भारत व पाकिस्तान के रूप में विभाजित भी हो गया। अलवर तथा भरतपुर के राजाओं ने मेवों को जबरदस्ती पाकिस्तान धकेलने की योजना बनाई। साम्प्रदायिक शक्तियों के उकसाने पर दोनों रियासतों की सेनाओं ने मेवों का कत्ले आम शुरू कर दिया। लोग अपने घर-बार, जमीन-जायदाद छोड़ काफिले बना- बना कर पाकिस्तान जाने लगे । दिल्ली के पुराने किले के अलावा रेवाड़ी, सोहना व घासेड़ा में कैम्प लगाये गये ताकि लोगों को काफिलों में पाकिस्तान भेजा जा सके।
साम्प्रदायिक लोगों के अलावा मुस्लिम लीग के स्वयं-सेवक भी लोगों को उनकी इच्छा के विरूद्ध पाकिस्तान जाने के लिए उकसा रहे थे। मेवों के सर्वमान्य नेता चौ. यासीन खाँ व कं. मुहम्मद अशरफ के विरूद्ध मुकदमा दर्ज करवा दिया गया था। और वे दोनों भूमिगत थे । लोग परेशान थे । कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था । आखिर चौ. मुहम्मद यासीन खाँ, चौ. अब्दुल हुई और दूसरे मेव चौधरियों के प्रयास से 19 दिसम्बर ,1947 को महात्मा गाँधी घासेड़ा गाँव में आए। उन्होंने मंच से लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा, ‘‘मेव हिन्दुस्तान की रीढ़ की हड्डी हैं, उन्हें जबरदस्ती उनके घरों से नहीं निकाला जा सकता ।‘‘ तब कहीं जाकर मेवात पुनः आबाद हुआ। हरियाणा सरकार ने 2007 में इस गाँव को फॉकल विलिज (आदर्श गाँव) घोषित किया था । मेवात का यह प्राचीन एवं ऐतिहासिक गाँव अब चँहुमुखी विकास के पथ पर अग्रसर है।
संपर्कः 9813800164
Mohd Mustafa
हमारे बजरुगों ने कैसी कैसी मुसीबतें बर्दाश्त की हैं अपने देश अपनि मेवात और अपने गांव के लिए और अब लोग आपस में ही एक दूसरे के खून के पियासे हो गए हैं अल्ला रहम करे हम सब के हालात पर My Name is Mohd Mustafa father Zakir Hussain 12 मणी village Ghasera