हरभगवान चावला
(हरभगवान चावला सिरसा में रहते हैं। हरियाणा सरकार के विभिन्न महाविद्यालयों में कई दशकों तक हिंदी साहित्य का अध्यापन किया। प्राचार्य पद से सेवानिवृत हुए। तीन कविता संग्रह प्रकाशित हुए और एक कहानी संग्रह। हरभगवान चावला की रचनाएं अपने समय के राजनीतिक-सामाजिक यथार्थ का जीवंत दस्तावेज हैं। सत्ता चाहे राजनीतिक हो या सामाजिक-सांस्कृतिक उसके चरित्र का उद्घाटन करते हुए पाठक का आलोचनात्मक विवेक जगाकर प्रतिरोध का नैतिक साहस पैदा करना इनकी रचनाओं की खूबी है। इन पन्नों पर हम उनकी कविताएं व कहानियां प्रकाशित कर चुके हैं इस बार प्रस्तुत है उनकी लघु कथाएं – सं.)
“उठो।” किसी ने मुझे झिंझोड़ते हुए कहा। मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा। देखा, सामने एक नारी प्रतिमा थी। दिव्य रूप, श्वेत वसन, आँखों पर काली पट्टी, हाथ में तराज़ू। अरे, यह तो न्याय की देवी है। मैं हैरान था कि आज इतनी सुबह न्याय की देवी मेरे पास क्यों आई है। मेरी आंखों में उग आये प्रश्न को जैसे समझते हुए उन्होंने कहा, “मैं तुम्हें न्याय देने आई हूं। उठो, नहा धोकर मेरे साथ चलो।”
“पर मैंने तो कभी न्याय की गुहार नहीं लगाई। न ही किसी की शिकायत की। मैं तो एक मामूली सा लेखक हूँ और वही लिखता हूँ जो देखता हूँ।
“फिर कहते हो कि मैंने किसी की शिकायत नहीं की। कितनी तो शिकायतें हैं तुम्हें शासन से, प्रशासन से, व्यवस्था से। मेरे साथ दरबार में चलो। आज तुम्हारी सभी शिकायतों का समाधान किया जाएगा।
” मैं दरबार में नहीं जाऊँगा। लेखक दरबार का शरणागत कैसे हो सकता है?”
” तुम दरबार में नहीं जाओगे दरबार के दरबारी बाहर उद्यान में प्रजा के सामने तुमसे मिलेंगे और तुम्हें न्याय देंगे। अब चलो देर मत करो।”
थोड़ी देर बाद मैं न्याय की देवी के पीछे-पीछे पीछे चला जा रहा था। देवी की आँखों पर पट्टी बँधी थी, पर उनकी चाल बेहद सधी हुई थी। गंतव्य पर पहुंच कर मैंने पाया कि एक मंच पर कुछ लोग विराजमान थे और मंच के सामने लोगों की भीड़ थी। उस भीड़ में एक भी महिला नहीं थी। किंकियाने जैसे लहजे में चीखती निपट पुरुषों की भीड़ मुझे डरावनी सी लगी। हम दोनों मंच पर चढ़कर खड़े हो गए।
” आओ देवी तुम्हारा बहुत बहुत धन्यवाद।” यह कहकर एक बहुत स्वस्थ दरबारी ने देवी का हाथ पकड़कर झटक दिया। देवी चक्कर खाती हुई मंच पर गिर गई। पाँच-छह दरबारी उसकी बाँहों और टाँगों पर खड़े हो गए। मैंने देखा, दरबारियों के जूतों में बेहद नुकीली कीलें थीं और देवी की देह से रक्त की धारा बहने लगी थी। देवी के हाथ की तराजू एक तरफ टूटी पड़ी थी। मेरी देह पसीने में नहा गई थी और मैं काँप रहा था। मैं मंच से छलाँग लगाकर भाग खड़ा हुआ; पर उसी क्षण भीड़ ने मुझे लपक लिया। मैं किसी गेंद की तरह हाथ- दर-हाथ लुढ़कता हुआ वापस मंच पर ढकेल दिया गया था। न्याय की देवी मंच पर तड़प रही थी और अब दरबारी मेरी ओर बढ़ रहे थे। मैं बहुत डरा हुआ था, फिर भी लगभग चिल्लाते हुए भीड़ से मुख़ातिब हुआ, “सुनो, मुझे सुनो, मैंने सदा तुम्हारे दुखों को वाणी दी है…” भीड़ अट्टहास कर रही थी, हवा भीड़ की अश्लील किलकारियों से गूंज उठी थी। उसका हिंसक उत्साह देखते ही बनता था। दरबारी अब मेरे बहुत क़रीब आ पहुंचे हैं और यह वह वक्त है, जब सूर्योदय से ठीक पहले की लालिमा आसमान में फैल गई है।
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