हरभगवान चावला
(हरभगवान चावला सिरसा में रहते हैं। हरियाणा सरकार के विभिन्न महाविद्यालयों में कई दशकों तक हिंदी साहित्य का अध्यापन किया। प्राचार्य पद से सेवानिवृत हुए। तीन कविता संग्रह प्रकाशित हुए और एक कहानी संग्रह। हरभगवान चावला की रचनाएं अपने समय के राजनीतिक-सामाजिक यथार्थ का जीवंत दस्तावेज हैं। सत्ता चाहे राजनीतिक हो या सामाजिक-सांस्कृतिक उसके चरित्र का उद्घाटन करते हुए पाठक का आलोचनात्मक विवेक जगाकर प्रतिरोध का नैतिक साहस पैदा करना इनकी रचनाओं की खूबी है। इन पन्नों पर हम उनकी कविताएं व कहानियां प्रकाशित कर चुके हैं इस बार प्रस्तुत है उनकी लघु कथाएं – सं.)
अपने पालतू सफेद कबूतर का पीछा करते हुए राजकुमार कब छोटी रानी के महल में दाख़िल हो गया, उसे पता ही नहीं चला। रानी के महल में राजा के अलावा किसी परिंदे को भी घुसने की इजाज़त नहीं थी और यहां तो परिंदा ही नहीं, परिंदे का मालिक राजकुमार भी महल में घुस आया था। राजकुमार दोषी था तो तय था कि उसे सज़ा मिलेगी; लेकिन एक तो वह राजकुमार था, आम आदमी नहीं, फिर वह नाबालिग भी था। सो तय किया गया कि राजकुमार को प्रतीकात्मक सज़ा दी जाएगी। हूबहू राजकुमार जैसा रुई का एक पुतला बनाया गया और उस पुतले को बीस कोड़ों की सज़ा सुनाई गई। दरबार में मौजूद बीस सिपाहियों को एक एक कोड़ा मारने की ज़िम्मेदारी दी गई। कोड़े मारने का सिलसिला आरंभ हुआ। एक सिपाही जाता, कोड़ा मारता, फिर दूसरा जाता, कोड़ा मारता। इस तरह उन्नीस कोड़ों की सज़ा संपन्न हो गई। दरबार में मौजूद राजकुमार ख़ामोशी से इस तमाशे को देखता रहा। अब बीसवाँ कोड़ा बचा था और एक सिपाही। सिपाही ने पुतले को कोड़ा मारा। पर यह क्या? पुतले पर कोड़ा पड़ते ही राजकुमार की चीख निकल गई और वह दर्द से दोहरा होकर छटपटाने लगा। सारे दरबारी हैरान हो कर देख रहे थे। राजकुमार की पीठ पर एक धारी उभर आई थी,जिसमें से लहू रिस रहा था। वज़ीर कुछ देर तक ध्यान से देखता रहा। उसे सारा माजरा समझ में आ गया। उसने सिपाही को बुलाया और गरज कर पूछा,” सजा के तौर पर पुतले को कोड़ा मारना तुम्हारा कर्तव्य था, पर तुम्हारे मन में गहरा द्वेष भरा था, इसीलिए कोड़ा सीधे राजकुमार की पीठ पर पड़ा और उनकी पीठ पर इतना गहरा घाव हो गया। बताओ राजकुमार से तुम्हारी क्या व्यक्तिगत शत्रुता है? जल्दी बोलो, वरना सर धड़ से अलग कर दिया जाएगा।” सिपाही ने इधर-उधर देखा। सारे सिपाही सर झुकाए खड़े थे। उसने वज़ीर की आँखों में आँखें डाल कर कहा, “मेरी राजकुमार से कोई शत्रुता नहीं है। इतना अवश्य है कि सज़ा क्योंकि राजकुमार के लिए थी तो मैं अपनी कल्पना में चाह कर भी राजकुमार की जगह पुतले को नहीं बिठा सका। दूसरी बात यह कि हमारी राजधानी में पढ़े-लिखे युवाओं को बैल की जगह कोल्हू में जोता जाता है। कोल्हू को खींचते हुए जब कोई युवा बेदम हो कर सांस लेने को पल भर के लिए रुक जाता है तो उस पर कोड़े बरसाए जाते हैं। कोल्हू में जुतने वाले युवाओं में एक मेरा भी बेटा है। वह रोज़ शाम को जब घर आता है तो उसकी पीठ पर मैं धारियां देखता हूँ, जिनमें से लहू रिस रहा होता है। आज जब मैंने कोड़ा मारा तो ठीक उसी समय बरबस मुझे अपने बेटे की पीठ याद आ गई।”