रंजना अग्रवाल की स्वामी वाहिद काजमी से बातचीत
(वयोवृद्ध साहित्यकार स्वामी वाहिद काजमी अंबाला (छावनी) में रहते हैं। भारतीय इतिहास व साहित्य के जानकार हैं। भारत की सांझी संस्कृति व उदार परंपराओं को विशेष तौर पर उदघाटन करते हैं। समाज की और विशेषतौर पर नई पीढ़ी की साहित्य से दूरी के प्रति चिंचित हैं। देस हरियाणा के पन्नों पर हमने उनके शोधपूर्ण आलेख प्रकाशित किए हैं। उनके साहित्य व विचारों से लोग परिचित हैं लेकिन उनका व्यक्तिगत जीवन एक रहस्य की तरह है। प्रस्तुत है स्वामी वाहिद काजमी से विशेष बातचीत जिसमें उनके जीवन को जानने की इच्छा रखने वालों की कुछ जिज्ञासाएं जरूर शांत होंगी – सं.)
रंजना अग्रवाल – आपको क्या लगता है कि आज की पीढ़ी साहित्य से दूर क्यों हैं?
स्वामी वाहिद काजमी – ऐसा नहीं है कि युवा साहित्य से जुड़ना नहीं चाहता। लेकिन आज देखता हूं कि युवाओं की रूचि इस ओर थोड़ी कम होती जा रही है। लेकिन अंतत: लौटना किताबों की ओर ही होगा। शैक्षणिक पाठ्यक्रमों को छोड़ दिया जाए, तो युवाओं का रुझान साहित्य की ओर कम होता जा रहा है। यह एक विडंबना है, युवाओं को ये समझना होगा कि जीवन का असली ज्ञान किताबों में ही छिपा है। साहित्यकारों को भी आगे आते हुए आज की पीढ़ी के बच्चे और युवाओं को साहित्य से जोड़ने के लिए विभिन्न प्रयास करने होंगे।
रंजना अग्रवाल – आप अपने साहित्यिक जीवन के बारे में कुछ बताएं।
स्वामी वाहिद काजमी – मूलत: मैं मध्यप्रदेश के ग्वालियर जिले के आंतरी कस्बे का रहने वाला हूं। मेरा जन्म 4 दिसंबर 1945 में हुआ था। कई शहरों में रहने के बाद मैं सन 1989 में अंबाला कैंट आ गया और तब से यहीं हूं। विभिन्न पत्र व पत्रिकाओं में 800 से अधिक कहानियां, लेख व समीक्षाएं इत्यादि प्रकाशित हो चुकी हैं। हिंदी के साथ-साथ उर्दू और फारसी का भी अच्छा जानकार हूं। विगत वर्ष मेरी एक पुस्तक ‘सिने संगीत का इतिहास’ प्रकाशित हुई है। जबकि कई पाण्डुलिपियां अभी अप्रकाशित हैं। शोध लेख मेरा पसंदीदा साहित्य है।
रंजना अग्रवाल – मेडिकल साइंस के स्टूडेंट होते हुए आप किस तरह साहित्य की ओर मुड़ गए।
स्वामी वाहिद काजमी – मैं मेडिकल साइंस स्टूडेंट था। किसी कारणवश स्नातक नहीं कर सका। लेकिन कहानियां, जासूसी नॉवल, शेरो-शायरी इत्यादि पढ़ने का शौक मुझे बचपन से ही था। उसके बाद मैंने खुद को शोध साहित्य की ओर मोड़ दिया। कई पाण्डुलिपियों पर मैंने शोध किया और फिर उन पर लेख लिखे। एक यायावर की भांति मैंने विभिन्न राज्यों के विभिन्न शहरों में रहकर वहां की लोक संस्कृति, लोक गीत व लोक संगीत पर काफी काम किया है।
रंजना अग्रवाल – एक बड़ा सवाल मन में आता है कि आप सुन नहीं सकते, फिर भी संगीत साहित्य में महारथी हैं। आपको संगीत मर्मज्ञ की उपाधि से भी नवाजा गया है।
स्वामी वाहिद काजमी – श्रवण शक्ति का चला जाना, मेरे जीवन की एक विडंबना है। लेकिन मैंने कभी इसे अपने साहित्यक जीवन में आड़े नहीं आने दिया। मैंने संगीत विषय को बहुत जीया है। इस विषय पर मेरे बहुत से शोध लेख है। मैंने ये साबित किया है कि संगीत विषय पर लिखने के लिए जरूरी नहीं कि संगीत को सुना भी जाए। बस, संगीत को जीना सीख लो, लेखनी खुद संगीतमयी हो जाएगी है। काका हाथरसी के संगीत कार्यालय की ओर से उनके बेटे डॉ. लक्ष्मी नारायणगर्ग ने मुझे ये अवार्ड दिया था।
रंजना अग्रवाल – आपके नाम में भी बड़ा सवाल छिपा है ‘स्वामी वाहिद काजमी’ ये बात भी समझ नहीं आई।
स्वामी वाहिद काजमी – वैसे मैं सर्वधर्म को मानता हूं। लेकिन इस बात को झुठला नहीं सकता कि मेरा जन्म एक मुस्लिम परिवार में हुआ है। लेकिन मैं कभी मस्जिद नहीं जाता, इसलिए नहीं कि मैं नास्तिक हूं, बल्कि इसलिए कि मेरे पास वक्त नहीं है। मस्जिद गया, तो मुझे मंदिर की दहलीज भी चढ़नी पड़ेगी, गुरुद्वारे में अरदास भी करनी पड़ेगी और गिरिजाघर में प्रेयर भी। इतना मेरे पास वक्त नहीं। इसलिए जहां हूं वहीं हमेशा खुदा से जुड़ा रहता हूं और सभी की खैर मांगता हूं। रही नाम की बात तो मेरा ये नाम गुरु रजनीश ओशो ने रखा है। ओशो के साथ आठ मिनट की मुलाकात के बाद उन्होंने मेरे नाम के आगे ‘स्वामी’ लगाते हुए ये कहा था कि अब से तुम्हारा यह नाम हिंदू-मुसलिम एकता की पहचान बनेगा। इसलिए मैं अपना पूरा नाम स्वामी वाहिद काजमी लिखता हूं।
रंजना अग्रवाल – सुना है मरणोपंरात आप अपनी बॉडी भी डोनेट करेंगे, इसकी वजह?
स्वामी वाहिद काजमी – हां, मैंने अपना शरीर सेक्टर 32 जीएमसीएच चंडीगढ़ में डोनेट कर रखा है। यह मेरी शुरू से ही इच्छा थी। मैं चाहता हूं कि जीते जी ही क्यों, वाहिद काजमी का शरीर मरने के बाद भी लोगों के काम आना चाहिए। मुझे अच्छा लगेगा, जब मेडिकल के स्टूडेंट मेरे शरीर पर रिसर्च कर सीखें, आखिरकार मैं भी मेडिकल साइंस का स्टूडेंट जो रहा हूं। यही सोचकर मैंने अपना शरीर दान कर दिया है। इस काम की जिम्मेवारी मैंने अपने दो मित्रों को सौंप रखी है, जोकि मेरे बहुत करीब हैं।
रंजना अग्रवाल – आपकी एक कहानी केरल यूनिवर्सिटी की स्नातक की अंग्रेजी पुस्तक में पढ़ाई जाती है, उसके बारे में बताएं?
स्वामी वाहिद काजमी – मेरी एक बेहद चर्चित कहानी है ‘लानत’। इस कहानी के छपने के बाद एक बड़े अंग्रेजी अखबार ने इसका अनुवाद कर उसे अंग्रेजी में प्रकाशित किया। उसके बाद इस कहानी को केरल यूनिवर्सिटी की अंग्रेजी पुस्तक का हिस्सा बनाया गया। ये कहानी एक सच्ची घटना पर आधारित है, जो समाज में ऊंच-नीच की गहरी जड़ों पर चोट करती है। अंत में कहानी इंसान को सोचने पर मजबूर कर देती है कि इंसान अपनी दयनीय हालात के बावजूद किस तरह से संकीर्णताओं में जकड़ा हुआ है और उसे छोड़ना नहीं चाहता।
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