सेवा देश दी जिंदड़िए बड़ी ओखी,
गल्लां करणियां ढेर सुखल्लियां ने।
जिन्नां देश सेवा विच पैर पाइया
उन्नां लख मुसीबतां झल्लियां ने। – करतार सिंह सराभा
यह साल जलियांवाला बाग नरसंहार का सौवां साल है। यह घटना सत्ता के दमन, क्रूरता, निर्दयता और अमानवीयता के चरित्र को दर्शाती है तो दूसरी तरफ सत्ता के इस मानव-विरोधी रवैये के खिलाफ जनता के संघर्ष की याद दिलाती है। यह बात सही है कि सन् 1947 में भौतिक तौर पर तो साम्राज्यवादी सत्ता भारत से रुख़सत हो गई, लेकिन सामंती व साम्राज्यवादी शासकीय चरित्र के अवशेष जरूर छोड़ गई। शायद यही कारण है कि जनता को जब-तब सत्ता के दमनकारी और क्रूरतापूर्ण व्यवहार के दर्शन होते ही रहते हैं। लेकिन यह भी दिन के उजाले की तरह साफ है कि जिस तरह से देशभक्तों-क्रांतिकारियों ने सत्ता को करारा जबाब दिया था वह लोकतंत्र में भरोसा करने वालों को हमेशा ही प्रेरणा देता रहेगा ।
यह वर्ष भारत के लोकतंत्र के लिए अहम है। इस वर्ष सत्रहवीं लोकसभा के लिए चुनाव होने हैं। यही अवसर होता है जब जनता राजनीतिक दलों से हिसाब मांगती है और उनका हिसाब भी चुकता करती है। इसी दौरान जनता राजनीति सीखती भी है और राजनीतिबाज नेताओं व दलों को सियासत का पाठ सिखाती भी है।
चुनावों के दौरान किसी न किसी रूप में समस्त आबादी राजनीतिक प्रक्रियाओं में शामिल होती है। जनता की समस्त ऊर्जा एक बिंदू पर केंद्रित हो जाती है। जनता राजनीति में दिलचस्पी तो लेती है, लेकिन अनुभव ये बताता है कि चुनावों के दौरान राजनीतिक विमर्श की गुणवत्ता नहीं होती। जनता तो राजनीति से अपने जीवन से जुड़े सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर संवाद करना चाहती है और अपनी समस्याओं के समाधान पर बहस चाहती है, लेकिन विडम्बना ही है कि अखबारों, इलेक्ट्रोनिक मीडिया, सोशल मीडिया या परस्पर बातचीत में चुनावी जीत की तिकड़मों, जोड़-तोड़, नेताओं की परस्पर की गई टिप्पणियों और क्षेत्र विशेष के जातिगत समीकरणों के जोड़-घटा में चुनावी-विमर्श की इतिश्री हो जाती है।
अपनी नाकामयाबियों को छुपाने के लिए राजनीतिक दल लोगों को जात-धर्म-क्षेत्र आदि की संकीर्णताओं में उलझाने की भरसक कोशिश करते हैं। भावनात्मक व गैर-राजनीतिक सवालों पर ऐसा उन्माद पैदा करते हैं कि वास्तविक समस्याओं से ध्यान हट जाता है। लोकतंत्र के चुनावी-पर्व में शोर-शाराबा व जोश तो होता है, लेकिन विवेक मंद पड़ जाता है।
इन अवसरों पर और ऐसे माहौल में बुद्धिजीवियों-साहित्यकारों-सृजनकर्मियों की अधिक भूमिका बनती है, लेकिन अनुभव यही बताता है कि इस दौरान सार्वजनिक जीवन पर उनका विशेष प्रभाव नजर नहीं आता। राजनीति के इस बंभुळिये से वे बचकर ही निकल जाना चाहते हैं। सिने-कलाकारों को तो राजनीतिक दल व नेता अपने प्रचार में बुलाते भी हैं, लेकिन साहित्यकारों की शायद ही किसी को याद आती होगी। समाज में विचारों व संवेदना को परिष्कृत करने वाला यह जीव इस समय निहायत अप्रासंगिक हो जाता है। राजनीतिक दलों में विचारहीन लोगों के दबदबे के कारण ही ऐसा नहीं हो रहा, बल्कि स्वयं साहित्यकार भी इसके जिम्मेवार हैं।
साहित्यकारों का दायित्व बनता है कि वे राजनीतिक प्रक्रियाओं और परिघटनाओं को तो अपनी रचनाओं की विषयवस्तु बनाएं ही, बल्कि जमीनी स्तर पर हरसंभव कोशिश करें कि राजनीति की दिशा व चरित्र जनपक्षीय बने। सत्ता-पिपासु दलों की राजनीति को जनता के समक्ष उदघाटित करने में रुचि लेते हुए जनपक्षीय राजनीति का मार्ग प्रशस्त करें। प्रेमचंद ने वैसे ही नहीं कहा था कि साहित्य राजनीति का पिछलग्गू नहीं, बल्कि मशाल लेकर उसके आगे चलता है। कुछ साहित्यकार साहित्य को राजनीति से दूर रखने की वकालत करते रहते हैं और विभिन्न दलों के राजनेताओं व सरकारों से विभिन्न किस्म के पुरस्कार झटकने व कथित सम्मान प्राप्त करने के जुगाड़ भी भिड़ाते रहते हैं। लेकिन विचार करने की बात यह है कि यदि बाल्मीकि के रामायण और व्यास के महाभारत महाकाव्य से राजनीति निकाल दें उसमें बचेगा ही क्या ? यदि ये महाकवि अपने समय की राजनीति से उदासीन रहते तो ऐसी कालजयी कृतियों की रचना बिल्कुल भी नहीं कर सकते थे।
यह साझा करते हुए हमें बेहद खुशी हो रही है कि देस हरियाणा पत्रिका की टीम 9 व 10 फरवरी को कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र के आर के सदन में तीसरे हरियाणा सृजन-उत्सव का आयोजन कर रही है। पहले दो सृजन उत्सवों ने हरियाणा के साहित्यिक-सांस्कृतिक-बौद्धिक परिवेश में अपनी पहचान बनाई है। यह एक ऐसा अनूठा कार्यक्रम है, जिसमें सृजन के समस्त माध्यमों में कार्यरत सृजनकर्मी और समाज में बदलाव के लिए कार्यरत समस्त वैचारिक सरणियों से संबंद्ध कार्यकर्ता शामिल होते हैं। सामाजिक व सृजनात्मक मुद्दों पर रचनात्मक संवाद करते हैं। रेखांकित करने योग्य बात ये है कि यह संवाद बुद्धि-विलासियों का चकल्लस नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव की जमीन तैयार कर रहा है। विशेष बात ये भी है सृजन के ये उत्सव सरकारी संस्थाओं अथवा सेठों-पूंजीपतियों के अनुदान से नहीं, बल्कि जन-धन से हो रहे हैं। इन उत्सवों ने प्रदेश और देश के साहित्यकारों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है और साहित्यकारों-सृजनकर्मियों का हर प्रकार से भरपूर सहयोग इन उत्सवों को मिल रहा है। इनकी सफलता का पूरा श्रेय देस हरियाणा पत्रिका की टीम को है जो अपने मित्रों-सहयोगियों से धन एकत्रित करने से लेकर कार्यक्रम की व्यवस्था के हरेक पहलू में जी-जान लगाती है।
इस अंक में तारा पांचाल व एस. आर. हरनोट की कहानियां, डॉ. भीमराव आंबेडकर की आत्मकथा, शहीद उधम सिंह की जीवनी, हरभगवान चावला की लघुकथाएं, स्वामी वाहिद काजमी के साक्षात्कार समेत रागनी व लोकथाएं भी हैं। इसमें कहानी, आत्मकथा व जीवनी आकार की दृष्टि से कुछ लंबी लग सकती हैं, लेकिन ये बेहद जरूरी व सामयिक हैं।
उम्मीद है कि आप को यह अंक पसंद आयेगा।
प्रोफेसर सुभाष चंद्र, संपादक, देस हरियाणा