हरियाणा में 1857 का राष्ट्रीय विद्रोह – प्रोफेसर सूरजभान

 भारत में इस वर्ष 1857 के राष्ट्रीय विद्रोह की 150वीं सालगिरह मनाई जा रही है। इस विद्रोह को देसी और विदेशी इतिहासकारों ने अपनी – अपनी दृष्टियों से देखने और इसके महत्व को आंकने की कोशिश की थी, परन्तु आजादी के बाद 1857 की घटनाओं से संबंधित काफी नई जानकारी प्राप्त हुई है। इन दस्तावेजों, अखबारों आदि के अध्ययन से 1857 के विद्रोह के स्वरूप व चरित्र के बारे में धारणा ही बदल गई है। 1959 में मॉस्को में छपी श्ज्ीम थ्पतेज प्दकपंद ॅंत व िप्दकमचमदकमदबमश् नामक पुस्तक में दिए समकालीन लेखों ने 1857 के विद्रोह के स्वरूप और चरित्र पर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला है। मार्क्स ने लेख में लिखा था, ‘मौजूदा भारतीय गड़बड़ी (महज) एक फौजी बगावत नहीं है, बल्कि एक राष्ट्रीय विद्रोह है। सिपाही उसके औजारों की ही भूमिका अदा कर रहे हैं।’ उन्होंने इस विद्रोह की तुलना 1789 की फ्रांस की महान क्रांति से की। वे मानते थे कि जैसे फ्रांसीसी राजशाही पर उसके कुलीन वर्ग ने पहला हमला किया था, न कि किसानों ने, इसी प्रकार भारतीय विद्रोह भी अंग्रेजों द्वारा उत्पीड़ित और अपमानित भूखी – नंगी रैयत से शुरू नहीं हुआ, बल्कि अंग्रेजों द्वारा सजाई – दुलराई सेना की तरफ से ही शुरू हुआ। इसमें संदेह नहीं कि बंगाल आर्मी द्वारा विद्रोह कर देने के बाद अंग्रेज देश में अलग-थलग पड़ गए। न किसानों में उनके प्रति सद्भावना थी, न भूस्वामियों व ताल्लुकेदारों में और न ही दस्तकारों व मजदूरों में। यही कारण था कि पूरे उत्तर भारत में हरियाणा से लेकर बिहार तक और हिमालय से लेकर नर्मदा तक अंग्रेजी सत्ता जहां – तहां कुछ छावनियों तक ही सीमित होकर रही गई थी।

          भारत के इतिहास में इस पैमाने का यह इकलौता सशस्त्र विद्रोह था। प्रो. इरफान हबीब ने इस विद्रोह को दुनिया की सबसे बड़ी उपनिवेशवाद विरोधी जंग बताया है। इसमें लातीनी अमेरिका से कहीं ज्यादा बड़ी संख्या में शामिल हुए थे। बंगाल आर्मी के सवा लाख सिपाहियों में से केवल 7000 ही अंग्रेजी हुकूमत के साथ रह गए थे।

          बंगाल आर्मी अंग्रेजी सरकार की विशाल स्वामीभक्त सेना थी। इसने भारत में अंग्रेजी साम्राज्य को कायम  करने में बड़ी भूमिका निभाई थी। आखिर 1857 में यह देसी सेना बगावत पर क्यों उतर आई और यह विद्रोह कैसे बन गया, यह गंभीरता से सोचने का विषय है।

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          इतिहासकारों का मानना है कि 1832 के ब्रिटिश संसदीय सुधार के बाद से ब्रिटिश पूंजीपति वर्ग ने सत्ता पर अपना वर्चस्व मजबूत कर लिया था। इंगलैंड के जाने -माने इतिहासकारों के अनुसार इसी कारण ब्रिटिश उपनिवेशों  के विस्तार की नई लहर पैदा हुई और साम्राज्य विस्तार में बंगाल आर्मी के सिपाहियों को जंगों में झोंका गया। ये युद्ध अफगानिस्तान, रूस, चीन, बर्मा और इरान के अलावा भारत में भी ग्वालियर, सिंध और पंजाब में लड़े गए। युद्धों में इस सेना को भारी नुकसान झेलना पड़ा। नोट करने की बात है कि उपनिवेशिक शासकों ने विदेशी युद्धों में रूस के अतिरिक्त कहीं भी अंग्रेजी सेना नहीं भेजी, जबकि बंगाल आर्मी को 1839 से 1857 तक लगभग 18 साल जंगों में झोंके रखा। नस्ल भेद की अंग्रेजी नीति के चलते भारतीय सैनिकों को सूबेदार और मेजर से ऊपर के पद नहीं दिए जाते थे, न ही अंग्रेज व भारतीय सिपाहियों का वेतन समान था। इन हालात में बंगाल आर्मी के सिपाहियों में हताशा पैदा होनी स्वाभाविक ही थी।

          बंगाल आर्मी के सिपाही हरियाणा से बिहार तक के हिन्दी – भाषी क्षेत्रों से ही भर्ती किए गए थे। ये एक भाषा बोलते थे। सेना में प्राय: ऊंची जातियों के हिन्दू और मुसलमान भर्ती किए गए थे। हिन्दू और मुस्लिमों को एक ही रेजिमेंट और कम्पनी में रखा जाता था, जिस कारण उनमें सह अस्तित्व और एक-दूसरे  के प्रति सहानुभूति और सहयोग की भावना पनपी। अंग्रेजों द्वारा इन्हें धर्म के आधार पर एक – दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल कर पाना मुश्किल था। यह सुसंगठित सेना कुछ आधुनिक तत्व लिए थी। इसने दुनिया देखी थी, कुछ शिक्षा भी पाई थी। यह जाति और धर्म का गौरव भी लिए थी, परन्तु साम्प्रदायिक नहीं थी। इसीलिए बंगाल आर्मी के हिन्दू और मुस्लिम सिपाहियों ने मिल कर बगावत की मुगल बादशाह को शहंशाह-ए-हिन्द नियुक्त किया। प्रशासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए सर्वशक्तिमान काउंसिल का गठन किया और हिन्दू-मुस्लिम एकता बनाए रखने के लिए  फरमान जारी किए। इनकी आधुनिक सोच का ही परिणाम था कि जहां सैनिकों ने गाय और सूअर की चर्बी लगे कारतूसों को अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध लड़ाई में इन कारतूसों का खुल कर इस्तेमाल भी किया। निस्संदेह बंगाल आर्मी धर्म और जाति में आस्था रखते हुए भी राष्ट्र की आजादी के लिए इनसे ऊपर उठ कर लड़ी।

          किसानों में बदअमनी और असंतोष को जन्म देने वाली व्यवस्था कम्पनी राज की लगान व्यवस्था थी। कम्पनी राज का प्रमुख उद्देश्य था अधिक से अधिक लगान वसूलना। इसी को ध्यान में रखकर भूमि व्यवस्था में बड़ी तबदीलियां की गई। पूर्वी भारत में नव-धनाढ्यों ने अधिक कर देने की बोली बोल कर जमीनें प्राप्त  की और फिर मनमाने ढंग से किसानों से लगान वसूल किया। दिल्ली के चारों तरफ के क्षेत्र में महालवाड़ी व्यवस्था कायम की गई, जिसके तहत जमीन की मल्कीयत गांव की सामूहिक मल्कीयत मानी गई और उस पर लगान की जिम्मेवारी भी समूचे गांव पर लादी गई। जो विशेष परिवर्तन था, वह था लगान की दर को बढ़ाना और उसको वसूल करने के तौर – तरीकों को अधिक कठोर बनाना। मुगल राज्य के अंतर्गत लगान कुल उपज का 1/4 से 1/6 हिस्सा लिया जाता था और उसमें भी वसूली में लचीलापन था, परन्तु अंग्रेजी साम्राज्य के तहत लगान की दर कुल उत्पादन का आधे से भी अधिक हिस्सा तय किया गया और यह भी रबी और खरीफ की फसल के आने से पहले ही फरवरी एवं सितम्बर में नकद रूप में वसूल किया जाने लगा।

          मुगल हुकूमत के तहत फसल नष्ट होने पर लगान नहीं लिया जाता था। हुकूमत की तरफ से रैयत के हित में तकावी आदि की मदद भी दी जाती थी, परन्तु अब अंग्रेजी सरकार किसानों के प्रति ऐसी कोई हितकारी भावना नहीं रखती थी। किसानों को लगान चुकाने के लिए साहूकार – बनियों से कर्ज लेना पड़ता था, वरना् सरकार उन्हें जेल में ठूंस देती थी। अजीत बात है कि लगान वसूल करने के लिए सरकार ने जितने घुड़सवार सिपाही नियुक्त कर रखे थे, उतने कानून-व्यवस्था के लिए नहीं थे। करनाल जिले में कानून व्यवस्था के लिए केवल 22 घुड़सवार रखे गए थे, जबकि लगान वसूलने के लिए 136 घुड़सवार सिपाही थे, जो किसान लगान नहीं दे पाते थे, वे गांव छोड़ कर भाग जाते थे। करनाल जिले की सैटलमैंट रिपोर्ट में लिखा है कि कई गांवों के किसान सामूहिक रूप से अपनी जमीन और घरों को छोड़ कर दूर-दराज के इलाकों में चले गए और गांव उजड़ गए। सोनीपत के परगने में सैटलमैंट रिपोर्ट में यह कहा गया कि 9 गांव जो 1826 में आबाद हुए थे। 1842 में उजड़ गए। रेवाड़ी परगने में  भी 1836 की रिपोर्ट यही दशा दर्शाती है। यही हालत रोहतक और हिसार जिलों की थी। निस्संदेह हरियाणा में किसानों की दशा भारी लगान दर और वसूली के सख्त तौर-तरीकों से खस्ता हो रही थी। यह मंदी का दौर भी था। सन् 1851 से पहले जहां गेहूं के दाम 2 रुपए प्रति मण थे, वहीं 1855-76  में मात्र एक रुपया 1 आना प्रति मण रह ग�� थे। मकई और ज्वार आदि का भाव भी एक रुपया 11 आने से घट कर 13-14 आने रह गया था। एक तो किसान की उपज की कीमत आधी हो  गई थी और उस पर लगान का बोझ और साहूकार की लूट अलग। सरकारी अदालत व्यवस्था भी साहूकार के पक्ष में खड़ी थी, क्योंकि वे ही सरकार को नकद लगान प्राप्त कराने में सहयोगी थे। कृषक वर्ग की तबाही गांव के कमजोर तबकों, जैसे – बुनकर, कुम्हार, लुहार, खाती, चमार आदि समुदायों, पर भी भारी पड़ी। वे  भी जजमानी व्यवस्था के तहत ही अपनी आजीविका कमा रहे थे।

          18वीं सदी में कम्पनी सरकार ने रियासतों एवं जागीरों को छीनने की भी एक तरकीब निकाली थी। कानून बनाया कि जो राजा, नवाब एवं ताल्लुकेदार बिना वारिश गुजर जाएंगे या जो कानून व्यवस्था बनाए रखने में नाकामयाब होगें, उनकी रियासत या जगाीर जब्त कर ली जाएगी। इस कानून के तहत अंग्रेजी सरकार ने झांसी, नागपुर, संबलपुर आदि रजवाड़े हड़प कर लिए।

          लार्ड डलहौजी द्वारा बनाए रियासत जब्ती के कानून श्डवबजतपदम व िस्ंचेमश् के तहत जो रियासतें सरकार ने छीन ली थी, वहां जागीरदारों – जमींदारों की हालत खस्ता हो गइ। ज्यों-ज्यों ब्रिटिश शासन का विस्तार हुआ, शहरी दस्तकार और व्यापारी, जो इन राजा – रजवाड़ों और उनके दरबारियों के लिए सामान मुहैया कराते थे और अपनी आजीविका के लिए उन पर निर्भर थे, भी भयंकर रूप से प्रभावित हुए। बहुत से लोग शहर छोड़ कर गांवों में चले गए। दूसरी तरफ 19वीं सदी के पूर्वार्ध में खुले व्यापार की नीति के तहत भारत अब इंग्लैंड के लिए कच्चा माल पैदा करने और उसके कारखानों के उत्पाद को बेचने की मंडी बनता जा रहा था। शहरों से दस्तकारों के पलायन के चलते 19वीं सदी में ढाका, पटना, लखनऊ, मुर्शिबाबाद, दिल्ली जैसे शहरों की समृद्धि खत्म होती गई और दस्तकारों की संख्या में भी भारी गिरावट आई। ढाका में जहां 1818 में डेढ़ लाख लोग रहते थे, 1836 में केवल बीस हजार रह गए। भागलपुर में जहां 1810 में तस्सर (टसर) बनाने के लिए 3,275 करघे चलते थे। वहां 1877 के आते – आते केवल  13 व्यक्ति ही इस धंधे में टिक गए। जहानाबाद में जहां 1815 से पहले एक कपड़े के कारखाने में 2,200 बुनकर काम  करते थे, 1878 तक यह उद्योग धराशायी हो गया। अरवल में कागज बनाने का काम  भी 1870 तक ठप हो गया। आर्थिक बर्बादी ही मुख्य कारण था, जिसके परिणामस्वरूप भारत के विभिन्न हिस्सों में उपनिवेशी राज के खिलाफ गहरा असंतोष पैदा हुआ था।

           1857 के आते-आते देश के विभिन्न भागों में यदा-कदा हो रहे उपद्रवों की विकटता बढ़ती जा रही थी और 1857 की अपूर्व बगावत ने अंग्रेजी साम्राज्य को जड़ों तक हिला कर रख दिया। यह विद्रोह प्लासी के युद्ध के ठीक सौ साल बाद खून और तलवार से बड़े क्षेत्र में लड़ा गया और अपार गैर मानवीय जुल्मतों का दृश्य बना। विद्रोह की शुरूआत जहां बंगाल आर्मी से हुई, वहां जल्दी ही यह नागरिक आबादी की बगावत में बदल गई।

फौज की बगावत

          Revolt-of-1857यह बगावत जनवरी 1857 में इस अफवाह से शुरू हुई बताई जाती है कि नई इन्फील्ड राइफल के कारतूसों पर गाय और सूअर की चर्बी लगी थी और इन्हें दांतों से तोड़ना पड़ता था। यह हिन्दू और मुसलमान दोनों सैनिकों को मंजूर नहीं था। यह अफवाह आग की तरह उत्तर भारत की छावनियों में फैल गई कि सरकार हमारा धर्म भ्रष्ट करना चाहती है। नतीजा था कि 26 जनवरी 1857 को कलकत्ता से कुछ दूर बरहामपुर स्थित 19वीं देसी स्थल सेना ने परेड पर ये नए कारतूस लेने से मना कर दिया। 29 मार्च को (कलकत्ता के निकट) बैरकपुर में सिपाही मंगल पांडे ने खुली बगावत कर दी। अंग्रेज अफसर को मार डाला। फौजी मुकद्दमा चलाने के बाद उसे सेना के सामने फांसी पर लटका दिया गया। आर्मी में आक्रोश की लहर दौड़ गई।

          मेरठ में 24 अप्रैल 1857 के दिन तीसरी घुड़सवार सेना के 90 में से 85 सिपाहियों ने परेड पर कारतूस लेने से मना कर दिया। उनका कोर्ट मार्शल कर उन्हें लंबी बामशक्कत कैद की सजा दी गई। उन्हें 9 मई को रेड ग्राउंड में लाया गया और भारतीय सेना के सामने उनके कपड़े उतरवा दिए गए। जब इन बेड़ियों में जकड़े फौजी कैदियों ने अपने साथियों पर निगाह डाली और उन्हें इस बेइज्जती के प्रति तटस्थ बने रहने के लिए ताने दिए, तो भारतीय सैनिकों का खून खौल गया और अगले ही दिन 10 मई रविवार को दिन छिपते समय तीसरी घुड़सवार रेजिमेंट ने बगावत कर दी। सैंकड़ों की तादाद में उन्होंने जेल पर धावा बोल दिया और अपने साथियों एवं अन्य कैदियों को छुड़ा लिया। इसी बीच पैदल सेना की 20वीं और 11वीं रेजिमेंटों ने भी हथियार उठा लिए और अपने अफसरों को मार डाला। यूरोपीय अफसरों के परिवार जन भी इस आक्रोश का शिकार हुए।

          विचार-विमर्श के बाद बागी सैनिक रात को ही दिल्ली की तरफ चल पड़े। ब्रिटिश कमांडर का हौसला पस्त हो गया और मेरठ के बागी बिना किसी खतरे और रुकावट के 11 मई को दिन निकलते ही दिल्ली पहुंच गए। उन्होंने बहादुरशाह जफर को विद्रोह का नेतृत्व करने के लिए राजी कर लिया और शहंशाह-ए-हिन्द बनाए जाने की घोषणा कर दी। आखिरी मुगल बादशाह ने शहर में कानून व्यवस्था कायम करने के लिए कई जरूरी कदम उठाए। जून में प्रशासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए एक काउंसिल बनाई गई, जिसमें बागी सैनिक भी शामिल थे। इसमें सभी मामलों पर विचार किया जाता था और कार्य नीति तय की जाती थी। बादशाह की अपील पर बागी जमींदार पैसे और अनाज दिल्ली भेज रहे थे, परन्तु धन की कमी के कारण सेनाओं को तनख्वाह समय पर नहीं मिल पाती थी। नतीजतन शहर में अमीर-उमरा और व्यापारियों से धन इकट्ठा किया जाने लगा था। कइयों के साथ ज्यादती भी की गई। सैनिकों के अलावा दूसरे अराजक तत्व भी सेना के वेश में लूटपाट करने लगे थे। सेना ने कुछ को पकड़ा भी, परन्तु जो सबसे खतरनाक बात थी, वह थी शाही महल में चल रही साजिशें, जिसमें अहसानुउल्ला खान, बेगम जीनत महल, शहजादे और दूसरे लोग शामिल थे। सेना को पता लगने पर बादशाह के महल के चारों और चौकसी बढ़ा दी गई।

          शहर की बदअमनी पर काबू पाने के लिए मिर्जा मुइनुद्दीन खान को जिम्मेदारी सौंप दी गई, परन्तु खास फर्क नहीं पड़ा। बादशाह ने भी खुद शहर का दौरा कर व्यापारियों को आश्वासन दिया, परन्तु शहजादों की आपसी रंजिश ने सब पर पानी फेर दिया। इन्हीं हालात में शहजादों ने बागियों की सेना को अपने-अपने साथ जोड़ लिया। बादशाह ने इन शहजादों को ही प्रशासनिक जिम्मेदारियां सौंप दी। बस शहजादों की पौ बारह हो गई। बागियों ने हालात बिगड़ते देख बादशाह के निजी स्टाफ में सेना तैनात कर दी, जिससे बादशाह की सत्ता और कमजोर पड़ गई। तभी बख्त खां अपनी सैनिक बिग्रेड और खजाने के साथ 2 जुलाई को दिल्ली आ पहुंचा। बख्त खां को बादशाह ने अपनी सेनाओं का कमांडर-इन-चीफ नियुक्त कर दिया। लोगों ने बख्त खां का स्वागत किया, परन्तु शहजादे नाखुश हो  गए। बागी सेनाएं इस खतरे में भी बंटी खड़ी रही। केंद्रीय कमांड नहीं उभर पाई। दिल्ली के हालात पर काबू नहीं पाया जा सका। मिर्जा मुगल और बख्त खां में टकराव पैदा हो गया। मिर्जा मुगल के साथ झगड़े का ही नतीजा था कि बागी सेनाएं अलीपुर की लड़ाई हार गई। बख्त खां को मिर्जा मुगल से न तोपें मिलीं और न ही गोला बारूद। अंग्रेजों ने कुर्सिया गार्डन में तोपखाना लगा दिया और लाल किला उनकी सीधी मार में आ गया।

          हरियाणा क्षेत्र

    1857 में हरियाणा का अधिकतर भू-भाग दिल्ली डिवीजन का अंग था। इसमें रोहतक, हिसार, पानीपत, गुडग़ांव और दिल्ली जिले शामिल थे। अम्बाला और थानेसर के जिले पंजाब के हिस्से थे। उत्तरी हरियाणा में जींद, बुड़िया, कलसिया (छछरौली) की रियासतों के अलावा कैथल, थानेसर, लाडवा, शाहाबाद, शामगढ़, धनौरा, गढ़ी कोताहा, कुंजपुरा, करनाल व पानीपत आदि की जागीरें थी। दक्षिणी हरियाणा में रेवाड़ी, फर्रूखनगर, पटौदी, वल्लभगढ़, झज्जर, लोहारू तथा रानियां की रियासतें थीं।

          हरियाणा के 90 प्रतिशत लोग गांवों में रहते थे और कृषि पर जीवनयापन करते थे। पश्चिमी शिक्षा अभी फैल नहीं पाई थी। हिन्दू और मुसलमानों के धर्म प्रधान स्कूल भी बहुत कम थे। पश्चिमी शिक्षा के अभाव में आर्थिक विकास और सामाजिक मोबिलाइजेशन अभी हरियाणा के समाज में दिखाई नहीं दे रहे थे। लोगों का जीवन परम्परागत था और समाज में जाति व्यवस्था का बोलबाला था। हिन्दुओं  की आबादी लगभग 70 प्रतिशत थी और मुसलमान 30 प्रतिशत। कृषक समुदाय अलग-अलग क्षेत्र में केंद्रित  थे – जाट रोहतक के चारों तरफ बांगरु भू-भाग में बसते थें अहीर रेवाड़ी और महेंद्रगढ़ के क्षेत्र में। रोड़ करनाल और कुरुक्षेत्र के भू-भाग में, भट्टी और रांघड़ सिरसा, हिसार के क्षेत्र में, गुजर जमुना के खादर व आसपास के भू-भाग में और मेव गुडग़ांव जिले के पहाड़ी क्षेत्र में। सैनी और राजपूत विभिन्न क्षेत्रों में थे। शहर नाममात्र के ही थे और उनकी आबादी भी बहुत थोड़ी थी। रियासतों में बहादुरगढ़ के पास 28 गांव थे, दुजाना के पास 31, फर्रूखनगर के पास 18, पटौदी के पास 40, लुहारू के पास 54, वल्लभगढ़ के पास 121 और झज्जर के पास 250 गांव थे। अम्बाला व देहली जिले में आबादी का घनत्व बाकी इलाकों से अधिक था। हिसार, दुजाना, लोहारु और पटौदी में घनत्व 100 से नीचे था। इनके अतिरिक्त झज्जर, फर्रूखनगर, बुडिया, छछरौली और जींद की आबादी बीच की थी। क्षेत्र की कुल आबादी साढ़े 36 लाख के आसपास थी। भाषायी दृष्टि से हरियाणा में कई बोलियां बोली जाती थी, केंद्रीय भू-भाग में बांगरु बोली बोली जाती थी। रिवाड़ी और महेंद्रगढ़ के इलाके में अहीरवाटी, होडल और पलवल के क्षेत्र में ब्रजभाषा और इसके पश्चिम में मेवाती बोली जाती थी।

          जनजीवन परम्परागत ढंग से चल रहा था। देहात  में ग्राम देवता, शीतला माता, पीपल, कुआं पीर, मकबरे आदि को धोका जाता  था। होली-दुलहंडी, तीज आदि त्यौहार सभी जातियों और धर्मों में मनाए जाते थे। मेवात के मेवों के जीवन की पद्धति, उनके सामाजिक संगठन (पाल, गोत्र), रीति रिवाज और वेशभूषा हिन्दुओं से विशेष भिन्न नहीं थे। ग्रामीण समाज प्राय: आत्मनिर्भरता और पंचायती व्यवस्था के तहत जीवन बसर कर रहा था। कम्पनी राज का तंत्र ग्रामीण क्षेत्रों  में भी फैलता जा रहा था, जिसमें नंबरदार, पटवारी, पुलिस और अदालतों का प्रसार हो रहा था और लगान वसूली में कठोरता और न्याय व्यवस्था में झूठ और छल कपट फल फूल रहे थे

          सोनीपत जिले में बगावत

          दिल्ली को आजाद करा लेने  के बाद उसके उत्तर में अंग्रेजी सेना घेरा डाले पड़ी थी। पंजाब से उन्हें जी टी रोड तथा रोहतक-हिसार रोड के रास्ते कुमक पहुंच रही थी। इसे रोकने में दिल्ली और सोनीपत के बीच जी टी रोड के साथ-साब बसे गांवों ने बड़ी भूमिका निभाई। लोक-परम्परा के अनुसार इन बागी गांवों में लिबासपुर, कुंडली, बहालगढ़, खामपुर, अलीपुर, हमीदपुर सराय आदि प्रमुख हैं। कहते हैं कि लिबासपुर गांव में उदमीराम नामक युवक ने अंग्रेजों के काफिलों को रोकने के लिए 22 युवकों का एक दल बना लिया था। विद्रोह के दौरान उन्होंने बड़ी वीरतापूर्वक अंग्रेज सैनिकों के दिल्ली-पानीपत के बीच आने-जाने के रास्ते को रोक दिया। इस प्रयास में कई अंग्रेज मारे गए। बागियों  की मुखबिरी के परिणामस्वरूप दिल्ली फतेह कर लेने के बाद बागी गांव को दंड देने के लिए एक दिन अंग्रेजी सेना ने लिबासपुर आ घेरा। लड़ाई हुई और अनेक वीर मारे गए। गांव को जी भर कर लूटा गया। महिलाओं के जेवर तक छीन लिए गए। लोग गांव छोड़ कर भाग गए। कहते हैं कि पकड़े गए लोगों को जीटी रोड पर पत्थर के रोलर से कुचल दिया गया। वीर उदमीराम को सड़क पर पेड़ से बांध दिया गया। उसके हाथों में लोहे की कीलें गाड़ दी गई। वह देशभक्त 35 दिन का भूखा-प्यासा तड़प – तड़प कर शहीद हो गया। अंग्रेजों ने उसके शव तक को परिवारजनों को नहीं दिया। भाग गए लोग शांति स्थापित होने पर ही कई साल बाद वापिस लौट आए, परन्तु उनकी सारी जमीन राठधना निवासी मुखबिर सीता राम के नाम चढ़ा दी गई। गांव के असली बाशिंदे भूमिहीन गुजारे बन कर रह गए।

          लिबासपुर के पास ही मुरथल गांव है। 1857 के विद्रोह में इसकी भी अच्छी भूमिका रही। कुंडली गांव ने भी स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। जीटी रोड पर आते-जाते अंग्रेजों को खत्म करना और उन्हें लूट लेना इन लोगों का आम काम था। पुन: कब्जा कर लेने के बाद मुखबिरी के आधार पर अंग्रेजी सेना ने उन्हें दंड देने की खातिर एक दिन गांव को जा घेरा और गांव को खूब लूटा। पकड़े पशु अलीपुर ले जाकर नीलाम कर दिए। 11 व्यक्तियों को दंड दिया। 8 को एक साल की कैद और 3 व्यक्तियों को आजन्म काले पानी भेजा। ये तीन सुरता राम, जवाहरा राम तथा बाजा थे, जो फिर लौट कर गांव नहीं आ पाए। उधर गांव की सारी जमीन सरकार ने तीन साल के लिए जब्त कर ली, परन्तु यह जमीन कुंडली के मूल वासियों को फिर कभी नहीं लौटाई गई। आज कुंडली गांव के मालिक सोनीपत के रहने वाले पंडित मामूल सिंह के वंशज बताए जाते हैं। ग्राम निवासी बेबिस्वेदार हो गए। अंग्रेजी शासन में किसी भी कुंडली को  सरकारी नौकरी पर रखे जाने की मनाही कर दी गई। खामपुर गांव भी विद्रोह के अपराध में जब्त कर लिया। गांव की सारी जमीन दिल्ली निवासी पंडित लछमन सिंह के पूर्वज को दे दी गई।

          अलीपुर गांव भी जी टी रोड पर बसा है। 1857 में अंग्रेजों को यहां के वीर सड़क से आने-जाने नहीं देते थे, ताकि वे दिल्ली पर दबाव न बना सकें। लोगों ने सभी सरकारी कागजात जला दिए। बाजार को भी लूट लिया। यहां युद्ध में अनेक अंग्रेजों के मारे जाने की कथा प्रचलित है। दिल्ली पर कब्जे के बाद गांव को सजा देने के लिए एक दिन मैटकाफ, जिसे काना साहब कहकर पुकारा जाता था, सेना लेकर पहुंच गया। गांव को चारों तरफ से घेर लिया गया और 70 – 75 व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लाल किले ले जाया गया। उन सब को फांसी दे दी गई। मुहम्मद और बुरड़ नाम के दो व्यक्ति बच कर भागने में कामयाब हो गए। फांसी चढ़ाए जाने वालों में तुलसी राम और हंसराज के नाम आज भी लोगों की जुबान पर हैं। इसी गांव के तोता राम ने अंग्रेजी पिट्ठू सिक्ख सेना के हाथ से बादली समयपुर के आसपास के बारह गांवों के पशुओं को  छुड़ाने में नेतृत्वकारी भूमिका निभाई थी, वे इस लड़ाई में शहीद हो गए। अलीपुर के इस अहसान को बादली,  समयपुरवासी आज भी सम्मान के साथ याद करते हैं। हमीदपुर को भी गांव की जमीन जब्त कर विद्रोह करने की सजा दी गई। पीपलथला सराय को बगावत की सजा के तौर पर लूटा गया और जला दिया गया। रोहतक जिले के प्रमुख भाग में अभी भी अंग्रेजी सत्ता बनी हुई थी और दिल्ली में अंग्रेजी सेना को मदद पहुंच रही थी।

          रोहतक जिले की बगावत

          मुगल बादशाह ने 24 मई 1857 को तफजल हुसैन के नेतृत्व में रोहतक को अंग्रेजी शासन से मुक्त कराने के लि ए सेना भेज दी। उस समय रोहतक में जी.डी. लॉक नामक अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर था। बख्तावर सिंह तहसीलदार होते थे। इन्होंने बागी सेना का मुकाबला करने की कोश���श की, परन्तु अब जनता भी बागी हो चुकी थी। उसके आक्रोश के सामने वे टिक नहीं पाए। रोहतक को छोड़ वे अन्य अफसरों के साथ पानीपत की तरफ भाग निकले। सरकारी पत्राचार से पता चलता है कि बागियों ने दो तोपें और भारी धाड़ (भीड़) लेकर हमला कर दिया था। कचहरी और सरकारी दफ्तरों को आग लगा दी। अंग्रेज अफसरों के घर जला डाले। सरकारी कागजात जला दिए। किसान, मजदूर व दस्तकार अब इस स्वतंत्रता संग्राम में आ कूदे थे। शहर के महाजन और व्यवसायी, जो साथ नहीं दे रहे थे, उनके क्रोध का निशाना बने। जेल पर हमला कर कैदियों को छुड़ा लिया गया। अब जिले के अन्य कस्बों में भी बगावत फैल गई थी। अंग्रेजी शासन खत्म हो गया। तफजल हुसैन की सेना अब दिल्ली वापिस जाने लगी। बादशाह की सेना ने रास्ते में सांपला में अंग्रेजों को मार गिराया। मांडोठी के कस्टम बंगले जला डाले। बागियों ने महम और मदीने पर भी कब्जा कर लिया। यह बगावत जन-विद्रोह बन चुकी थी। जिले से अंग्रेजी राज खत्म हो चुका था। एक अंग्रेज अधिकारी लिखते हैं, ‘उच्च वर्ग के लोगों से लेकर छोटे तबकों तक सब की हमदर्दी बहादुरशाह जफर के सैनिकों और उनके साथी बागियों के साथ थी।’ सरकार के माफीदार भी बागियों के साथ हो गए। सभी जातियों से जिले के 59 माफीदारों ने इस लड़ाई में भाग लिया, पर जैसे ही बादशाह की फौज ने रोहतक छोड़ा, किसी योग्य प्रशासक  के न होने के कारण अपने कदीमी गोत्रों एवं खापों की लड़ाई शुरू हो चली। अनेक गांवों में अराजकता का बोलबाला हो चला।

          इन परिस्थितियों में कम्पनी की सरकार ने लॉक को दोबारा रोहतक पर काबू करने का आदेश दिया। 24 मई को 60वीं भारतीय रेजिमेंट भी रोहतक के लिए रवाना कर दी गई, परन्तु ये सिपाही खुद बागी बन बैठे। जैसे – जैसे रोहतक पहुंचे, उन्होंने  देखा कि अंग्रेजी शासन के सभी निशान मिटा दिए गए थे। अब दिल्ली का बादशाह यहां को बादशाह था। अंग्रेजी सेना को बागियों के भारी हमले के कारण पीछे हटना पड़ा और बड़ा नुकसान उठाना पड़ा। जून और जुलाई के दौरान बगावत जोरों पर थी। जिला आजाद हो चुका था। रोहतक का छिन जाना अंग्रेजों की दिल्ली की लड़ाई में विशेष महत्व रखता था। अत: 8 अगस्त 1857 को ब्रिगेडियर निकल्सन भारी सेना के साथ रोहतक भेजा गया। शहर पर बागियों का कब्जा था। अंग्रेजी सेना ने शहर पर हमला कर दिया। शहर में बागियों ने एक बहुत बड़ी बारूद बनाने की फैक्ट्री लगा रखी थी। इसमें अचानक आग लगने से भारी विस्फोट हो गया। इसमें लगभग 500 बागी जलकर मर गए, परन्तु इसके बाद भी बागी, अंग्रेजों के हमले का वीरता से मुकाबला करते थे। युद्ध में अनेक अंग्रेज सैनिक मार गिराए गए। अंग्रेजों को अपने बचाव के लिए पीछे हटना पड़ा। वे देशी रियासतों से सेना मंगाने लगे।

          लेफ्टिनेंट मैकफर्सन ने 12 अगस्त को चीफ कमिश्नर लाहौर को लिखा, ‘पता चला है कि रोहतक जिले के बागी बादशाह की सहायता के लिए दिल्ली गए थे। अब वे वापिस रोहतक आ गए हैं। वे हिसार की तरफ बढ़ने की सोच रहे हैं।’ लाहौर के आर्मी मुख्यालय ने निर्णय लिया कि हांसी, हिसार और सिरसा को काबू करने के लिए लाहौर से अंग्रेजी फौज भेजी गई। कमिश्नर ने नवाब बहावलपुर से भी इस काम के लिए 500 घुड़सवार मांगे, परन्तु बहावलपुर रियासत में अब बगावत हो जाने के कारण नवाब सहायता भेजने की स्थिति में नहीं था।

          अंग्रेजी सेना के दिल्ली कैंप में उन दिनों रोहतक की खबरें बराबर पहुंच रही थीं। खबर आई कि बागियों का नेता बाबर खान रांघड़ों के दल के साथ फिरोजपुर से दिल्ली आ रही रेलगाड़ी को लूटने की योजना बना रहा था। कम्पनी सरकार ने तुरंत लेफ्टिनेंट हडसन को 233 सैनिकों, 6 यूरोपीय अधिकारियों और जींद के 25 घुड़सवारों के साथ रोहतक भेज दिया। 15 अगस्त को यह सेना खरखौदा जा पहुंची। खरखौदा में जमा बागी सिपाहियों ने बिसारत अली नंबरदार के नेतृत्व में अंग्रेजी फौज का डटकर मुकाबला किया। हडसन कहते हैं कि उनका मुकाबला इतना कठिन था मानो शैतानों से हो, परन्तु अंग्रेजी सेना की शक्ति बहुत बड़ी थी। उनके पास तोपें थी। फिर भी उन्हें बड़ा नुकसान उठाना पड़ा। हडसन को खरखौदा में यह सूचना भी मिल गई थी कि रोहतक के बागी उसके खिलाफ योजना बना रहे हैं। वह तुरंत रोहतक की ओर चल पड़ा। अस्थल बोहर गांव में रात काट कर वह अगले दिन रोहतक पहुंच गया। उसने कचहरी के खुले अहाते में सेना को एकत्र कर लिया। उस समय बाबर खान किसान अंग्रेजी सेना का मुकाबला करने के लिए सैनिकों की खोज कर रहा था। 17 अगस्त को ही उसने 300 रांघड़ घुड़सवारों के साथ अंग्रेजी सेना पर हमला कर दिया। उसके पीछे लगभग 1000 पैदल सैनिक भी थे। इनके पास तलवारें व देशी बंदूकें थी। दोनों फौजों के बीच घमासान युद्ध हुआ। बागियों ने बड़ी बहादुरी से अंग्रेजी फौज का सामना किया, परन्तु अंग्रेजी तोपखाने से बचाव के लिए उन्हें खुले मैदान से हटना पड़ा। वे बणी में झाड़ियों के पीछे छिप कर लगातार लड़ते रहे, परन्तु अंग्रेज थे बड़े चालाक। वे पीछे हटने लगे। अंग्रेजी फौज को पीछे भागते देख बागी सिपाही उन पर हमला करने के लिए बाहर खुले मैदान में आए गए। बस फिर क्या था, अंग्रेजी फौजों ने तोपखाने की मदद से जबरदस्त वार कर दिया। दोनों तरफ भारी नुकसान हुआ। बागी सैनिक फिर जंगल में जा छुपे। अंग्रेजी सेना में अब उन्हें ललकारने का न साहस बचा था, न गोला बारूद। कुछ दिनों तक लड़ाई बंद रही, परन्तु जल्दी ही अंग्रेजों की कुमक आ गई। उनकी बढ़ती फौजी ताकत को देख बागियों ने रोहतक छोड़ना ही ठीक समझा। उनमें से कुछ ने हांसी के नजदीक बड़सी गांव पहुंच कर मोर्चा जमा लिया। हडसन ने जिले के मुख्य कस्बों पर हमला कर दिया। वह खरखौदा, सांपला, सोनीपत, महम और गोहाना पर कब्जा कर लेने में कामयाब भी हो गया। फिर क्षेत्र का कार्यभार जींद के महाराजा और स्थानीय चौधरियों को सौंप कर खुद दिल्ली को रवाना हो गया। हडसन के जाते ही बागियों ने जींद की फौजों और स्थानीय अधिकारियों को मार गिराया।

          हांसी – हिसार का  विद्रोह

          दिल्ली के आजाद होने की खबर हिसार में भी फैल गई थी। हांसी और सिरसा में अंग्रेजों की छावनियां थी। सभी अंग्रेजी अफसरों में खलबली मच गई। उन्होंने देसी रियासतों से सैनिक मदद मंगवानी शुरू कर दी। खजाने का पैसा निकाल कर दूसरी जगह छिपा दिया। किले की सुरक्षा का इंतजाम कर दिया गया। हांसी, हिसार व सिरसा में मौजूद सैनिक टुकड़ियां बगावत कर दिल्ली की तरफ बढ़ चलीं। 29 मई को भारतीय सैनिकों ने बड़े पैमाने पर बगावत का झंडा बुलंद कर दिया। अंग्रेजी मेजर स्टाफ और अन्य अधिकारी व कर्मचारी हांसी छोड़ कर भाग निकले। जो नहीं भाग सके, उन्हें बागियों ने मार डाला।

          हिसार जिले का ऐतिहासिक नगर हांसी रोहतक से 80 किलोमीटर पश्चिम में और हिसार से 20 किलोमीटर पूरब में स्थित है। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय लाला हुक्म चंद जैन हांसी में कानूनगो थे। वे शहर में हिन्दुओं के मोहल्ले में रहते थे। शहर में एक मुसलमान जमींदार मिर्जा मुनीर बैग भी थे। ये दोनों अच्छे दोस्त थे। विद्रोह की खबर ने उन्हें झिंझोड़ डाला। हुक्म चंद जैन ने बादशाह को फारसी भाषा में एक पत्र लिखा। पत्र में मुगल बादशाह से सेना भेजने की प्रार्थना की और अपने हर प्रकार के सहयोग का विश्वास दिलाया। दोनों वीरों ने हांसी में मिल कर हिन्दू और मुसलमान सभी लोगों का नेतृत्व किया। सितम्बर के आखिरी हफ्ते में जब बादशाह बहादुरशाह जफर को अंग्रेजों ने कैद कर लिया, तो उनकी फाइलों में हांसी से लिखा एक पत्र मिल गया। सरकार ने तुरंत कार्यवाही की। सरकार के खिला�� बगावत करने के अपराध में इन दोनों देश भक्तों को पकड़ लिया गया। उन्हें लाला हुक्म चंद जैन की हवेली के सामने पेड़ पर लटकर कर 19 जनवरी 1858 के दिन फांसी दे दी गई। उनकी लाशें उनके परिवारजनों को नहीं दी गई। उनका अंतिम अपमान करने की खातिर अंग्रेजी प्रशासन ने हुक्म चंद की लाश को परम्परा के विपरीत जमीन में गाड़ दिया और मिर्जा मुनीर बेग के शव को जला दिया। उन की जायदाद को जब्त कर लिया और घरों का सामान लूट लिया।

          रोहणात का गांव हांसी से 8 मील दक्षिण में स्थितहै। सन 1857 में दिल्ली के अंग्रेजी राज से स्वतंत्र करा लिए जाने के बाद तोशाम, रोहणात और उसके आसपास के कई गांवों ने 29 मई के दिन अंग्रेजी प्रशासन पर हमला बोल दिया। इन गांवों में हिन्दू, मुसलमान, जाट, रांघड़, ब्राह्मण, धानक, चमार, तेली व बनिए सभी विद्रोह में शामिल थे। वहां झज्जर और दादरी के नवाबों  के सिपाही और बंगाल आर्मी के बागी सिपाही भी थे। तोशाम और हांसी का सारा इलाका देखते ही देखते आजाद हो गया। बिगड़े हालात पर काबू पाने के लिए अंग्रेजों ने 4 तोपें और 800 घुड़सवार हांसी भेज दिए। बीकानेर से भी मदद के लिए सेना आ गई। जनरल वानकोर्टलैंड की रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजी सेना ने 6 जुलाई को हांसी के पास विद्रोही गांव पर हमला कर दिया। बागियों के नेता सूबेदार गुरबख्श अपने 25 साथियों के साथ लड़ते – लड़ते शहीद हो गए। अंग्रेजी सेना को भी काफी नुकसान उठाना पड़ा। महाराजा बीकानेर हांसी और हिसार क्षेत्र में विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों का पूरी तरह साथ दे रहे थे। महाराजा स्वयं तीन हजार सैनिक और दस तोपें लेकर अंग्रेजों की मदद के लिए आ धमके थे। विद्रोहियों को पकड़ने और जमीन से लगान वसूल करने में उसने अंग्रेजों की पूरी मदद की। अंग्रेजी अफसर ने भी महाराजा बीकानेर की गद्दारी के बदले उसे माकूल इनाम देने की सिफारिश की। अंग्रेज सेना ने पुट्ठी कलां गांव में तोपें लगाकर रोहणात पर गोलीबारी कर दी। हाजमपुर, भाटोल रांघडान, खरड़ अलीपुर और मंगाली को भी जला कर खाक कर डाला गया। कहते हैं कि गांव के विद्रोहियों व सैनिकों को पकड़ कर हांसी में शहर के बीच वाली सड़क पर रोड़ी कूटने वाले रोलर के तले कुचल दिया गया। सड़क शहीदों के खून से रंग गई। इसी से इसका नाम लाल सड़क पड़ गया। रोहणात वासी नौंदा राम यहीं शहीद हुए थे। बिरड़दास स्वामी को तोप से बांध कर उड़ाया गया। रोहणात और कई दूसरे गांव बेदखल कर दिए गए। उनकी जमीन व मकान 20 जुलाई 1858 के दिन नीलाम कर दिए गए। आज तालाब के किनारे एक चौबुर्जा कुआं और एक छोटी सी मस्जिद ही उस वक्त की निशानी बची है।

          हिसार में भी हरियाणा लाईट इन्फैन्ट्री और दादरी के घुड़सवारों ने 29 मई के दिन बगावत कर दी। शाहनूर खां और राजन बेग उनके नेता थे। बागी सेना हिसार के किले में जा घुसी। उसका विरोधी किसी ने नहीं किया। अंग्रेज कमांडिग अफसर मारा गया। लोग भारतीय सैनिकों की मदद के लिए उठ खड़े हुए। कलेक्टर को भी कचहरी में ही खत्म कर दिया गया। अब इस क्षेत्र की सत्ता बागियों के हाथों में थी। उन्होंने जेल पर हमला कर दिया। उसे तोड़ कर 40 कैदी छुड़ा लिए। सरकारी खजाना लूट लिया। अंग्रेज अफसरों, उनकी पत्नियों और बच्चों को खोज – खोज कर मार दिया। यह काम सरकारी चौकीदारों, मालियों और नौकरों ने ही कर दिया। हिसार के तहसीलदार को उसके चपरासी ने कत्ल कर डाला। अंग्रेजी सत्ता और उसकी हर वस्तु को तहस-नहस कर दिया गया। अंग्रेजों से हमदर्दी रखने वाले भारतीयों को भी लोगों के गुस्से का सामना करना पड़ा।

          हिसार के नजदीक भट्टू की जागीर थी। उसका सहायक पेट्रोल उस  समय मोहम्मद अजीम था। वह मुगल बादशाह के शाही खानदान से था। उसने दिल्ली के बादशाह की तरफ से अपने – आप को क्षेत्र का शासक घोषित कर दिया और मई के अंत तक अंग्रेजी राज के खात्मे की घोषणा कर दी। मोहम्मद अजीम ने जून के पहले हफ्ते तक हिसार में शांति स्थापित कर ली थी। अब वह बहादुरशाह की मदद के लिए दिल्ली चला गया। हिसार में उसकी गैरहाजिरी से बड़ा नुकसान हुआ। अंग्रेजों ने फिरोजपुर के डिप्टी कमिश्नर को हिसार पर पुन: कब्जा करने के लिए भेज दिया। उसके साथ 550 सैनिक तथा दो तोपें थी। एक राजनीतिक अफसर भी उसके साथ था। कश्मीर के राजा का भेजा हुआ 120 सैनिकों का दल भी सिरसा के निकट मलोट गांव में उनकी सेना में आ मिला।

          जैसे ही अंग्रेजी सेना ऊधा गांव के पास पहुंची, रानियां के नवाब नूर मोहम्मद खां  ने उसका रास्ता रोक लिया। नवाब के पास 4000 सैनिक थे। 15 जून को ऊधा गांव के पास दोनों सेनाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ। नवाब की फौज ने जी-तोड़ ताकत लगा दी। वतन की खातिर 530 सैनिकों ने अपनी जानें कुर्बान कर दी। नवाब भी मैदान में लड़ रहा था। हालात बिगड़ते देख वह मैदान से बच निकला और लुधियाना पहुंचने में कामयाब हो गया, परन्तु वहां पकड़ लिया गया और अंग्रेजों ने राजद्रोह के आरोप में उसे फांसी पर लटका दिया।

          18 जून को अंग्रेजी फौज ने छतरवां गांव पर हमला कर बागी गांव को आग लगाकर पूरी तरह जला डाला, परन्तु साम्राज्य का जुल्म हरियाणा में विरोध की ज्वाला को ठंडा नहीं कर पाया। गांव के बाद गांव उठते चले गए और खुंखार अंग्रेजी सेना के शिकार होते गए। 19 जून को खिरका गांव का नंबर आया। भट्टियों ने अंग्रेजी सेना का डट कर मुकाबला किया, परन्तु सैनिक शक्ति और गोला बारूद की कमी यहां भी भारतीयों के आड़े आई। आखिर अंग्रेज सेना आगे बढ़ती हुई 20 जून को सिरसा पहुंचने में कामयाब हो गई। उसे देश भक्तों से कदम-कदम पर तीव्र विरोध का सामना करना पड़ रहा था। अंग्रेजों को देसी रियासतों से हर प्रकार की मदद मिल रही थी। बीकानेर के महाराजा ने दो तोपें और 800 सैनिक अंग्रेजों की मदद के लिए सिरसा भेज दिए। इस तरह सिरसा पर भी अंग्रेजों ने काबू पा लिया।

          हांसी के क्षेत्र से निपट कर 8 जुलाई को जनरल वानकोर्टलैंड ने हिसार की तरफ कूच किया। विद्रोही गांवों ने रास्ते में अंग्रेजी सेना से जम कर टक्कर ली। वे सीधे मार्ग से हिसार नहीं जा सकते थे, इसलिए उत्तर की तरफ निकल गए। फतेहाबाद पहुंच कर वापिस हिसार की तरफ मुड़े। फतेहाबाद के रास्ते से आखिरकार 17 जुलाई को हिसार पहुंच पाए। भट्टी और रांघड़ों ने यहां उसका डटकर मुकाबला किया, परन्तु उन्हें व्यापक पैमाने पर कत्ल कर डाला गया। अनेक नागरिक भी केवल शक के चलते मार डाले गए। उनकी बेगम को कैद कर लिया गया। मोहम्मद अजीम उस समय दिल्ली में थे। बहादुरशाह को जब इन हालात का पता चला तो उन्होंने तुरंत मोहम्मद अजीम को 1500 घुड़सवार, 500 सैनिक व दो तोपें देकर वापिस हिसार भेज  दिया। मोहम्मद अजीम ने हिसार पहुंच कर अंग्रेजी सेना पर हमला बोल दिया। लड़ाई बड़ी सख्त थी। भारतीय सेना बड़ी बहादुरी से लड़ी। 300 बागी सैनिक शहीद हुए। मोहम्मद अजीम किसी तरह बच कर निकलने में कामयाब हो गए। 2 अगस्त को बागियों ने अपनी ताकत फिर से इकट्ठी कर तोशाम पर हमला कर दिया। वहां मौजूद सरकारी अफसरों, तहसीलदार, थानेदार और कानूनगो को मौत के घाट उतार दिया। सरकारी खजाने को लूट लिया गया। अब बागी फौजें हांसी की तरफ बढ़ चली। 6 अगस्त को बागियों ने हांसी के नजदीक अजीमपुर गांव में मोर्चा जमाया। यहां अंग्रेजी सेना से डटकर लड़ाई हुई, परन्तु कामयाब नहीं हो सके। अंग्रेजी सेना ने गांव को जला कर खाक कर दिया।

          गांव के गांव अंग्रेजों से लड़ते रहे और कुर्बानियां देते रहे, परन्तु उन्होंने हार नहीं मानी। अंग्रेजी सेना के विद्रोही फौजी और झज्जर नायब के घुड़सवार भी बागियों के साथ आ म��ले थे। मंगाली गांव में उन्होंने अपना मोर्चा जमा लिया। इनका नेतृत्व शहजादा अजीम कर रहा था। अंग्रेजी सेना के साथ यहां भीषण युद्ध हुआ। 400 बागियों ने आजादी की खातिर अपने जीवन को बलिदान कर दिया। अंग्रेजों ने मंगाली गांव को जला डाला।

          18 अगस्त को अंग्रेजी सेना माइलमे के नेतृत्व हिसार की ओर बढ़ी। उसकी चिट्ठी के हवाले से पता चलता है कि उसके पास 675 घुड़सवार सैनिक थे। पंजाब की फौजें भी उससे आ मिली थी। हिसार की सुरक्षा का भार उसने अपने हाथों में ले लिया, परन्तु  बागी कहां हार मानने वाले थे। उसी दिन 2000 से अधिक बागियों ने शहर पर धावा बोल दिया, जिनमें रांघड़ों के अलावा हरियाणा लाइट इन्फैंट्री के सिपाही और 400 घुड़सवार शामिल थे। इनका नेता मोहम्मद अजीम था, जिसका परिवार हिसार में ही था। बागियों ने किले के मुख्य द्वार नागौरी गेट पर जोरदार हमला किया। बड़ी-बड़ी कुल्हाड़ियों से वे कीलों वाले भारी भरकम दरवाजों को काटने लगे। अंग्रेजी सेना ने उन पर गोलियां बरसानी शुरू कर दी। बागियों ने डटकर मुकाबला किया। लड़ाई काफी समय तक चलती रही। सुरक्षा की दृष्टि से बागी नहर का पुल पार कर डोगरा मोहल्ले में जा डटे और वहां से किले पर लगातार गोलीबारी करते रहे। अंग्रेजी सेना ने बड़ी मुश्किल से बागियों पर काबू पाया। लगता है कि इस लड़ाई में 500 के करीब बागी मारे गए और अनेक घायल हुए। अंग्रेजों को भी लड़ाई में काफी नुकसान उठाना पड़ा।

          शहजादा अजीम  के नेतृत्व में बागियों ने 30 सितम्बर को एक बार फिर अंग्रेजों से लोहा लिया। जमालपुर गांव में भयंकर युद्ध हुआ। बीकानेर के महाराजा की मदद के बिना शायद अंग्रेजों को हार का मुंह ही देखना पड़ता। परिस्थितियों स्वतंत्रता सेनानियों के विपरीत  थी। शहजादा अजीम को हिसार छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। हरियाणा का वह देशभक्त योद्धा गुडग़ांव में राव तुलाराम से जा मिला और 16 नवम्बर को अंग्रेजों से अंतिम लड़ाई लड़ने के लिए नारनौल के नजदीक मैदान में फिर जा डटा। रेवाड़ी के जागीरदार राव तुलाराम, हिसार के शासक शहजादा अजीम और झज्जर के कमांडर अब्दुस्समद खां और उनके वीर सैनिकों ने अंग्रेजों का मुंहतोड़ मुकाबला किया, परन्तु अंग्रेजों की सैनिक शक्ति और बड़े तोपखाने के सामने ठहर पाने में कामयाब नहीं हो सके। शहजादा अजीम खां का युद्ध के बाद कोई पता नहीं चला। राव तुलाराम अंग्रेजों के खिलाफ मदद लेने के लिए छुप कर राजस्थान चला गया। लड़ाई के तुरंत बाद अंग्रेजों ने हिसार जिले   पर दोबारा शासन कायम  कर लिया। बागियों का दमन शुरू कर दिया गया। 133 बहादुर देश भक्तों को फांसी की सजा दे दी गई। उनकी सम्पति जब्त कर ली गई। अनेक गांवों, जिन्होंने बगावत में हिस्सा लिया था, की जायदाद जब्त कर ली गई और उन पर भारी जुर्माना थोप दिया गया। इस प्रकार लोगों की स्वतंत्रता की आकांक्षा को बेरहमी से कुचल दिया गया।

          पानीपत जिले में बगावत

          करनाल 1857 के विद्रोह के समय पानीपत जिले का ही अंग था। देश के मुख्य मार्ग जीटी रोड या जरनैली सड़क पर स्थित होने के नाते अंग्रेजी राज के लिए इसका रणनीतिक महत्व था। इसलिए पानीपत में अंग्रेजी सेना की छावनी भी थी। जिले के दूसरे कस्बे जींद और पटियाला की रियासतों के संरक्षण में थे और जिले के नगरों पर सेनाओं का पूरा दबाव था। वहां विद्रोह उभर पाना संभव नहीं दिख पड़ता था। फिर नगरों व जरनैली सड़क को सुरक्षित बनाए रखने के लिए उन्होंने पटियाला, जींद, करनाल और कुंजपुरा के शासकों से फौजी सहायता मंगवा ली थी। पटियाला का महाराजा 1500 सैनिक और 4 तोपें लेकर अंग्रेजों की मदद की खातिर खुद आ हाजिर हुआ। अंग्रेज पानीपत और थानेसर जिलों को विद्रोह से मुक्त नहीं रख सके। पानीपत शहर में अब अली कलंदर की दरगाह बागियों का गढ़ बन गई थी। जरनैली सड़क पर कब्जा बनाए रखने के लिए मई के अंत में दिल्ली से अंग्रेजी सेना आई। पानीपत के नजदीक इस सेना की बागियों से टक्कर हुई। अंग्रेजी सेना को बागियों ने बुरी तरह हरा दिया। उनके सैंकड़ों सैनिक मारे गए। बाकी भाग गए। उनका प्रधान सेनापति जनरल एन्सेन भी लड़ाई में मारा गया। पंजाब से थोड़े दिनों बाद आई कुमक के सहारे ही वे बागियों को पीछे धकेलने में कामयाब हो पाए। अब अली कलंदर को फांसी पर लटका दिया गया, परन्तु देहात बागियों का ही रहा।

          उधर पंजाब में भी फिल्लोर और जालंधर में सेना की बगावत हो गई थी। यह जून के दूसरे हफ्ते की बात है। पानीपत के डिप्टी कमिश्नर को 8 जून को पता चला कि जालंधर के बागियों की संख्या बहुत बड़ी है। वे अम्बाला या पटियाला की तरफ से होकर थानेसर की तरफ आ सकते हैं। पटियाला के राजा ने डर के मारे थानेसर से अपनी सेना वापिस बुला ली। वह पटियाला की हिफाजत के लिए बड़ा आतुर था, परन्तु जालंधर के विद्रोही उधर नहीं आए। वे अम्बाला, गढ़ी कोताहा होते हुए दिल्ली की तरफ कूच कर गए। चारों तरफ माहौल गर्म हो चला था। पानीपत में गांव के लोगों में देशभक्ति उमड़ रही थी। अनेक बड़े – बड़े गांव विद्रोह के केंद्र बन गए। इनमें बल्ला, जलमाणा, असंध, छात्तर, उरलाना खुर्द आदि प्रमुख थे। अनेक गांवों ने अंग्रेजों से डटकर टक्कर ली और कर देने से मना कर दिया। कप्तान मैकैन्ड्रस एक अंग्रेज अफसर ने लिखा है, ‘मैंने प्रदेश को पूर्णत: असंगठित पाया है। कर संग्रह करने वाले और पुलिस यहां  से भागने की स्थिति में हैं। बहुत से बड़े जमींदार और गांव प्रतिक्रिया की मुद्रा में हैं।’

          इलाके में बगावत को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने 13 जुलाई को बल्ला गांव पर हमला कर दिया। अंग्रेजी फौज कप्तान ह्यूज के नेतृत्व में आगे बढ़ी। प्रथम पंजाब घुड़सवार सेना की भी एक टुकड़ी बल्ला पहुंची। यह गांव करनाल नगर के दक्षिण में 25 मील दूरी पर स्थित है। यहां सैंकड़ों जाटों ने रामलाल जाट के नेतृत्व में इकट्ठे होकर अंग्रेजी सेना के दांत खट्टे कर दिए। ह्यूज को भागना पड़ा। अंग्रेज जाकर जंगल में छिप गए उसी रात इलाके के रांघड़ों ने उन पर धावा बोल दिया। अंग्रेजी फौज के पैर उखड़ ही गए होते कि करनाल व पटियाला के नवाबों ने मौके पर सेना और तोपों की कुमक भेज दी। ज्यादा सैनिक शक्ति और गोलाबारूद के सामने रांघड़ों को पीछे हटना पड़ा। अंग्रेजी सेना ने फिर बल्ला गांव पर हमला किया। जाट सैनिक एक बड़े मकान में मोर्चा बनाकर लड़ते रहे। यह ऐसा मजबूत मोर्चा था जिसे तोपों की मदद के बिना फतेह नहीं किया जा सकता था। अंग्रेजों ने तोपें लगाई। भवन के कुछ हिस्से टूट गए। बागी सैनिक खुले मैदान में आ डटे। गैर-बराबरी का घमासान युद्ध हुआ। सौ के करीब बागी मारे गए। अंग्रेजी सेना का भी काफी नुकसान हुआ। उनके बहुत से घोड़े मारे गए। बड़ी सेना और गोला बारूद की ताकत के बल पर आखिर अंग्रेज बल्ला गांव को जीतने में कामयाब हो गए। गांव के लोगों पर भारी जुर्माना थोप दिया गया। उनसे जबरदस्ती कर वसूल किया गया, परन्तु बागियों ने हार नहीं मानी। उन्होंने नई रणनीति अपनाई। वे जलमाणा गांव में जाकर इकट्ठे हो गए। अंग्रेजों ने लेफ्टिनेंट पियरसे को विद्रोहियों को दबाने के लिए भेजा। वह सतलुज से उस पार के इलाके का कमिश्नर था। बागियों से लड़ाई में उसे मुंह की खानी पड़ी। उसने अम्बाला और पानीपत से सैनिक सहायता मांगी, परन्तु वहां भी विद्रोह भड़क चुका था। उसे कोई मदद नहीं पहुंच सकी। जलमाणा और आसपास का इलाका स्वतंत्र बना रहा।

          पानीपत जिले में असंध गांव सबसे ज्यादा अशांत था।  यहां रांघड़ों की बहुत बड़ी संख्या एकत्र हो गई थी। थ���ने पर धावा बोल दिया गया। वहां तैनात सरकारी सिपाहियों ने बागियों का विरोध नहीं किया। थाने पर कब्जा हो गया। यह खबर पाकर अंग्रेजी अफसर पियर्सन असंध की तरफ चल पड़ा। उसके पास एक मजबूत फौज थी, परंतु असंध के बागी बड़े जोश में थे। पियर्सन उन पर हमला करने का हौसला नहीं जुटा पाया। उलटे रांघड़ों ने ही अंग्रेजी फौज पर हमला कर दिया और बड़ी वीरता पूर्वक उसे असंध से खदेड़ दिया।

          जुलाई के महीने में अंग्रेजों को पटियाला की रियासत से काफी सैनिक सहायता मिल गई। अंग्रेजी कप्तान मैक्लिन को पानीपत के इलाके में विद्रोह को दबाने के लिए भेजा गया। उसने 16 जुलाई से तेज हमला शुरू कर दिया। हालात लगभग बदल गए थे। अंग्रेजी सेना अब संगठित रूप से पानीपत के गांवों को दबाने के लिए आगे बढ़ी और असंध पर हमला कर दिया। बड़ी जोरदार लड़ाई हुई। हरियाणा के वीर योद्धाओं ने ताकतवर अंग्रेजी सेना का जी-जान से मुकाबला किया। लेकिन अंग्रेजों की बहुत बड़ी ताकत थी और गांव के इन लोगों के पास न उचित ट्रेनिंग थी और न ही इतना गोला बारूद था। अंग्रेजों ने असंध गांव को जला कर खाक कर दिया। फिर बारी जलमाणा और छातर की आई। एक – एक करके बागी गांवों को नृशंसतापूर्वक कुचल दिया गया।

          थानेसर में विद्रोह

          थानेसर जिले में वैसे तो कोई सैनिक विद्रोह नहीं हो पाया। अंग्रेजी अफसर मैक्नील ने स्थिति को बिगड़ने से पहले ही काबू कर लिया। थानेसर में कायम 5वीं देसी सेना की टुकड़ी के हथियार 14 जुलाई को ही छीन लिए गए। लाडवा से करनाल तक सड़क की सुरक्षा के लिए महाराजा पटियाला की फौज तैनात कर दी गई। सेना के साथ महाराजा ने तीन तोपें भी थानेसर भेज दी। जींद के महाराजा से भी सैनिक सहायता आ गई थी। अंग्रेजों ने करनाल को अपना मुख्यालय बनाया, ताकि वे दिल्ली से आने वाले विद्रोहियों को रोक सकें। सरकारी रिकार्ड को विद्रोही सेना के साथ लगने से बचाने के लिए या तो अम्बाला ट्रेजरी पहुंचा दिया गया या जला दिया गया। जेल पर विद्रोही आक्रमण के भय से पहरा कड़ा कर दिया गया। इस तरह अंग्रेज प्रशासन विद्रोह की व्यापक संभावनाओं को कम करने में कामयाब हो गया, परन्तु प्रजा का क्रोध कहां काबू आ सकता था। लोगों ने बगावत को कुचलने के लिए सख्त कदम उठाए। थानेसर में बागियों के साथ लड़ाई हो गई। बागी बड़ी बहादुरी से लड़े। 135 बागी शहीद हो गए। अन्य 62 विद्रोहियों को लुटेरे बताकर मार डाला गया। थानेसर के गांवों में नंबरदारों का बड़ा प्रभाव था। उनके पास हथियार भी थे। उन्होंने नगाड़े बजाकर और झंडे उठाकर बागियों का साथ देने के लिए गांव वालों को आंदोलित किया, परन्तु अंग्रेजों की ताकत बड़ी थी। लोगों की हल्की ताकत उसका कहां मुकाबला कर पाती। प्रशासन ने बागियों को पकड़ – पकड़ कर पेड़ों पर सरेआम लटका दिया। अनेक बागियों को कैद और जुर्माने की सजा दी। सेना की मदद से थानेसर के लोगों से जबरदस्ती 2 लाख 35 हजार रुपए वसूल कर लिए। कुछ प्रमुखों को करों में ढील देकर अपना सहयोगी बना लिया। इस तरह अंग्रेज जुल्म, तशद्दुद और चालाकी से विद्रोह पर काबू पाने में सफल हो गए।

          अम्बाला जिले में बगावत

     GTRoad_Ambala     उत्तरी हरियाणा में अम्बाला बहुत बड़ा जिला था। उसमें रोपड़ से  लेकर जगाधरी तहसील तक का इलाका शामिल था। अम्बाला नगर जीटी रोड पर स्थित था। इसके सामाजिक महत्व के कारण वहां अंग्रेजों की छावनी थी। वैसे तो 10 मई को ही यहां स्थित पांचवीं भारतीय पैदल सेना और 60वीं बटालियन के सैनिकों ने अपनी बैरकों में हथियार उठा लिए थे, परन्तु वे सफल नहीं हो पाए। सफल बगावत का सेहरा मेरठ के सैनिकों के सिर ही बंधा। अंग्रेज बड़े चालाक थे। विद्रोह की आशंका से निपटने के लिए उन्होंने जींद, नाभा और पटियाला की रियासतों से फौजी सहायता मंगा ली, परन्तु रोपड़ में सरदार मोहर सिंह के नेतृत्व में कुछ सैनिकों ने बगावत कर दी। सरदार मोहर सिंह रोपड़ के भूतपूर्व महाराजा का करदार था। इलाके में उसकी बड़ी साख थी। उसने खुल कर अंग्रेजों का विरोध करना और लोगों को जगाना शुरू कर दिया था। उसके इरादे अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के थे। पांचवीं भारतीय बटालियन के जो सिपाही अंग्रेजों ने निकाल दिए थे, उनका मोहर सिंह से तालमेल हो गया। उन्होंने मिलकर तहसील पर हमला कर दिया, परन्तु पुलिस और जागीरदारों ने इसे कामयाब नहीं होने दिया। मोहर सिंह को पास के जंगलों में छिपना पड़ा। सुना जाता है कि पहाड़ी क्षेत्र के रजवाड़ों से सरदार मोहर सिंह ने तालमेल बिठा लिया था। उन्हें बगावत के लिए भी तैयार कर लिया था। अंग्रेजी सेना ने इस स्थिति से निपटने के लिए कै. गार्डनर को आदेश दिया कि मोहर सिंह को गिरफ्तार कर लिया जाए और उस पर मुकद्दमा चलाए जाने के लिए अम्बाला भेज दें। यह कोई खालाजी का घर नहीं था। बागी सिपाही सरदार मोहर सिंह के लिए मर-मिटने को तैयार थे, पर चालाकी व धोखाधड़ी में अंग्रेजों का क्या मुकाबला था। वे मोहर सिंह को गिरफ्तार करने में कामयाब हो गए। अम्बाला में उन पर व उनके साथियों पर देशद्रोह का मुकद्दमा चलाया गया। मोहर सिंह को फांसी दे दी गई, परन्तु लोगों के दिल में अंग्रेजी राज के प्रति कोई जगह नहीं थी। जालंधर के बागी रोपड़ होते हुए दिल्ली जाने के लिए अम्बाला से गुजरे, तो लोगों ने उनकी जय-जयकार की और उन्हें यथासंभव सहयोग दिया। अम्बाला जिले के इलाके में एक छोटी रियासत गढ़ी कोताहा भी थी। यहां के नवाब ने लोगों से मिल कर अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर डाली। जालंधर से दिल्ली जा रही बागी सेना का भी स्वागत किया। भारी अंग्रेजी सेना और गोला बारूद के सामने उसका टिक पाना संभव नहीं था। अंग्रेजों ने नवाब पर भरी जुर्माना कर दिया और तोपें लगाकर गढ़ी को नेस्तनाबूद कर दिया। उधर जगाधरी में भी देशभक्ति जाग पड़ी और लोगों ने बगावत कर दी। एक अंग्रेजी अफसर ने बड़े दुखी होकर लिखा, ‘व्यापारियों को अंग्रेजी राज ने समृद्ध बनाने में बड़ी मदद की थी, पर जगाधरी के व्यापारी भी अंग्रेजी राज के विरुद्ध हो गए।’ बगावत ज्यादा दिन नहीं चल पाई। आखिरकार अंग्रेजी सेना ने देसी रियासतों की सहायता से देश की पहली स्वतंत्रता की लड़ाई को असफल बना ही दिया। साम्राज्यवादी विदेशियों का राज पुन: स्थापित हो गया। हरियाणा की बहादुर जनता खून का घूंट पी कर रह गई।

          गुड़गांव जिले में विद्रोह

          11 मई को दिल्ली को मुक्त करा लिए जाने के बाद चारों तरफ विद्रोह फैलने लगा। लगभग 300 बागी सैनिक गुड़गांव की तरफ चल पड़े जो दिल्ली से 32 किलोमीटर दक्षिण में है। उन दिनों गुड़गांव जिले का कलेक्टर एक अंग्रेज था, जिस का नाम विलियम फोर्ड था। हमले की खबर मिलते ही वह एक फौजी टुकड़ी के साथ उन्हें रोकने के लिए दिल्ली की तरफ चल दिया। रास्ते में बिजवासन गांव के पास उसकी बागी सेना से टक्कर हो गई। जल्द ही अंग्रेज सेना भाग खड़ी हुई। विद्रोहियों ने आगे बढ़ कर गुड़गांव पर हमला कर दिया। अंग्रेज कलैक्टर गुडग़ांव छोड़ कर भाग निकला। जीवन की सुरक्षा के लिए भोंडसी और पलवल होता हुआ मथुरा की तरफ निकल गया। कस्बे पर बागी सेनाओं ने कब्जा कर लिया। उन्होंने दफ्तर को जला डाला और खजाने को लूट लिया। यह खबर सारे जिले में आग की तरह फैल गई। मेवात के अनेक गांवों के मेव बगावत में शामिल हो गए। शम्सुद्दीन की फांसी की याद भी उन्हें ताजा हो गई। अब लोगों को विश्वास हो गया था कि अंग्रेजी राज को खत्म किया जा सकता है। म���वात के चौधरियों और नेताओं ने दिल्ली के बादशाह को अपना बादशाह कबूल कर लिया। उन्हें सैनिक और पैसे की मदद देने का वचन दे दिया।

          सदरुद्दीन मेव ने कमान संभाली

          मेवात के देहात ने कम्पनी राज का जुआ उतार कर फेंक दिया था, परन्तु कुछ कस्बों में सत्ता अंग्रेजों के पिट्ठुओं के हाथ में थी। वहां के अमीर-उमरा और प्रशासक अंग्रेजी हुकूमत के खैरख्वाह थे। बस लोगों का गुस्सा उन की तरफ फूट पड़ा। सदरुद्दीन ने मेवों की कमान संभाल ली। वह एक साधारण किसान था। उसने एक बड़ी मेव धाड़ (भीड़) इकट्ठी की। पिनगुवां कस्बे पर धावा बोल दिया। कोई खास मुकाबला नहीं हुआ। देखते ही देखते पिनगुवां कस्बे पर कब्जा हो गया। फिर क्या था, एक के बाद एक, दूसरे कस्बों पर हमले होने लगे। तावडू, सोहना, फिरोजपुर झिरका और पुन्हाना भी तोड़ दिए। लोगों ने जी भरकर कस्बों को लूटा। वह कोई संगठित और प्रशिक्षित सेना तो थी नहीं। नूंह कस्बे के खानजादों (मुसलमान जमींदारों) और पुलिस ने विद्रोही मेवों का मुकाबला किया। सदरुद्दीन ने नूंह पर भारी हमला कर दिया। अडवर और नंगली के लोग भारी संख्या में चढ़ आए। लड़ाई कई दिनों तक चलती रही। मेव बड़ी बहादुरी से लड़े। आखिरकार खानजादे भाग खड़े हुए। उन्हें जान और माल का भारी नुकसान उठाना पड़ा। एक अंग्रेज सेना अधिकारी मैक्सन भी लड़ाई में मारा गया। मेवात अब आजाद हो गया था। सदरुद्दीन इलाके के प्रबंध  में जुट गए।

          होडल के आसपास कुछ गांव रावत जाटों के थे। दूसरी तरफ हथीन में राजपूत थे। ये दोनों विद्रोह में शामिल नहीं हुए। सरकारपरस्त बने रहे। इलाके के लोगों को बड़ा गुस्सा आया। सरोत जाट उन गांवों पर चढ़ आए। उधर सेवली के पठानों और मेवों ने भी हथीन पर हमला बोल दिया। सरकारपरस्तों को दबा  लिया गया। मई के अंत तक जिले का जमुना तक का सारा क्षेत्र आजाद हो गया।

          मेजर एडन को मुंह की खानी पड़ी

          पास में राजपूताना का क्षेत्र है। वहां के राजपूत राजा भी सिख और मराठा राजाओं की तरह अंग्रेजी राज के सहयोगी थे। उन रियासतों में अंग्रेजी अफसर और उनकी सेनाएं भी मौजूद होती थी। रियासतों में गवर्नर की तरह निगरानी रखने वाले अंग्रेजी अफसर को रेजिडेंट कहते थे। उन दिनों जयपुर में कछवाहा राजपूतों की रियासत में मेजर एडन रेजिडेंट था। मेवात के बिगड़ जाने की खबर जब उस तक पहुंची, तो उसने हालात पर काबू पाने के लिए तैयारी शुरू कर दी और 6 हजार सैनिक और सात तोपें लेकर वह मेवात की तरफ चल पड़ा, पर मेवात को काबू करना टेढ़ी खीर था। इलाके में घुसते ही वहां के मेवों से उसकी टक्कर होनी शुरू हो गई। गांव के बाद गांव उस पर हमला कर देता था। उसका सामान छीन लेते थे, परन्तु एडन के पास बड़ा तोपखाना और गोला-बारूद था।  उसने अपनी तोपों  का मुंह गांव की तरफ कर दिया। तावडू और सोहना के बीच अनेक गांव जलाकर रख कर दिए। सोहना पहुंच कर तीन दिन के लिए डेरा डाल दिया। खबर मिलते ही जगह-जगह  से जान बचाकर भागे यूरोपियन अधिकारी व उनके परिवार जैसे-तैसे सोहना के कैंप में जाकर शरण लेने लगे। एडन की सेना ने फिर पलवल की तरफ कूच कर दिया। होडल और पलवल के बीच जा डेरा डाला। परंतु इलाके में उभरे जन-विद्रोह ने अंग्रेजी सेना का दिल दहला दिया। मौत सामने खड़ी दिखाई देने लगी। नतीजा था कि उनमें असंतोष भड़क उठा। बहुत से राजपूत सैनिकों में देशभक्ति का मादा जाग उठा। एक सैनिक अफसर ठाकुर शिवनाथ सिंह के तहत बगावत की तजवीज़ बन गई। एक रात मेजर एडन पर हमला बोल दिया गया। हमलावर सैनिकों को कामयाबी तो नहीं मिल पाई, पर एडन का हौसला टूट गया। मेवात पर काबू पाए बिना ही वह वापिस जयपुर चला गया। गुडग़ांव कम्पनी के राज से स्वतंत्र बना रहा। बरसात के महीनों में भी बगावत झंडा फहराता रहा।

          अलवर के राजा को मात

          अलवर का महाराजा भी अंग्रेजों का बड़ा  फरमांबरदार था। अंग्रेजों के सहयोग से फिरोजपुर झिरका में  उसने अमलदारी बना ली थी। जुलाई में महाराजा बने सिंह ने फिरोजपुर झिरका में कानून-व्यवस्था कायम करने के लिए मुंशी अम्यूजान को फौज देकर भेज  दिया। वह अलवर और मेवात में अंग्रेज अधिकारी का सुरक्षा सलाहकार था। उसने गुडग़ांव में मेवों को कुचल डालने की बड़ी कोशिशें की, परन्तु मेवों के सामने उसकी एक न चली। बागियों ने फिरोजपुर में उसे घेर लिया। मुंशी जी को जान के लाले पड़ गए। आखिर अंग्रेजी फौज की मदद से एक नया किला बनवा लिया। वह सोचता था कि किले से उस क्षेत्र पर अपनी सत्ता बनाई रखी जा सकेगी, परन्तु दोहा के मेवों ने उसकी सब तदबीरों पर पानी फेर दिया। मेवों ने नौगावां के राजा के कैंप को चारों  तरफ से घेर लिया। राजा वहां से अंग्रेजी सेनाओं को मदद करता था। मेवों ने उसकी डाक लूट ली। अंग्रेजों से उसके सारे सम्पर्क टूट गए। महाराजा की अमलदारी मेवात में टिक न सकी। वहां तो मेवों की अमलदारी चलती थी। फिर महाराजा ने 1200 सैनिकों की एक फौज अंग्रेजों की मदद के लिए मथुरा व आगरा के लिए रवाना की। मेव बड़े सजग थे। दोहा गांव के पास उन्होंने महाराजा की फौज पर धावा बोल दिया। पूरा का पूरा दस्ता खत्म कर डाला। अंग्रेजों को पकड़-पकड़ कर खलिहानों में जोत दिया। महाराजा को भारी जानी व माली नुकसान उठाना पड़ा। इस अपमान को महाराजा सह नहीं पाया। वह 50 साल की उम्र में ही परलोक सिधार गया।

          मेवात पर अंग्रेजों का कब्जा और दमन चक्र

          दिल्ली पर कब्जा कर लेने के बाद अंग्रेजी सेना ने शहर में तीन दिन तक कत्लेआम जारी रखा। हजारों बेगुनाह लोग मौत के घाट उतार दिए गए। बादशाह को हुमांयू के मकबरे से गिरफ्तार कर लिया, परन्तु मेवात दिल्ली के हालात से बेखबर बहादुरी से आजादी का परचम उठाए खड़ा रहा। अंग्रेजी सरकार ने गुडग़ांव जिले पर काबू पाने के लिए 2 अक्तूबर को जनरल शावर के तहत भारी सेना और तोपखाना भेज दिया। अंग्रेजों का सूचना तंत्र काम करने लगा था। देशद्रोही लोग फिर हलचल में आ गए। भोंडसी के राजपूत और सोहना के कायस्थों ने अंग्रेजी सेना को सूचना भेजी कि रायसीना में बागियों की गतिविधियां तेज हो गई है।। रायसीना उस समय सोहना और भोंडसी के नजदीक पहाड़ के ऊपर बसा था। इस गांव में देहगल गोत्र के मेव रहते थें उनके आसपास राजपूतों की आबादी थी। विद्रोह के दौरान यह गांव स्वतंत्रता सेनानियों का गढ़ बन गया था। गुडग़ांव का असिस्टेंट कलेक्टर दिल्ली में अपनी बहन के मारे जाने पर क्रोध से उबल रहा था। उसने एक पलटन और वफादार भारतीयों को साथ ले आसपास के गांव में आग और तलवार का खेल शुरू कर दिया। पुरुषों, महिलाओं, बच्चों में जो भी उसके सामने आया, उसे कत्ल कर डाला। मोहम्मदपुर और रायसीना के मेवों ने अंग्रेजी सेना का डटकर मुकाबला किया। कलेक्टर को मार गिराया। घटना 13 अक्तूबर की थी। इस पर अंग्रेजों को बड़ा गुस्सा आया। उन्होंने एक बड़ी फौज के साथ रायसीना पर हमला कर दिया। मेव बड़ी बहादुरी से लड़ें। मगर अंग्रेजी तोपखाने के सामने उनकी पार न बसाई। अनेक मेव वीरता से लड़ते हुए शहीद हो गए और कितनों को ही मौत के घाट उतार दिया गया। इलाके पर कब्जा कर लेने के बाद रायसीना और उसके मददगार गांवों के मेवों की जमीनें जब्त कर ली गईं। इन गांवों में नन्हेड़ा, मोहम्मदपुर, सांपली, नंगली, हरियाहेड़ा तथा हरमथला प्रमुख थे। ये जमीनें भोंडसी के गद्दार राजपूतों तथा सोहना के कायस्थों को इनाम में दे दी गई। मेव किसान कच्चे कर दिए गए और आज  तक वे मुजारे बने वहां खेती कर रहे हैं। स्वतंत्रता के बाद इनको जमीन वापिस नहीं मिली। न ही वहां स्वतंत्रता सेनानियों की कोई यादगार बनाई गई, परन्तु रायसीना और उसके आसपास के पहाड़ स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम के शहीदों के बलिदान के गवाह हैं। अरावली की घाटियों में उनका यश गूंज रहा है। लोग गर्व से गाते हैं –

बंगला में मन न लगै, सूनी दिखां हां सेज
रायसीना का गौर में, देखा बिना शीश अंग्रेज।

          ऐसी ही घटनाएं घासेड़ा और उसके आसपास घटी। अंग्रेजों को गद्दारों ने खबर दी कि बारौटा, खोसन तथा घासेड़ा गांवों में हजारों मेव इकट्ठे हो गए हैं। वे हथियारों से लैस हैं। अंग्रेजों ने कुमायूं रेजिमेंट तथा टोहाना घुड़सवारों का एक बड़ा दस्ता 8 नवम्बर को इन्हें काबू करने के लिए भेज दिया। लेफ्टिनेंट रांगटन घुड़सवारों का सरदार था। कुमायूं रेजिमेंट लेफ्टिनेंट एच. ग्रांट के मातहत थी। अंग्रेजी दस्ते ने पहुंचते ही आग और बारूद का खेल खेलना शुरू कर दिया। पहले बारौटा और खासन गांवों को तबाह किया। फिर घासेड़ा में आ धमका। गांव के सामने 500-600 मेव खड़े थे। उन्हें अंग्रेजी फौजों के आने की कोई भनक न थी। अचानक रांगटन ने गांव पर गोलाबारी शुरू कर दी। मेव हक्के-बक्के रह गए। पर उन्होंने संभल कर लड़ना शुरू कर दिया। मुकाबला बड़ा सख्त हुआ। अंग्रेजी फौज के पास बेहतर तोपें, बंदूकें और गोला बारूद था। लड़ाई गैर बराबरी की थी। 150 मेव लड़ते-लड़ते शहीद हो गए। इस भयंकर खूंरेजी को देखकर लोग गांव छोड़ कर भाग निकले। अंग्रेजी सेना ने भागते हुए लोगों पर हमला जारी रखा। अब गांव में सिर्फ बूढ़े और कुछ बनिए ही रह गए थे। पूरे गांव की तलाशी ली गई। अनेक घरों से बागी सैनिकों की वर्दी और दूसरा सामान मिला। इस तरह बड़े खून-खराबे के बाद घासेड़ा पर अंग्रेजों ने काबू पा लिया।

          अब नूंह का नंबर आया। नूंह में खैरुल्लाह नाम का एक खैरख्वाह खानजादा था। उसे खैरा कहते थे। उसने नूंह की सभी वारदातों के बारे में अंग्रेजों को शिकायत कर दी। अंग्रेजी सेना ने नूंह, अडवर तथा शाहपुर नंगली के स्वतंत्रता सेनानियों को पकड़ लिया। नूंह में एक बरगद के पेड़ पर 52 मेव चौधरियों को लटका कर फांसी दे दी गई। इनमें चार अडवर गांव के थे 12 नंगली के और बाकी नूंह के। अंग्रेजों ने इन लोगों पर साढ़े तीन हजार रुपया जुर्माना किया। नुंह, नन्हेड़ा, डूंडाहेड़ी तथा शाहपुर नंगली की जमीनें जब्त कर ली गई। इसे नूंह के खानजादों को इनाम में दे दिया। आजादी के बाद भी यहां इन शहीदों की किसी ने सुध नहीं ली। न ही इनके सम्मान में कोई यादगार बनाई गई। इन शहीदों की कब्रों पर आज पुराना बस अड्डा बना हुआ है।

          नवम्बर के तीसरे सप्ताह में हथीन और पलवल के फरमांबरदार देसी अफसरों ने सोहना में अंग्रेजों को खबर भेजी कि कई हजार मेव और कई सौ घुड़सवार कोट और रुपड़ाका गांवों में इकट्ठे हो गए हैं। इनका इरादा पलवल जाकर सरकारी खजाने को लूटने का भी है। कै. डर्मन्ड सोहना सेक्टर की सुरक्षा के जिम्मेवार थे। वे तुरंत एक छोटे फौजी दस्ते के साथ हथीन के निकट रुपड़ाका गांव की तरफ चल दिए। इस सेना में 50 हडसन हॉर्स के, 59 टोहाना हॉर्स के तथा 120 कुमाऊं बटालियन के सिपाही थे। उनके साथ बड़ी संख्या में देसी अफसर तथा अंग्रेजी अफसर थे। रास्ते में वल्लभगढ़ से प्रथम  पंजाब इन्फैन्ट्री की एक कम्पनी भी उनसे आ मिली। अंग्रेजी सेना ने बर्बरता का रुख अपनाया। रास्ते में पड़े अनेक गांवों को जलाकर खाक कर दिया। खड़ी फसलें उजाड़ दी। जब अंग्रेज सेना रुपड़ाका पहुंची तो, वहां 3500 मेव वीर हथियार लिए खड़े थे। देखते ही उन्होंने अंग्रेजी सेना पर हमला कर दिया। बड़ी घमासान लड़ाई हुई पर थी गैर बराबरी की। मेव बहादुरी से लड़ते रहे। जंग में पीठ दिखाना उन्होंने सीखा नहीं था। लगभग 400 मेव लड़ते-लड़ते शहीद हो गए। उनके घर और सम्पति नष्ट कर दिए गए। अंग्रेजी सेना तोपखाने और बड़े गोला बारूद की ताकत से रुपड़ाका को जीतने में कामयाब हो गई। यह बड़ा भयेंकर युद्ध था। मेव लड़ाकों ने साम्राज्यवादी सेना के छक्के छुड़ा दिए थे। एक अंग्रेज फौजी अफसर ने लिखा है, ‘हमने अपने  दस्तों की मदद से मेवाती गांव पचानका, गोहपुर, चिल्ली, मालपुरी, रुपड़ाका , कोट कुटावड, मिठाका, खलूका, गुड़कसर व झांडा जला दिए हैं। सिर्फ रुपड़ाका कुछ रूकावट आई थी। हमारे ऊपर भारी बमबारी हुई। मेरे आदमियों ने तब तक अपने-आप को रोके रखा, जब तक मेव हमारे सामने सौ गज के फासले के अंदर नहीं आ गए। उन्होंने गोले फेंके। मेरे आदमियों ने संगीनों से उन पर हमला कर दिया। मेव परेशानी की हालत में भाग खड़े हुए। मेरे पैदल दस्ते ने लड़ते हुए गांव तक उनका पीछा किया। इसमें 50 या इससे अधिक आदमी मारे गए। घुड़सवार दस्ते ने भी काटते हुए इनका पीछा किया। मेरा अनुमान है कि वे 350-400 आदमी मेरे हैं।

          ‘मुझे आशा है कि जो उद्देश्य हमला करते समय था, वह प्राप्त कर लिया गया है। इतना ही नहीं, मेवों के गांव व उनकी सम्पति को भी तबाह कर दिया गया है। 19 नवम्बर 1857 की रुपड़ाका की इस अभूतपूर्व लड़ाई में हुए शहीदों की याद में यहां के लोगों ने इस्लामुद्दीन के नेतृत्व में एक शहीद मीनार बनवाया है। यहां हर वर्ष 19 नवम्बर को शहीदी दिवस मनाया जाता है। इन देश भक्तों की कुर्बानी भारतवासियों को हमेशा आजादी के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देती रहेगी।

          मेवात की आखिरी लड़ाई

          अंग्रेजी सेना की बर्बरता के बावजूद मेवात के वीरों  ने दिल्ली पर अंग्रेजों का कब्जा हो जाने के बाद भी महीनों तक हार नहीं मानी। सदरुद्दीन के नेतृत्व में फिर संगठित हो गए। 27 नवम्बर को उन्होंने पिनगुवां परगने पर हमला कर दिया। सदरुद्दीन को दबाने के लिए अंग्रेजों ने कैप्टन रैम्से के नेतृत्व में पलवल से एक अंग्रेजी सेना भेजी। इस सेना की ताकत गुडग़ांव से आई फौज से मिल कर और बढ़ गई। पिनगुवां में लड़ाई जबरदस्त हुई। भारी ताकत के कारण अंग्रेजी सेना पिनगुवां पर कब्जा करने में कामयाब हो गई, परन्तु सदरुद्दीन वहां से बच निकला। उन्होंने फिरोजपुर झिरका के पास महूं गांव में मोर्चा जा लगाया। काफी मेव उनकी मदद के लिए आ गए। रैम्से उसका पीछा करते हुए अगले दिन महूं पहुंच गया। लड़ाई शुरू हो गई और महूं गांव को तोपों से उड़ा दिया गया। मेव खुले मैदान में नहीं आना चाहते थे।

          देसी रियासतों की बगावत

          नवाब झज्जर

देसी रियासतों में केवल दक्षिणी हरियाणा की रियासत ने 1857 के विद्रोह में हिस्सा लिया था। उस समय झज्जर हरियाणा की सबसे बड़ी रियासत थी। अब्दुर्रहमान खां वहो के नवाब थे। नवाब की जागीर कई जगह बंटी हुई थी। कुछ गांव मेवात में थे, तो कुछ दादरी में। बाकी झज्जर के पास थे। गुडग़ांव जिले में विद्रोह शुरू होने पर नवाब के गांव भी बिगड़ गए। शुरू में नवाब अंग्रेजी राज के प्रति भी अपनी फरमांबरदारी दिखाता रहा। परन्तु दिल्ली के बादशाह और विद्रोही प्रजा एवं  सेना के दबाव से उसे बगावत का झंडा उठाना पड़ा। उसने अपनी सेनला की एक टुकड़ी कमांडर अब्दुस्समद खां के नेतृत्व में दिल्ली के बादशाह की तरफ से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए बादली भेजी। सेना बड़ी बहादुरी से लड़ी। बहादुरशाह जफर को नवाब ने धन भी भेजा। आसपास के इलाके में विद्रोहियों को भी सहायता दी। बादशाह के साथ पत्र व्यवहार कर उसे अपनी सेवा का भरोसा दिलाया और नजर भेंट की, परन्तु नवाब अंग्रेजों का जानी दुश्मन नहीं था। उसने सुरक्षा के लिए आ पहुंचने पर अंग्रेज अफसर मैटकाफ और दूसरे यूरोपीय लो���ों को शरण भी दी थी। उन्हें सुरक्षित छूछकवास भी भिजवा दिया। अंग्रेज औरतें और बच्चे गुडग़ांव से भाग कर वहां आ पहुंचे, तो नवाब ने उनकी जान की भी रक्षा की।

          20 सितम्बर के बाद अंग्रेजों ने दिल्ली पर फिर से कब्जा कर लिया। बहादुरशाह जफर को कैद कर लिया। हरियाणा के गुडग़ांव क्षेत्र में कानून व्यवस्था स्थापित करने के लिए सरकार ने 2 अक्तूबर को जनरल शावर के अधीन सेना रवाना कर दी। कर्नल लॉरेंस ने 17 अक्तूबर को नवाब झज्जर को छूछकवास के कैंप में बुला भेजा। नवाब को भरोसा था कि अंग्रेज उसके साथ धोखा नहीं करेंगे। वह हाथी पर बैठ कर छूछकवास पहुंचा, परन्तु वहां पहुंचते ही अंग्रेजी सेना ने उसे गिरफ्तार कर लिया। 18 अक्तूबर को कर्नल लॉरेंस की सेना ने झज्जर के किले पर हमला कर दिया। फौजें वहां मौजूद नहीं थी। नवाब के थोड़े से सिपाही बहादुरी से लड़े। उन्हें नवाब ने आत्मसमर्पण करने की सलाह दी, परन्तु झज्जर के वीर सैनिकों ने हथियार नहीं डाले। वे झज्जर छोड़ कर जोधपुर की बागी सेना से जा मिले। झज्जर पर कर्नल लॉरेंस का कब्जा हो गया। उसने नवाब के खजाने से सोने की 500 मोहरें और 59 हजार रुपए लूट लिए। नवाब को दिल्ली ले जाकर लाल किले में कैद कर दिया गया। फौजी अदालत में उन पर मुकद्दमा चलाया गया। अदालत ने 17 दिसम्बर को अपना फैसला दे दिया कि नवाब एक खतरनाक बागी है। उसने राजद्रोह किया है और फांसी की सजा सुना दी गई। 23 दिसम्बर को लाल किले के सामने नवाब झज्जर को अपने देश की आजादी के लिए लड़ने के कारण फांसी पर लटका दिया गया। उनकी सम्पति जब्त कर ली गई। रियासत के दक्षिणी इलाकों में बावल, कांटी, कनीना, नारनौल, काणोद (महेंद्रगढ़), बदवाणा आदि गांव अंग्रेजों के सहयोगी राजाओं में बांट दिए गए। बावल, कांटी और कनीना, नाभा के राजा को 1857 में गद्दारी के इनाम के तौर पर दे दिए गए। नारनौल,  काणोद व बदवाणा पटियाला के महाराजा की गद्दारी के सिले के तौर पर दे दिए गए। झज्जर के आसपास के परगने पाटौदा, बादली आदि अंग्रेजी राज में शामिल कर लिए गए।

          नवाब फर्रूखनगर –

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौर में फर्रूखनगर की छोटी सी रियासत थी। अहमद अली गुलाम खां उसके नवाब थे। 1857 में इन्होंने बादशाह जफर की सत्ता को स्वीकार कर लिया। उनकी मदद के लिए सेना की एक टुकड़ी दिल्ली भेजी। उन्हें हर संभव मदद का विश्वास दिलाया। फर्रूखनगर की रियासत के लोग भी बगावत में शामिल हो गए। अक्तूबर में जनरल शावर ने गुडग़ांव के विद्रोह को बड़ी बर्बरता से दबा देने के बाद फर्रूखनगर के किले पर हमला कर दिया। नवाब की सेना और लोगों ने अंग्रेजी सेना का मुकाबला किया। परन्तु अंग्रेजों के पास बड़ा तोपखाना था, फौजें भी प्रशिक्षित थी। एक छोटे से नवाब की क्या ताकत जो उनका मुकाबला कर पाता। फिर भी नवाब ने जमकर अंग्रेजों से लोहा लिया। दोनों तरफ से अनेक सैनिक मारे गए और काफी घायल हो गए। आखिर अंग्रेज कामयाब हो गए। नवाब को 3 नवम्बर के दिन गिरफ्तार कर लिया गया और दिल्ली ले जाकर लाल किले में कैद कर दिया गया। नवाब पर राजद्रोह का मुकद्दमा चला। देशभक्त नवाब को राजद्रोह का दोषी करार दे 23 जनवरी 1858 के दिन दिल्ली के चांदनी चौक में कोतवाली के सामने फांसी पर लटका दिया गया। फिर उस वीर देशभक्त की लाश को एक गड्ढे में फेंक दिया गया। नवाब  की सारी जायदाद जब्त कर ली गई। आज फर्रूखनगर का किला एक खंडहर के रूप में है। उसका दिल्ली दरवाजा जिसमें बड़े-बड़े भालों वाले लकड़ी के किवाड़ लगे हैं, आज भी 1857 की आजादी की जंग की कहानी कह रहा है।

          किले की एक बुर्ज और बावड़ी बाहर ही खड़ी है। किले के अंदर नवाब का शीशमहल अपनी जर्जर हालत में है। दरबार हाल की छत में लकड़ी का काम है। उसके पूर्व में कैदखाना और फांसी की काल कोठरी मौजूद है। महल के बड़े हिस्से गिर चुके हैं। सब कुछ बर्बाद होता जा रहा है। सहन में स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों के लिए एक साधारण यादगार खड़ी है। वीरान सा पड़ा सब कुछ चंद दिनों का मेहमान है। टूरिज्म या पुरातत्व के महकमों की इन 150 वर्ष पुरानी ऐतिहासिक इमारतों की तरफ न कोई संवेदना है न ध्यान।

          वल्लभगढ़ का राजा नाहर सिंह – दिल्ली के दक्षिण में वल्लभगढ़ की एक छोटी सी रियासत थी। 1857 में नाहर सिंह वहां का राजा था। इस क्षेत्र की वीर गाथाएं 17वीं सदी से गाई जा रही हैं। उस दौर में गोकुला जाट एक बहादुर विद्रोही हुआ था। 18वीं सदी में राजा नाहर सिंह के पूर्वजों ने मथुरा और दिल्ली के मार्ग को खतरनाक बना डाला। उनमें बलराम, जिसे बल्लू कहते थे, महाराजा सूरजमल के समकालीन थे। वे बड़े चतुर और वीर थे। भरतपुर से उनके अच्छे संबंध थे। इससे उन्हें अपनी ठिकानेदारी को बढ़ाने में बड़ी मदद मिली। उन्होंने रियासत में 210 गांव शामिल कर डाले। उन्होंने वल्लभगढ़ का किला और महल बनवाए।

          अंग्रेज 1805 में भरतपुर को अपने प्रभाव में ले लेने में कामयाब हो गए। अब उनके लिए वल्लभगढ़ का उतना महत्व नहीं रह गया था। नतीजा था कि इस रियासत के अनेक गांव छीन लिए गए। केवल 28 गांव ही उसके पास रह गए। राजा नाहर सिंह 1839 में गद्दी पर बैठा। वह बड़ा वीर और साहसी था। नाहर सिंह के अंग्रेजों के साथ अच्छे संबंध थे, परन्तु उन्हें कम्पनी राज द्वारा अपनी रियासत के गांव छीन लेना अच्छा नहीं लगता था। वे हमेशा यह आक्रोश अपने दिल में छुपाए रहे। 11 मई को जब  बागी सेनाओं ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया, तो राजा नाहर सिंह ने भी बगावत कर डाली। उन्होंने बहादुरशाह जफर को चिट्ठी लिखकर उनको हर प्रकार का सहयोग देने का वायदा किया। घुड़सवारों और सैनिकों की एक टुकड़ी दिल्ली भेज दी। फिर वे अपनी खोई हुई विरासत को दोबारा जीत लेने में लग गए। जल्दी ही पलवल, होडल और फतेहपुर के परगनों पर कब्जा कर लिया। के.सी. यादव के अनुसार विद्रोह के शुरू के दिनों में नाहर सिंह अंग्रेजी सरकार को भी मदद का आश्वासन देते रहे थे। दक्षिण और पूरब की तरफ से दिल्ली की हिफाजत की जिम्मेदारी नाहर सिंह ने ले रखी थी। उसकी नाकाबंदी इतनी मजबूत थी कि अंग्रेजी सेना इधर से दिल्ली पर आक्रमण नहीं कर पाई। कर्नल लॉरेंस ने गवर्नर जनरल को एक पत्र लिखा। इससे नाहर सिंह की सूझबूझ, शूरवीरता और प्रबंधन क्षमता पर प्रकाश पड़ता है। लॉरेंस ने लिखा कि ‘दक्षिण पूर्व में राजा नाहर की इतनी मजबूत मोर्चाबंदी है कि हमारी सेनाएं इस दीवार को नहीं तोड़ सकती, जब तक चीन या इंग्लैंड से कुमुक न आ जाए।’

          फर्रूखनगर को कुचल देने के बाद जनरल शावर वल्लभगढ़ पहुंचा। लड़ाई घमासान हुई। अंग्रेज चालाकी से राजा को गिरफ्तार कर उसे दिल्ली ले आए। दिसम्बर में उन पर फौजी अदालत में मुकद्दमा चलाया गया। मुकद्दमे के नाटक के बाद उन्हें राजद्रोह के आरोप में फांसी दे दी गई। उनकी जायदाद जब्त कर ली गई। उन्हें अंग्रेजों को सहयोग देने वाले देशद्रोहियों में बांट दिया गया। राजा के भाई-बंद, रिश्तेदार भी उजाड़ दिए गए। महल में मौजूद औरतों के जेवर और कपड़े उतरवा लिए गए।

          रेवाड़ी के राव तुलाराम

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अमर शहीद राव तुलाराम

मुगल बादशाह हुमायूं ने 1555 में रेवाड़ी परगने की एक बड़ी जायदाद राव तुलाराम के पूर्वजों को दी थी। 1803 में अंग्रेजी हुकूमत के नाराज हो  जाने पर इसका एक बड़ा हिस्सा छीन लिया गया। अब केवल 876 गांव ही उनके कब्जे में रह गए थे, जो राव तुलाराम को 1839 में विरासत में मिले। हुकूमत का सिक्��ा बदल जाने के बाद 1857 में रेवाड़ी क्षेत्र में भी बगावत की हलचल होने लगी। राव ने दिल्ली के बादशाह को पत्र लिखकर बधाई दी और सहयोग का यकीन दिलाया। 17 मई को राव ने चार-पांच हजार सैनिक लेकर तहसील  पर हमला कर दिया। तहसीलदार और थानेसर को बर्खास्त  कर दिया। खजाना लूट लिया और सरकारी दफ्तरों पर कब्जा कर लिया। दिल्ली के बादशाह की तरफ से अपने को यहां का शासक घोषित कर दिया। अब रेवाड़ी, भोड़ा और शाहजहांपुर के गांव उसके  अधीन आ गए थे। रेवाड़ी के पास रामपुरा के किले में राव तुलाराम ने अपनी राजधानी बना ली। जून के अंत तक राव ने डेढ़ लाख का लगान वसूल कर लिया। पैसे की मदद से पांच हजार सैनिक भर्ती कर लिए। इनमें रिसाला और पैदल सैनिक शामिल थे। तोप और गोला बारूद बनाने के लिए किले के अंदर कारखाना लगाया गया। दिल्ली के बादशाह की मदद के लिए 45,000 रुपए और अनाज भेजा गया। तुलाराम समय-समय पर बादशाह के दरबार में भी हाजिर होते रहते थे।

          दिल्ली के दोबारा अंग्रेजों के कब्जे में आ जाने के बाद ब्रिगेडियर जनरल शावर रेवाड़ी पर काबू करने के लिए चल दिया। वह 5 अक्तूबर को पटौदी पहुंचा। वहां राव तुलाराम की एक सैनिक टुकड़ी ही थी। उसने अंग्रेजी फौज से टक्कर ली। राव ने अंग्रेजी सेना के पहुंचने की खबर पाते ही सुरक्षा की खातिर रामपुरा का किला छोड़ दिया। वह अंग्रेजों की चाल को ठीक से समझता था। शायद जब अगले दिन रेवाड़ी पहुंचा तो उसे राव नहीं मिला। कप्तान हडसन ने राव की इस होशियारी और उसके किलों के कुशल प्रबंधन का अपनी पत्नी को लिखे एक पत्र में जिक्र किया है। शावर ने राव को आत्मसमर्पण करने का हुक्म भेजा, परन्तु  वीर तुलाराम ने उसे ठुकरा दिया। शावर उसे पकडऩे में नाकामयाब रहा। शावर झज्जर, काणोद और रेवाड़ी को लूटता हुआ नवम्बर में दिल्ली वापिस चला गया। राव तुलाराम इस समय शेखावटी में सैनिक शक्ति एकत्र कर रहे थे। वहां उसे जोधपुर की बागी सेना मिल गई। वह अंग्रेजों के खिलाफ लडऩे के लिए दिल्ली जा रही थी। राव तुलाराम ने सैनिक शक्ति जमा कर रेवाड़ी और रामपुरा पर पुन: कब्जा कर लिया।

          अंग्रेजों को इस पर बहुत गुस्सा आया। उन्होंने लेफ्टिनेंट कर्नल गैराड को एक मजबूत सेना देकर राव तुलाराम को दंड देने के लिए भेजा। अब रामपुरा का किला नहीं था। मिट्टी के मजबूत किले को शावर ने पहले ही बर्बाद कर दिया था। तुलाराम खबर पाकर नारनौल के करीब अधिक सुरक्षित स्थान पर जा पहुंचा। यहां झज्जर के कमांडर व नवाब के चाचा अब्दुस्समद खां और भट्टू के शहजादे मोहम्मद अजीम भी अपनी सेनाओं के साथ उसके साथ आ मिले। अब बागियों की ताकत बढ़ गई थी। अंग्रेजी सेना 15  नवम्बर को नारनौल पहुंची। उनकी मदद के लिए पंजाब व मुल्तान की सेनाएं भी पहुंच गई। अंग्रेजों के पास एक मजबूत तोपखाना था, रिसाले और प्रशिक्षित फौज दी।

          नसीबपुर की जंग

          अंग्रेजी सेना ने नारनौल के पास नसीबपुर में मोर्चा लगा लिया। जब  वे आराम कर रहे थे, तो राव तुलाराम की सेनाओं ने अचानक उन पर हमला कर दिया। लड़ाई बड़ी भयंकर हुई। अंग्रेजी सेना के पांव उखड़ गए। एक अंग्रेज अफसर लिखता है कि ‘इतना बेहतर मुकाबला भारतीय दुश्मनों ने कभी नहीं किया था, जितना यहां रहा। बागियों में न कोई झिझक थी और न ही कोई डर। वे बड़ी बहादुरी के साथ सीधा हमला कर रहे थे।’ अंग्रेजों के कमांडरों की होशियारी और तोपखाने की बड़ी ताकत ने मैदान हाथ से जाने से रोक लिया। अनेक अंग्रेज अफसर और सैनिक मारे गए। कर्नल गैराड भी मारा गया। मुल्तानी घुड़सवार मैदान छोड़ कर भाग निकले। राव तुलाराम के प्रमुख जनरल कृष्ण गोपाल और रामलाल भी युद्ध में काम आए। बागी सेना सुरक्षा हेतु नारनौल शहर में जा पहुंची, परन्तु वहां  भी वह टिक नहीं सकी। राव तुलाराम और अब्दुस्समद खां आंख बचाकर बच निकले। आखिर मैदान अंग्र्रेजों के हाथ लगा, परन्तु अंग्रेजों को बागियों के साहस और वीरता का लोहा मानना पड़ा। राव तुलाराम राजस्थान चले गए। वेश बदल कर राजाओं से मिलते रहे और अंग्रेजों के खिलाफ मदद जुटाने की कोशिश करते रहे। हालात बदल चुके थे। दिल्ली पर अंग्रेजों का राजा दोबारा कायम हो चुका था। अब कोई राजा उनके खिलाफ खड़े होने का साहस नहीं कर पा रहा था।

          हालात को भांपते हुए राव तुलाराम 1858  के शुरू में  ही झांसी के नजदीक कालपी पहुंचे। वहां तांत्या टोपे ने उनका बड़ा स्वागत  किया। राव तुलाराम भी अब सेना के एक कमांडर के रूप में तांत्या टोपे और शहजादा फिरोज के साथ दिल्ली की तरफ बढऩे लगे, परन्तु होना कुछ और ही था। अंग्रेजों को इसकी खबर लग गई। 7 अप्रैल 1859 को तांत्या टोपे गिरफ्तार कर लिए गए। उन पर राजद्रोह का मुकद्दमा चला कर फांसी दे दी गई। राव तुलाराम बम्बई होते हुए अंग्रेजी राज से बाहर निकल पाने में कामयाब हो गए। वे ईरान, रूस और अफगानिस्तान के शासकों से हिन्दुस्तान की आजादी के लिए मदद लेने की कोशिश करते रहे, परन्तु उनकी सेहत बिगड़ती जा रही थी। अफगान अमीर ने शाही हकीम को उनकी दवा दारू करने के लिए तैनात कर दिया, परन्तु शरीर जवाब दे चुका था। 1863 में  38 साल की आयु में देशभक्त राव तुलाराम ने स्वतंत्रता की उमंग दिल में लिए प्राण त्याग दिए। काबुल के  अमीरन ने शाही सम्मान के साथ उस देशभक्त का अंतिम संस्कार कर अपना मानवीय फर्ज निभाया।

          अंत में कहना होगा कि 1857 का स्वतंत्रता संग्राम भारत के इतिहास में बड़ा गौरवमय स्थान रखता है। यह लड़ाई बागी सेना, राजा नवाबों के साथ-साथ पराधीन, शोषित, दबी-कुचली, किसान, दस्तकार व मजदूर जनता की लड़ाई थी। बड़े क्षेत्र में पराधीनता, शोषण और लूट की परिस्थितियों को उखाड़ फेंकने की तीव्र आकांक्षा लिए थी। लोग यह जानते थे कि उनकी इस दुर्दशा के लिए अंग्रेजी साम्राज्य और उसकी नीतियां जिम्मेदार हैं। इसीलिए उनका गुस्सा अंग्रेज प्रशासकों, जिन्हें वे नफरत से गोरे या फिरंगी नाम से पुकारते थे, के खिलाफ फूट पड़ा था। चाहे कोई हिन्दू था या मुसलमान, सब में साम्राज्यवाद के विरोध में देशभक्ति की भावना उमड़ पड़ी। जीवन की समान कठिनाइयों, साथ-साथ रहने और अपमान और उत्पीड़न के सामान्य अहसास ने हिन्दू और मुसलमानों  के बीच विश्वासों और कर्मकांड की भिन्नताओं को छोटा और गौण बना दिया। एकता और भाईचारे की भावना दिल में संजोए अपने देश और देशवासियों की आजादी की खातिर दोनों एकजुट हो इतनी बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति के विरुद्ध बेखौफ मैदाने-जंग में कूद पड़े। अंग्रेजी सेना की बड़ी ताकत के सामने सिर झुकाने की बजाए मौत को गले लगाना उन देशभक्तों ने बेहतर समझा, परन्तु खेद है कि भारतवासी अपने इन शहीदों को आज भूल से गए हैं।

          1857 का राष्ट्रीय विद्रोह आज के दौर में नव उपनिवेशवाद की लूट-खसोट के जनता पर पड़ रहे प्रभावों को समझने में मदद करता है। दूसरे, हमारे देश में उभरते जातिवाद, गोत्रवाद और सम्प्रदायवाद द्वारा जनता को बांटे रखने के खतरनाक खेल को पहचानने की दृष्टि भी देता है कि कैसे खाते-पीते, राजा-रजवाड़े, नवाब, ताल्लुकेदार व छोटे जमींदार जनता को गुमराह कर अपने स्वार्थों की पूर्ति और विदेशी साम्राज्य की सेवा करते थे। इससे यह भी सीख मिलती है कि हिन्दू-मुस्लिम एकता ने संसार की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति को जड़ों तक हिला कर रख दिया था और यह एकता भारत के विकास के लिए कितनी अनिवार्य है।

लेखक ख्याति प्राप्त  इतिहासकार व पुरातत्त्वविद थे. कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र में प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं  पुरातत्त्व विभाग में प्रोफेसर रहे।  ॉ

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