उत्तर आधुनिकता पर साक्षात्कार – डा. ओम प्रकाश ग्रेवाल

डा. ओमप्रकाश ग्रेवाल

उत्तर आधुनिकता के बारे में प्रख्यात समीक्षक व विचारक डा. ओम प्रकाश ग्रेवाल से लोक संस्कृतिविद डा. कर्मजीत सिंह का संवाद जिसका पंजाबी से अनुवाद किया है देस हरियाणा के संपादक प्रोफेसर सुभाष चंद्र ने –

डा. कर्मजीत सिंह : डा. साहिब मैं इस प्रश्न से अपनी बात आरंभ करना चाहूंगा कि उत्तरआधुनिकतावाद  आधुनिकतावाद का विकास है या फिर यह एक-दूसरे के विरोधी हैं?

डा. ग्रेवाल : अगर सिर्फ  साहित्य में अभिव्यक्ति की दृष्टि से देखा जाए, तो उत्तरआधुनिकतावाद, आधुनिकतावाद से कुछ अर्थों में अलग धारा दिखाई देती है। उत्तरआधुनिकतावाद के पीछे काम करती मन:स्थिति त्रासदिक नहीं है, बल्कि मजे लेने की है। वातावरण यहां तनावग्रस्त नहीं होता, बल्कि चियरफुल होता है। आधुनिकतावादी साहित्य के केंद्र में एक ऐसा व्यक्तित्व मौजूद होता है, जहां बेहद तनावग्रस्त होने के बावजूद अपना अस्तित्व कायम रखता है। दरअसल आधुनिकतावादी साहित्य की प्रमुख चिंता स्वयं की शुद्धता का तीखा अहसास बना कर रखना है। इसके विपरीत उत्तरआधुनिकतावादी साहित्य में स्वयं का केंद्रीय  व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है और केवल विखंडित व सूक्ष्म रूप में ही इसकी उपस्थिति होती है। हम कह सकते हैं कि यहां व्यक्तित्व भाषागत संरचना के एक महत्वपूर्ण लक्षण से बढ़ कर कुछ नहीं रह जाता है।

            उत्तरआधुनिकतावादी साहित्य सामाजिक परिवर्तन के लिए किए गए सामूहिक प्रयत्नों (चाहे वह सुधारवादी हों या क्रांतिकारी) पर प्रश्नचिह्न लगाता है। उत्तरआधुनिकतावाद परिवर्तन के दौरान की गई मानव की परिपूर्णता की कल्पना को समाज में संभव ही नहीं मानता। आधुनिकतावाद पूंजीवादी समाज व्यवस्था को ऊपर से नकारता लगता है। यहां किसी न किसी विकल्प की (चाहे वह अपनी चेतना में ही क्यों न हो) कल्पना की जाती है। चाहे वह युटोपियन ही क्यों न हो। मेरे ये विचार फ्रेडरिक जेम्सन की स्थापनाओं पर आधारित हैं। मैं समझता हूं कि जेम्सन ने आधुनिकतावाद से उत्तरआधुनिकतावाद की विलक्षणता को  सही ढंग से पेेश किया है।

            उत्तरआधुनिकतावादी व आधुनिकतावादी साहित्य में एक अंतर यह भी है आधुनिकतावाद अपने आलोचनात्मक दृष्टिकोण व नकारवादी मुद्रा के बावजूद सार्थक मानव जीवन की परिकल्पना भी लिए हुए है। चाहे इस कल्पना को समाज में वास्तविक तौर पर ढाला जाना संभव न हो। चाहे यह एक संदर्भ बिंदू के तौर पर हो आधुनिकतावादियों में वर्तमान समाज की कमियों को रेखांकित करने  के लिए एक आदर्श कल्पना होती है। उत्तरआधुनिकतावादी भविष्य की किसी भी तरह के आदर्श की कल्पना को नकारता है। उत्तरआधुनिकतावाद में आधुनिकतावाद से कहीं अधिक आलोचना है, परन्तु किसी तरह का विकल्प उत्तरआधुनिकतावादी देने की जरूरत नहीं समझते। समूचे तौर पर फ्रेडरिक जेम्सन की धारणाओं का सहारा लेते हुए मैं आपके सवाल के जवाब में यही कहना चाहूंगा कि साहित्यिक प्रवृति के तौर पर उत्तरआधुनिकतावाद एक सीमित अर्थ में आधुनिकतावाद का एक विकल्प है, एक अलग चीज है।

डा. कर्मजीत सिंह : आप ने साहित्य के संदर्भ में बात स्पष्ट की है। इसके अतिरिक्त दूसरे क्षेत्रों के संबंध में …?

डा. ग्रेवाल: व्यापक दृष्टि से देखें तो उत्तरआधुनिकतावाद व आधुनिकतवाद की आधार-भूमि में एक समानता भी दिखाई देती है। चाहे ऊपर से यह एक-दूसरे का विकल्प नजर आते हैं। एक तरह से आधुनिकतावाद की प्रवृतियां उत्तरआधुनिकतावाद के शिखर तक पहुंचती हैं। उत्तरआधुनिकतावाद जो कुछ कर रहा है, उसका आरंभ आधुनिकतावाद के समय ही हो गया था। एक समान बिंदू एक-दूसरे को जोड़ता है। आधुनिकता की आलोचना आधुनिकतावाद से निकली हुई ऐसी प्रवृति है, जो उत्तरआधुनिकतावाद मेंं ओर उभर कर प्रकट होती है।

            18वीं सदी में  युरोप में मानवतावादी वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार को मनुष्य के स्वभाव की एक सर्वव्यापक व सर्वकालिक कल्पना की गई। इसको हम वैज्ञानिक या तर्कसंगत मानवतावाद कह सकते हैं। 18वीं सदी में फ्रांस के चिंतकों ने मानवतावाद की परिकल्पना की। उसके अनुसार मानव के अधिकारों की, तर्कबुद्धि की, आसपास के संसार के नियमों को समझने व बदलने की, विश्व को व समाज को नए रूप में रूपांतरण करने और एक नए सांचे में ढालने की तस्वीर पेश की। आधुनिकतावाद ने इस सबकी आलोचना की और उत्तरआधुनिकतावाद इस आलोचना को और शिखर तक ले गया।

डा. कर्मजीत सिंह : इसी बात को आगे बढ़ाते हुए अगला प्रश्न करना चाहूंगा कि क्या उत्तरआधुनिकतावाद उत्तर-औद्योगिक समाज की संस्कृति होता है?

डा. ग्रेवाल: यह सवाल उठाने से पहले मैैं तर्कसंगत मानवतावाद (एनलाईटिनमैंट ह्यूमेनिजम) के साथ उत्तरआधुनिकतावादियों के मतभेद के बिंदुओं की व्याख्या करना चाहूंगा। मैं मतभेद  के रूप में पहचानना चाहता हूं। ज्यों-ज्यों औद्योगिकीकरण शुरू हुआ, त्यों-त्यों आधुनिक दृष्टिकोण व आधुनिक मूल्य-व्यवस्था की आलोचना शुरू हो गई। यह आलोचना 19वीं सदी के शुरू में  ही होने लग गई थी। 19वीं सदी में हमारे यहां भी जब आधुनिकीकरण शुरू हुआ तो आधुनिकता की आलोचना होने लगी। यह आलोचना थी विवेक, तर्कसंगत समझ वैज्ञानिक सोच की सीमाओं की। इस आलोचना के अनुसार वैज्ञानिक सोच जो पूरे संसार में सारी प्रक्रियाओं की समझ प्रदान करने का दावा करती है। यह अधूरी व सीमित मानी जाती है। वास्तविकता की जटिलताओं को यह सोच सपाट बनाकर चलती है और बहुत कुछ अनसमझा बाकी रह जाता है रोमांटिक साहित्यकार भी कभी अंतर-ज्ञान (इंट्यूशन) के नाम पर और कभी कल्पनायुक्त विवेक के नाम पर तर्क संगत को सीमित मानते हैं। माना यह गया है कि वैज्ञानिक तर्क के द्वारा वास्तविकता की कुछ सीमा तक तो परतें उखाड़ी जा सकती हैं, परंतु संसार के बहुत से पहलुओं को तर्क के आधार पर जाना नहीं जा सकता। इस तरह शुरू से ही तर्कशीलता व विवेकवादी मानवतावाद की आलोचना होती रही है।

            विवेकवादी मानववाद व तर्कशीलता की दूसरी आलोचना यह हुई कि यह प्रकृति को, विश्व को इस्तेमाल करते हैं। इस आलोचना के अनुसार प्रकृति को अलग पहचान कर (उसका हिस्सा बनकर नहीं) उसका इस्तेमाल करने की सोच मानव व प्रकृति को एक-दूसरे के खिलाफ  खड़ा करती है। चेतनाप्रधान व्यक्ति विवेक के नाम पर  दूसरों को वस्तु (ऑबजैक्ट) बना देता है। यूं व्यक्ति खुद मास्टर बन जाता है व दूसरों को अधीन बना देता है। विवेक के नाम पर दूसरों की हस्ती को घटा कर देखा जाता है। इस आलोचना के अनुसार विवेकवादी मानववाद अंत व आजादी की बात करता हुआ भी मनुष्य व प्रकृति को मनमाने ढंग से इस्तेमाल करने पर इन पर हावी होने की प्रवृति रखता है।

            मुझेे पहले ही यह कहना चाहिए था कि विवेकवादी मानववाद में स्वतंत्रता, बराबरी व भाईचारे के आदर्श प्रमुख थे। यह प्रगति में विश्वास रखता था, तर्क में विश्वास रखता था। इसका उद्देश्य था कि तर्क के आधार पर व प्रकृति को समझ कर मानवता के  लिए ऐसे समाज का निर्माण करना, जहां सब के लिए आजादी हो और हर व्यक्ति को अपने आत्म-सम्मान को पुख्ता करने के अधिक से अधिक अवसर मिलें। आधुनिकतावादियों और उत्तरआधुनिकतावादियों दोनों को स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारे की परिकल्पना के पीछे बलपूर्वक दूसरों पर हावी होने की गंध आई। उनके अनुसार यह विवेक दूसरों को औजार बनाता है। इसको औजार बनाने का विवेक (इंस्ट्रूमैंटल विवेक) कहा गया। आधुनिकतावाद व आधुनिकतावादी साहित्य में 20वीं सदी के दूसरे-तीसरे दशक में  ऐसा चिंतन मिलता है। इस तरह आधुनिकतावाद और उत्तरआधुनिकतावाद दोनों ने ही बराबरी व भाईचारे के आदर्शों पर सवालिया निशान लगाया और स्वतंत्राता की अपनी सुविधा से अलग व्याख्या की।

डा. कर्मजीत सिंह : मैं सवाल यह पूछना चाह रहा था कि उत्तरआधुनिकतावाद उत्तर-औद्योगिक समाज की संस्कृति होता है? इसको कैसे देखना चाहिए?

डा. ग्रेवाल- इस बात पर आने से पहले मैं यह याद दिलवाना चाहता हूं  कि मूल्य-व्यवस्था, चिंतन-पद्धति और दृष्टिकोण (जोकि चेतना, समझ व परिप्रेक्ष्य का अंग हैं।) का सामाजिक रूप में सक्रिय आधारभूत शक्तियों के साथ या उत्पादन प्रणाली के साथ गहरा रिश्ता होता है। कोई भी सांस्कृतिक मूल्य, विचार या नई दृष्टि हवा में पैदा नहीं होती। सामाजिक परिस्थतियों में परिवर्तन आने के साथ इनकी उत्पत्ति भी जरूरी है। इस दृष्टि से उत्तरआधुनिकतावाद (जिसका उभार युरोप में विशेष तौर से नजर आ रहा है) की जड़ें कहीं न कहीं सामाजिक परिवर्तन में है।

            यह बात मानते हुए मैं एक बात की और इशारा करना चाहता हूं कि चेतना, मूल्य, दृष्टिकोण, दर्शन और विचारधारा के  धरातल पर बाहरी परिस्थितियां अपनी भविष्य की संभावनाओं सहित परिकल्पित होती हैं। यह सारी संभावनाएं मूर्त रूप ले लें, यह कोई जरूरी नहीं। मेरे कहने का मतलब यह है कि विचारधारा, ज्ञान व मूल्य-व्यवस्था में एक सरप्लस तत्व भी होता है, जिसको वास्तविक परिस्थितियों के ढांचे में ही सीमित नहीं किया जा सकता, या यह कह सकते हैं कि वास्तव में संभावनाओं का एक पोटेंशियल होता है, जो शायद मूर्त रूप ग्रहण न कर सके। इस तरह आधुनिकीकरण के साथ ‘आधुनिकता’ के जो मूल्य व दृष्टिकोण उभर कर आए हैं, उनका आधुनिकीकरण के साथ गहरा संबंध होते हुए भी हमें यह मान कर चलना चाहिए कि इसमें कुछ ऐसा ही शामिल है जो वास्तव में उपलब्ध नहीं है। इस सरपल्स तत्व की अपनी अमीरी व परिपूर्णता है। आधुनिकता में ऐसा तत्व जरूर है कि जो पूंजीवाद की उपज होने के बावजूद पूंजीवाद के तत्वों के पूरी तरह अनुकूल नहीं। इसलिए 18वीं  सदी में युरोप में विवेकपूर्ण मानवतावाद की जो परिकल्पना उभर कर सामने आई है, वह पूंजीवादी वर्ग के हितों के अनुकूल होते हुए भी उस वर्ग तक ही सीमित नहीं। उसमें कुछ ऐसे मूल्य भी हैं, जो एक बिंदू पर जाकर बुर्जुआजी के लिए सिरदर्दी बन सकते हैं।

            फ्रांस की क्रांति के समय बुर्जुआ वर्ग का नेतृत्व था। फ्रांस की क्रांति असल में बुर्जुआ क्रांति थी, परन्तु किसानों को अपने साथ लाने के लिए बुर्जुआजी की ओर से जिन अधिकारों, स्वतंत्रता, मानवता की परिपूर्णता व प्रगति की जो तस्वीर पेश की गई, वह केवल भावनात्मक तस्वीर थी, केवल यूरोपीय थी।  उसको बुर्जुआजी की ओर से व्यवहारिक रूप नहीं दिया जा सकता था। यह बात करते हुए मैं यह कहना चाहूंगा कि आधुनिकता में मूल्य-व्यवस्था, प्रगति, वैज्ञानिक दृष्टिकोण जरूरत मुताबिक प्रगति को ढाल कर नए समाज का निर्माण करने, हर मनुष्य की बराबरी  की कल्पना, स्वतंत्रता और आत्मसम्मान उभर कर आई धाराओं के साथ बुर्जुआ वर्ग से संबंधित होने के बावजूद इसके हितों तक ही सीमित हो ऐसा जरूरी नहीं।

            आधुनिकतावाद व उत्तरआधुनिकतावाद की प्रवृतियां भी बुर्जुआ वर्ग की ही प्रवृतियां हैं। 18वीं सदी के आधुनिकता के मूल्य को वैज्ञानिक मानववाद के  रूप में परिभाषित किया गया। विकसित हो रहे समाज में इन मूल्यों को बुर्जुआजी द्वारा पैदा किया होने के बावजूद उसके खिलाफ  गया। इसलिए बराबरी व प्रगति की भावना का विरोध किया गया। अगर प्रगति हमें समाजवाद की ओर लेकर जाती है, तो कहा जाएगा कि प्रगति कोई चीज नहीं है। अगर विवेक का इस्तेमाल करके औपनिवेशिक समाज के मेहनतकश लोग अपनी परिस्थितियों को समझ कर अपने हितों के लिए संघर्ष शुरू करते हैं तो विवेक को ही नकारा जाने लगेगा।

            पूंजीवादी समाज के विकास में संकट आता है, तो ऐसी स्थिति में आधुनिकता की आलोचना चाहे आधुनिकतावाद के रूप में हो तथा चाहे उत्तरआधुनिकतावाद के रूप में, वह सत्ता पर काबिज वर्गों के हितों की ही रक्षा करती है। सत्ताधारी वर्ग को बनाए रखने के लिए तकनीक के विकास का विशेष तौर पर इलैक्ट्रोनिक मीडिया का प्रचार-प्रसार हुआ है। तकनीक के प्रसार के साथ हमारी समाज की दशा संबंधी, आपसी रिश्तों व उनकी अंतरक्रियाओं के बारे में धारणाएं बदल गई हैं। पूंजीवादी व्यवस्था के मूल संबंधों में तो अंतर नहीं आया, परन्तु उनका रूप कुछ हद तक नवीन हो गया है। उदाहरण के लिए पहले दौर में बाजार पर कब्जे के लिए, राज-विस्तार के लिए बल प्रयोग जरूरी था, परन्तु अब तरीके बदल गए हैं। जाहिर है कि पहले के औपनिवेशिक संबंध, नव-औपनिवेशिक रिश्तों में बदल गए हैं। उत्पादन का फैलाव हो गया है। किसी चीज का एक हिस्सा कहीं और बन रहा है तो दूसरा हिस्सा कहीं और। पहले वाला केंद्रित उत्पादन नहीं हो रहा। इस परिवर्तन के साथ सत्ता का फैलाव सूक्ष्म हो गया है। अब यह सत्ता स्पष्ट दिखाई नहीं देती। बाहुबल की जगह दमन का रूप नवीन व परोक्ष रूप में प्रकट होता है। कई बार लोगों की सोच को मानसिकता के धरातल पर विज्ञापनों द्वारा और तस्वीर दिखाकर नियंत्रित रखना जरूरी समझा जाने लगा है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का रूप बदलने के साथ चिंतन व मूल्य व्यवस्था भी बदली है। उत्तरआधुनिकतावाद को मोटे तौर पर हम इस परिवर्तन की उपज मानते हैं। मल्टीनेशनल के दौर में यह सब कुछ सत्ताधारी वर्गों के हितों के अनुकूल है। मोटे तौर पर उत्तरआधुनिकतावाद उनकी जरूरतों को ही पूरा करता है।

डा. कर्मजीत सिंह :डा. साहिब आपने उत्तरआधुनिकतावाद के जो अनेक पक्ष गिनाए हैं, उसको मैं एक-एक करके लेना चाहता हूं, जैसे कि इतिहास के अंत का मसला…..

डा. ग्रेवाल: पहले मैं चाहूंगा कि उत्तरआधुनिकतावाद व आधुनिकता के साथ संबंधित दो-तीन पक्षों की ओर इशारा करूं और फिर इतिहास के अंत की बात करूं। जिस तरह आधुनिकता या विवेकपूर्ण मानवतावाद बुर्जुआ का दर्शन होते हुए भी कुछ ऐसी संभावनाएं लिए था, जो अपने समय से आगे थीं। उत्तरआधुनिकतावाद में कई पहलू ऐसे हो सकते हैं, जो सत्ताधारी वर्गों या व्यवस्था के हितों के अनुकूल होते हुए भी उसके विरोध में जाने की संभावना रखते हैं। यह पहलू क्या हैं?

            व्यक्ति का समाज से अलग अस्तित्व, उसे स्वयं में सम्पूर्ण इकाई स्वीकार करना बुर्जुआ चिंतन का केंद्रीय मुद्दा है। आधुनिकता के नाम पर व प्रतिपादित विवेकपूर्ण मानवतावाद की भी यह केंद्रीय धुरी है। ज्यों-ज्यों पूंजीवाद का विकास हुआ, पूंजी का रूप भी व्यक्ति केंद्रित रहा। बड़े-बड़े उद्योग लगने के साथ औद्योगिक घरानों की स्थापना के साथ और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रवेश के साथ व्यक्ति को केंद्र मानने की धारणा बदली गई है। अब तो व्यापक व व्यक्ति-निरपेक्ष प्रक्रियाओं पर जोर दिया जा रहा है। आज के समाज को ब्यूरोक्रेसी या कई और प्रणालियों का भार भी उठाना पड़ रहा है।

            शुरू में आधुनिकता की आलोचना के समय यह कहा गया कि इसके साथ यांत्रिकता आ जाती है और व्यक्ति की हस्ती (स्वतंत्रता) खतरे में पड़ जाती है। परन्तु आज के समाज में सोच-व्यक्ति केंद्रित न होकर व्यापक व व्यक्ति-निरपेक्ष प्रक्रियाओं को पहल देती है। उत्तरआधुनिकतावाद में अंतर्मुखता केवल प्रक्रिया मात्र बनकर रह गई है, क्योंकि उत्पादन शक्तियां बिखरे रूप में  हैं, जिस कारण व्यक्ति का रूप भी बदल गया है। अंतर्मुखता ऐसी चीज हो गई है, जो हर स्थान पर है और कहीं भी नहीं। यह व्यक्तिवाद को आधारहीन करने की प्रक्रिया है। इसका अर्थ यह नहीं कि व्यक्तित्व को पूरी तरह नकार दिया गया है। अभी चिंतन तो बुर्जुआ ही है, बल्कि व्यक्ति के अस्तित्व की अवधारणा एक तरल चीज बन गई है। व्यक्ति की निर्णय शक्ति का हस्तक्षेप बदल गया है। व्यक्ति दुनिया को बदल सकता है या वह अपना भविष्य आप बनाता है – का विचार अब बदल गया है, क्योंकि व्यक्ति की हस्ती का ह्रास हुआ है, फिर भी यह मौजूद है।

            आधुनिकता में व्यक्ति की स्वतंत्रता, बराबरी व भाईचारे के तीन आदर्श मौजूद थे। स्वतंत्रता वाला पहलू उत्तरआधुनिकतावाद में भी बचा हुआ है। उत्तरआधुनिकतावाद अगर हमें अपील करता है, तो सिर्फ  इसलिए कि वह व्यक्ति की स्वतंत्रता बचाने का नारा देता है। उत्तरआधुनिकतावाद की सबसे बड़ी प्रतिबद्धता व्यक्ति-स्वतंत्रता की है। पर है यह बहुत कमजोर।

            दूसरा ह्रास हुआ है, समग्रता का, टोटैलिटी का। उत्तर-आधुनिकतावाद तरतीब, संरचना, समाज, देश, समूह का नकार है। इसका विश्वास फुटकलवाद में है।

डा. कर्मजीत सिंह :डा. साहिब, बहुकेंद्रवाद को हम तीसरी दुनिया के संदर्भ में देखना चाहेंगे।

डा. ग्रेवाल: वहां बाद में आएंगे, पहले मैं तीन चीजें बता दूं। बहुकेंद्रवाद का अर्थ है फुटकलवाद, इसका मतलब है बहुलता। उत्तरआधुनिकतावाद मानता है कि इनके जोड़ से कोई सर्व प्रमाणित इकाई न बनाई जाए। इसके रहने के अनुसार हर आदमी अपने मनमाने ढंग से सब का निर्माण करता है। इसलिए किसी संरचना,  तरतीब का कोई वैध अस्तित्व नहीं। यह सोच न होकर बाहर से ही गढ़ी हुई है। जिस तरह संरचना को मनमाने ढंग से बनाया जा सकता है। उसी तरह उसको ढाया भी जा सकता है। उत्तर आधुनिकतावादियों के अनुसार यथार्थ तरल पर बिखरी हुई चीज है, जिसको न तो पकड़ा जा सकता है और न ही परिभाषित किया जा सकता है। कम-से-कम उसको जोड़ कर समग्र तो बनाया नहीं जा सकता। उत्तरआधुनिकतावाद सामूहिकता की वैधता को नकारता है। इसलिए उत्तरआधुनिकतावाद किसी भी संघर्ष में विश्वास को कमजोर करता है, क्योंकि उत्तरआधुनिकतावाद में सारी समुच्चताओं को बाहर से गढ़ा जाता है, इसलिए इनके द्वारा स्वतंत्रता का हनन होता है। सामूहिकता व्यक्ति स्वतंत्रता का हनन करती है। इसके अनुसार समुच्चता मनमर्जी है और आमतौर पर स्वतंत्रता पर हावी हो जाती है। इसलिए दमनकारी होती है। सामूहिकता गुलामी की निशानी है। ऐसे उत्तरआधुनिकतावाद का दूसरा अकीदा है – समग्रता का नकार।

            उत्तरआधुनिकतावाद दिशाहीन परिवर्तन में विश्वास रखते हैं। समूहवाद के ऊपर शंका पहले भी थी, पर उत्तरआधुनिकता में  यह और भी बढ़ जाती है। उत्तरआधुनिकतावादी इस बात को नकारते हैं कि समाज में घट रही घटनाओं के पीछे कोई उद्देश्य काम कर रहा है या वह हमें किसी दिशा की ओर ले जा रहा है।  ऐसी सोच को बाहर से थोंपी हुई चीज माना जाता है। इतिहास के अंत का मतलब भी यही है, हमारा कोई लक्ष्य नहीं, हम किसी दिशा विशेष की ओर नहीं जा रहे। समाज में कोई सुधार नहीं हो रहा है और न ही विकास। किसी सुधार या विकास की बात हमें ठगने के लिए ही की जाती है। यह अधीन करने का एक ढंग है। हमारी असली उपलब्धि यह होगी कि हम किसी के झांसे में न आएं। इस तरह उत्तरआधुनिकतावादी वस्तुस्थिति को परिवर्तनशील तो मानते हैं, परन्तु परिवर्तन को दिशाहीन स्वीकार किया जाता है। इसलिए महान-वृतांत का अंत कहा जाता है। इन बातों के बाद आपकी ओर से उठाई गई बातों पर चर्चा की जा सकती है।

डा. कर्मजीत सिंह :उत्तरआधुनिकतावादी बहु-केंद्रवाद की बात करते हैं, तीसरी दुनिया के संदर्भ में …..

डा. ग्रेवाल: इतिहास  के अंत वाली बात……

डा. कर्मजीत सिंह : कुछ तो आप ने कर ही दी है, परन्तु अगर आप उस में कुछ ओर जोड़ना चाहते हों तो ठीक है, नहीं तो हम बहु-केंद्रवाद वाली बात करना चाहेंगे।

डा. ग्रेवाल: मैने आपको बताया है कि उत्तरआधुनिकतावाद में केंद्र गायब है। अगर केंद्र गायब है, तो बहु-केंद्रवाद तो आ ही जाएगा। उत्तरआधुनिकतावाद का जो हमने अभी तक उल्लेेख किया है, वह यूरोप के संदर्भ में है। विकासशील देश जो पहले उपनिवेश रहे हैं, उनके संदर्भ में आधुनिकता व उत्तरआधुनिकतावाद का वह रूप नहीं होगा, जिस रूप में इनकी बात युरोप के संदर्भ में की गई है। इसके  पहले मैं एक बार फिर याद करवाना चाहता हूं कि जिस तरह आधुनिकता में ऐसी चीजें थी, जो बुर्जुआ वर्ग की ओर से प्रतिपादित की जाने के बावजूद शोषित-पीडि़त लोगों के काम भी आ सकती हैं, इसी तरह उत्तरआधुनिकतावाद में कुछ पहलू ऐसे हैं, जिनको हम अपने ढंग से इस्तेमाल कर सकते हैं।

डा. कर्मजीत सिंह :  जैसे?

डा. ग्रेवाल: जैसे आपने बहु-केंद्रवाद की बात की है, मैं उस पर ही आता हूं। आधुनिकता, आधुनिकतावाद व उत्तरआधुनिकतावाद में एक विशेषता सांझी है। (सिर्फ डिग्री का अंतर है) कि इनमें अतीत को तोड़ने की प्रवृति है। आधुनिकता अपने -आप में अतीत को तोड़ कर भविष्यमुखी होती हुई, नए युग की शुरूआत के साथ जोड़ती है। आधुनिकतावाद का आदि-बिंदू आने वाला संकट है। इसके अनुसार ऐसी स्थिति पैदा हो गई है, जिस के साथ नए ढंग से जूझना होगा। यानी पिछले से अलगाव व बिछड़ना। उत्तरआधुनिकतावाद को समझने के लिए इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए।

            आधुनिकता, आधुनिकतावाद व उत्तरआधुनिकतावाद में एक और समानता भी है, वह है इनका आलोचनात्मक दृष्टिकोण। हर बात पर शंका की जाती है और शंका की दृष्टि से तह तक जाने की कोशिश की जाती है। चीजों की सतही वास्तविकता क्या है, असल में यह क्या है, इसका अन्तर किया जाता है। आधुनिकता में भी सभ्यता व सांस्कृतिक दृश्य की आलोचना करके गिरावट के सच को उजागर किया जाता है। उत्तरआधुनिकतावाद में यह शंकावाद और भी अधिक है, यहां हर चीज को उलट-पलट कर उसकी जांच-पड़ताल की जाती है।

            उत्तरआधुनिकतावाद इस बात पर विशेष जोर देता है कि आधुनिकता में मानव-स्वतंत्रता, मानव-मुक्ति, भाईचारा और बराबरी के संकल्प के पीछे असल में शक्ति संबंध कार्यशील हैं, जैसे पहले भी संकेत आया है। वैसे तो सास्यूर के सिद्धांत के आधार पर भाषा की संरचना और अर्थ निर्माण की प्रक्रियाओं को अलग करके चला जाता है। भाव भाषा की संरचना व यथार्थ में कोई समानता नहीं है। फिर भी उत्तरआधुनिकतावाद की धारा (विशेष रूप से फूको के साथ जुड़ी हुई धारा) ज्ञान व शक्ति संबंधों को जोड़ कर चलती है। इसके अनुसार ज्ञान हासिल करने की समूची व्यवस्था के पीछे शक्ति-संबंध प्रभावी तौर पर मौजूद हैं। उत्तरआधुनिकतावादियों की यह बात मुक्ति के सपनों को पलट देती है। मुक्ति के सपनों को गुलामी की ओर ले जाने वाला माना गया है। इन बातों को ध्यान में रखकर हम अपनी स्थिति में उत्तरआधुनिकतावाद के अर्थों को सही रूप में समझ सकेंगे।

            अब आते हैं हिन्दुस्तान में बहुकेंद्रवाद के अर्थों पर। सीधे रूप में इसका मतलब यह होगा कि हमारी राष्ट्रीय स्तर पर बनी सामूहिकता ऊपर से थोंपी गई है। इसके साथ विविधता खत्म हो गई है। इसमें अलग क्षेत्रीय अस्तित्वों का दमन होता है। केंद्र के मजबूत होने के साथ आदिवासी क्षेत्रों व सीमांत प्रदेशों का सांस्कृतिक अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। एक तरह से बहु-केंद्रवाद राष्ट्रीय एकता को चुनौती देने वाला बिखराव पैदा करने वाला और सामूहिक ताकत को कमजोर करके पश्चिमी देशों बहु-राष्ट्रीय कार्पोरेशनों के अधीन छोटे-छोटे यूनिट पैदा करने वाला सिद्धांत है। बहुलता का अर्थ है कि अलग-अलग संस्कृतियों को इकट्ठा न होने दिया जाए। उनकी सामूहिक शक्ति को उभरने न दिया जाए। उनके एक होने का मतलब है कि दूसरों के अधीन होना और अपनी स्वतंत्रता को खत्म करना। यही है उत्तरआधुनिकतावाद का बहु-केंद्रवाद।

            उत्तरआधुनिकतावाद प्रमुख रूप से उपभोक्तावादी संस्कृति को जन्म देता है। इस संस्कृति में सतही विविधता बहुत ज्यादा है। (अनेक टूथ पेस्ट, अनेक क्रीमें, बहुत प्रकार की उपभोक्ता सामग्री व चमक-दमक आदि) परन्तु मूल रूप से अंदर से ‘वस्तु’ (कमाडिटी) हैं। इस तरह व्यक्ति का संबध केवल उपभोक्ता वाला बनता है और विविधता का अहसास भ्रामक ही होता है। विकासशील देशों के संदर्भ में बहु-केंद्रीयता का सिद्धांत सिर्फ  ऊपरी या बाहरी विकल्पों की बहुलता के रूप में सामने आता है। बाजार में माल की विविधता तो होगी, पर वर्चस्व पश्चिमी देशों का रहेगा। बहु-केंद्रीयता वास्तव में विकासशील देशों के लिए आने वाली परिस्थितियों में सिर्फ सीमित उपभोक्तावादी छूट है। इसके अलावा उनके दूसरे विकल्प व स्वतंत्र अस्तित्व कायम नहीं रखा जा सकता। तीसरी दुनिया में स्वयं स्वतंत्रता को खत्म करने के लिए तो बिखराव की कल्पना की जाती है। इस तरह कई अर्थों में यह सिद्धांत हमारे सामूहिक हितों के खिलाफ जाने वाला बहुत ही खतरनाक सिद्धांत है। उपरोक्त पहलुओं को पहचान कर ही आगे बढऩा पड़ेगा।

            बहु-केंद्रवादी सिद्धांत में भी मैं पहले कहे अनुसार कुछ सार्थक चीजें देखता हूं। जैसे आधुनिकता के कुछ पहलुओं को  हमने अपने ढंग से देखा है, ऐसे ही बहु-केंद्रवाद को नए अर्थों में देखा जा सकता है। अंग्रेज हमारे देश में आधुनिक, विवेकवादी मानववादी विचार लेकर आए। उसका एक रूप पश्चिमीकरण के तौर पर उभर कर आया, लेकिन इसके अलावा हमने आधुनिकता को जो नया रूप दिया, वह पश्चिमीकरण से अलग था। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम ने इसको विशेष रूप से निखार प्रदान किया। स्वतंत्रता संग्राम के पीछे जिस राष्ट्र की कल्पना थी, वह साम्राज्य के विरोध में गई, इसको हम सिर्फ  पश्चिम से नकल की गई आधुनिकता नहीं  कह सकते। व्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रगति, बराबरी व भाईचारे के विचारों को हम अपनी जरूरतों मुताबिक ढालें। यह विचार पश्चिमी आधुनिकता के साथ मिलते-जुलते होने के बावजूद इसके अनुकूल नहीं थे।

            स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हमने अपने राष्ट्र और सामाजिक रूपांतरण की जो  कल्पना की, उत्तरआधुनिकतावादी उसकी तीखी आलोचना करते हैं व उसको लगभग नकारने लगते हैं। उत्तरआधुनिकतावाद के परिप्रेक्ष्य से असहमत होते हुए भी इस आलोचना की मदद से हम इस दौरान आधुनिकता के रूप में उभर कर आए मूल्यों की छुपी हुई कमजोरियों को पहचान सकते हैं। पिछले 50 साल में विकास में देश के सभी भागों की उचित हिस्सेदारी नहीं रही। केंद्रीकरण ज्यादा रहा है। इसलिए देश में केंद्र-राज्य के संबंधों की बात उभरती है। बहु-केंद्रवाद का फैडरल गुण यह है कि सारे राज्यों की उचित हिस्सेदारी हो। केंद्रीकरण की जगह हर क्षेत्र की सांस्कृतिक विशेषता को उचित महत्व मिलना चाहिए। इस तरह बहु-केंद्रीयता के सिद्धांत को हम अति केंद्रीयता से बचाने के लिए हथियार के तौर पर बरत सकते हैं।

डा. कर्मजीत सिंह : डा. साहिब बहुत सारी बातचीत तो गई है…..

डा. ग्रेवाल: हमने 19वीं सदी से जनतांत्रिक-मूल्यों, न्याय, सामाजिक बराबरी का नया अध्याय शुरू किया। अंग्रेजों के आने के बाद बाजार का महत्व बढ़ा। धीरे-धीरे पूंजीवादी उत्पादन-सबंधों का  फैलाव हुआ। ऐसी स्थिति में हमें भी ऐसे मूल्य व्यवस्था की जरूरत थी, जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता, बराबरी, भाईचारे की भावना व वैज्ञानिक सोच शामिल हो। नया समाज बनाने का सामूहिक यत्न हो और राष्ट्र निर्माण का सपना हो। जैसे उत्तरआधुनिकतावाद ने आधुनिकता में कमी निकाली, उसी तरह अपनी राष्ट्रीय चेतना में (खंडन करने के लिए नहीं बल्कि) जो अधूरापन रह गया था (जैसे महिलाओं  के अधिकारों का न मिलना, अतिकेंद्रीकरण आदि) उसकी और अपने नवजागरण, जनतांत्रिक मूल्यों की पुन:पहचान करना और उनके सिद्धांतों के पीछे छुपे शक्ति के समीकरणों को पहचान कर उन मूल्यों में नया सार लाने के लिए आलोचना करना हमारे काम की चीज हो सकती है। परंतु इस बात को हमेशा याद रखना होगा कि जो औजार हम इस्तेमाल कर रहे हैं, वह पूरी तरह से पूंजीवादी व्यवस्था के नवीनतम रूप के अनुकूल हैं?

डा. कर्मजीत सिंह :डा. साहिब काफी बातें तो हो गई हैं, परंतु एक बात अभी भी बच गई है। पहली यह कि हिन्दुस्तान में उत्तरआधुनिकतावाद के अनुकूल कोई स्थिति है भी है क्या या फिर हम ओवर कांसीयस हो रहे हैं?

डा. ग्रेवाल: जाहिर है कि जिस तरह से उत्तर-औद्योगिक समाज का विकास पश्चिम में हुआ, वह हमारे यहां नहीं है। हमारे तो औद्योगिक विकास की प्रमुखता नहीं है, तकनीकी विकास या पूंजीवादी विकास भी युरोप वाला नहीं है। भाव यह कि  जिस तरह से युरोप में उत्तरआधुनिकतावाद का उभार आया, वह परिस्थितियां हमारे यहां नहीं थी। पश्चिम में 1930-31 की आर्थिक मंदी के बाद से खास तौर पर सन 1945 (दूसरे विश्व-युद्ध के बाद) से जब आर्थिक खुशहाली आई तो युरोप व अमरीका के समाजों में दबे-कुचले लोगों के अधिकारों के प्रति जागरूकता भी उभर कर सामने आई। काले लोगों ने, महिलाओं ने अपने अधिकार मांगने शुरू किए। अपने संघर्षों के साथ इन्होंने अपनी कुछ जगह बनाई। इन्होंने पश्चिमी देशों के पूंजीपति वर्गों को मजबूर कर दिया कि वह साधनहीन लोगों के अस्तित्व को पहचाने। इस समय फ्रांस में छात्रों का विद्रोह हुआ। वामपंथी राजनीतिक दलों का भी काफी प्रभाव था। 60 के दशक में इन्होंने जोर मारा, पूंजीवाद की आलोचना विरोधी पक्ष की आलोचना थी। यह उभार समाजवादी न भी हो, परंतु विद्रोह दबाव के रूप में उभर कर सामने आया। सन 1968 में पैरिस के छात्रों की हार हुई। कुछ हो सकता है खुशहाली के दौर में धीमापन होने के कारण व मजदूर वर्ग के संघर्षों की कमी के कारण बुर्जुुआ-व्यवस्था पर जो प्रभाव पड़ रहे थे उनकी ताकत कमजोर पड़ गई। अब संघर्ष से जुड़े लोगों ने सांस्कृतिक स्तर पर अपनी संतुष्टि स्थापित मूल्य-व्यवस्था की आलोचना में ढूंढी, जैसे हम उत्तरआधुनिकता के कुछ पहलुओं को बरतने की सोच रहे हैं। वैसे ही न्याय की मांग करने वालों ने पश्चिम में (संघर्ष में धीमापन आने के बाद) मूल्य-व्यवस्था के स्तर व उत्तरआधुनिकतावाद के औजारों के साथ स्थापित मूल्य-व्यवस्था के विरोध की जरूरत महसूस की। देरिदा व कई और लोग भी हैं, जिनका जोर इस बात पर रहा कि अपने-आप को बने-बनाए सांचों में फिट न किया जाए, परन्तु सत्ता व मूल्य-व्यवस्था के प्रति विरोध की भावना बनी रहे, चाहे इसका अस्तित्व संकेतक या चेतना के स्तर से ही क्यों न हो। इस तरह सामाजिक ढांचे को बदलने के लिए सीधा दखल तो नहीं किया जा रहा था, परन्तु अपनी अलग पहचान बनाने की जरूरत को जाहिर किया गया। इसलिए उत्तरआधुनिकता में भी स्थापित मूल्यों से  हट कर एक ऐसी मूल्य चेतना का प्रतिपादन करने की इच्छा है, जिसकी मदद से अपनी अलग हस्ती को बचा कर रखा जा सके।

            दूसरे विकसित देशों के संदर्भ में विस्तार से बात नहीं कर सकता, क्योंकि मेरी जानकारी सीमित है, परन्तु हमारे देश में आजादी के बाद जो नीतियां व कार्यक्रम बनाए गए, उनके साथ पहले तो समाज के सारे वर्गों (वामपंथी दृष्टिकोण को छोड़कर) ने सहमति व्यक्त की, इसको नेहरू माडल कहा जाता है। इस माडल में समाजवादी समाज का निर्माण, प्रगति के द्वारा न्याय, उत्पादन बढ़ा कर न्यायसंगत समाज स्थापित करने के जो नारे दिए गए, उनको समाज के व्यापक हिस्सों ने स्वीकृति दी। धीरे-धीरे जिस तरह का विकास हुआ, जिस तरह से राजनीतिक स्तर पर नीतियां अपनाई गई व संसदीय डैमोक्रेसी का जो रास्ता चुना, दो दशकों के बाद उसमें सर्वसम्मति का विघटन हुआ। हमारी आर्थिक नीतियां बदल गई। वैल्फेयर स्टेट का ढांचा भी बदल दिया गया। जनतांत्रिक अधिकारों की बजाए दमन और केंद्रीकरण पर जोर हो गया और नौकरशाही के बढ़ते प्रभाव के कारण प्रशासन में लोगों की भावनाओं के प्रति उदासीनता बढ़ गई। ऐसे नेहरू माडल को तिलांजलि दे दी गई। महिलाओं, दलितों और कमजोर वर्गों ने  – यह मान कर कि राष्ट्रीय मामलों में उनकी हिस्सेदारी उतनी नहीं, जितनी दिखाई देती है – अलग रूप से अपने अलग अस्तित्व को जताना शुरू किया। उन्होंने अपने अलग अस्तित्व का अहसास किया और संगठित भी होने लगे। यह मोहभंग तो एक अहसास से पैदा हुआ कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अर्जित मूल्यों में कुछ  कमजोरियां हैं, जिनका हमें पुनर्निरीक्षण करना चाहिए। नवजागरण के मूल्यों का दोबारा जायजा लेना चाहिए, क्योंकि उनमें उतना सार नहीं, जितना दिखाई देता है।

            जिस तरह युरोप में उत्तरआधुनिकतावाद ने आधुनिकता व आधुनिकतावाद की छानबीन शुरू की, उसी तरह नवजागरण के मूल्यों की छानबीन हमारे यहां महसूस हुई। चाहे हमारे यहां युरोप वाली सामाजिक आर्थिक परिस्थितियां मौजूद नहीं हैं, जिनके कारण वहां उत्तरआधुनिकतावाद का विकास हुआ, परन्तु स्थापित व्यवस्था-मूल्यों स्थापित ताने-बाने की कमजोरियों को समझ कर न्याय के पक्ष में खड़ेे होने की स्थितियां मौजूद हैं।

            इसके साथ ही 70 के दशक में मध्यवर्ग व निम्न-मध्य वर्ग के कुछ हिस्सों में ऐसा वामपंथी रूझान पैदा हो गया, जिसके कारण एक ऐसा भ्रम पाल लिया गया कि अगर वह मजदूरों के साथ मिल गए, तो इन्कलाब आ जाएगा, समाज में एक तरफ  से परिवर्तन हो जाएगा। यह विश्वास भी जल्दी ही टूट गया। एमरजेंसी का झटका लगा। अब यह महसूस किया गया कि जिस काम को वह आसान मान कर चले थे, असल में वह इतना आसान नहीं था। यहां शंका पैदा हुई कि हमारी प्रतिबद्धता व समाज को बदलने  की तस्वीर सही थी या उसके सही चरित्र को पहचाननेे के लिए गहरी छानबीन की जरूरत थी? इन दो कारणों के कारण सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया की ओर हमारी समूलियत वाला रवैया एकदम बदल गया। जहां हम खड़े हैं, यहां हमारे मूल्यों में क्या कमी है, इनका पुनर्गठन कर आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाने और सिद्धांतों के पीछे मौजूद शक्तियों के समीकरणों को सिद्धांतों के साथ जोड़ कर देखने की परिस्थिति हमारे यहां पैदा हुई। आज के दौर में उत्तरआधुनिकतावाद ने जो आलोचना आधुनिकता की दी – उसके समानांतर तो नहीं, परन्तु उतनी ही गहराई से सूक्ष्म छानबीन अपनी आजादी की लड़ाई के दौरान उभरी नवजागरण की मूल्य चेतना की भी जरूरी है। विशेष रूप से उत्तरआधुनिकतावाद के औजारों के साथ, अर्थ देने की प्रक्रियाएं, भाषा व सामाजिक ढांचे में सामाजिक समीकरणों को समझने के लिए व संसदीय डैमोक्रेसी के स्वीकार किए गए मूल्यों की खोजबीन की जरूरत है।

,           जिस तरह उत्तरआधुनिकतावाद ने आधुनिकता को नकारा है, उसी तरह समाज में भी सारे को नकारने की कुछ हलकों में प्रवृति पैदा हुई है। इसलिए अपनी राष्ट्रीय चेतना को, नवजागरण के मूल्यों को, आधुनिक चेतना को व स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत को अपने रास्ते में रूकावट समझ कर नकारा गया है। ऐसे उत्तरआधुनिकतावाद को अपनाना तो पश्चिम की नकल होगा जो बहुत से सबाल्टर्न इतिहासकारों में मिलता है और जो आधुनिकतावाद को नकारता है। इसके साथ ही उत्तरआधुनिकतावाद ने शुद्ध भारतीयता का रूप भी धारण किया, जिसके तहत स्वतंत्राता आंदोलन व नवजागरण की समूची विरासत को पश्चिमीकरण कहकर नकारा गया। हमारे सामाजिक संदर्भ में उत्तरआधुनिकतावाद के जिस सार्थक उपयोग की बात हम कर रहे थे। इन दोनों तरह के उत्तरआधुनिकतावाद से अलग है।

            जितना भी रचनात्मक और सार्थक लेखन 70 के दशक का आया है। वह अपनी चेतना में विद्यमान मूल्य-व्यवस्था के अंदर सूक्ष्म रूप में व्यवस्था द्वारा प्रायोजित तत्वों की पहचान करता है। ऐसा लेखन विकसित आलोचनात्मक दृष्टिकोण आसानी के साथ प्रगति को मनन की बजाए इसकी जटिलता को पहचानता है व अधिकांश लोगों की (किसानी व मध्य वर्ग की) मानसिकता में वास्तविक आधुनिक मूल्यों की वास्तविक स्थिति की पहचान करता है। इस रचनात्मक साहित्य में उत्तरआधुनिकतावाद की ओर से मिले औजारों का अपने ढंग के साथ इस्तेमाल किया जा रहा है। वैसे कुछ रचनाकारों ने उत्तरआधुनिकतावाद का सार्थक प्रयोग किया है। अगर हमने उत्तरआधुनिकतावाद का विरोध भी करना है कि इसमें उपभोक्तावाद का गलबा है। यह पश्चिमी हमला है और हमें कमजोर बनाने का एक तरीका है व एक सांस्कृतिक स्तर पर हमला है। यह सब कुछ को पहचानते हुए भी हमें उत्तरआधुनिकतावाद के इस उपयोग को भी समझना होगा।

            एक बात और। पश्चिमी उत्तरआधुनिकतावाद का दबाव तो हमारे ऊपर है, परन्तु जब तक हम उसको नहीं समझेंगे, उसका विरोध कैसे कर सकेंगे? वैश्वीकरण के साथ आए मूल्य-प्रबंधों का प्रभावी ढंग से विरोध करने के लिए, अपने स्वीकारणीय मूल्यों का लेखा-जोखा करने के लिए (उनको रद्द करने के लिए नहीं, बल्कि उनकी सीमाएं पहचानने के लिए) उत्तरआधुनिकतावादी चिंतन के साथ उभरे तौर-तरीकों का हिन्दुस्तान की परिस्थितियों में अपने ढंग से सही इस्तेमाल किया जा सकता है। खतरा सिर्फ  यह है कि उत्तरआधुनिकतावाद चेतना के धरातल पर, संस्कृति के धरातल से ही कमी निकालता है और बदलाव की वास्तविक शक्तियों पर बल देने की बजाए ठगे जाने पर ज्यादा जोर देता है। इसलिए सामूहिक आंदोलनों में शामिल होने को शक की नजर से देखा जाता है। ऐसे लगता है कि जैसे ही हम सामूहिक यत्न में शामिल हुए, हमारा अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। हमें अधीन कर लिया जाएगा। ऐसे उत्तरआधुनिकतावाद का संकेत प्रवचन मात्र बन कर रह जाता है।

            हमें ध्यान रखना चाहिए कि शंकावाद, सामूहिकतावाद का सहयोगी बने। यह समझ कर उत्तरआधुनिकतावादी शंकावाद का इस्तेमाल करेंगे तो ठीक है नहीं तो तिलकन का खतरा बना रहेगा। क्योंकि उत्तरआधुनिकतावादियों के अनुसार कोई भी परिवर्तन संभव नहीं। ऐसी सोच के अनुसार हमारे मन में यह भावना बनी रहेगी कि सामूहिक आंदोलन क्यों शुरू होकर कहां तक पहुंच जाएगा। उत्तर-आधुनिकतावाद के चौखटे में तो लोग अपनी-अपनी दुनिया में गुम रहते हैं। यहां तक कि सबको प्रभावित करने वाले मुद्दों पर भी एकजुट होने की संभावना नहीं रहती। उत्तरआधुनिकतावादी परिस्थिति अनजाने ही नकारात्मक व व्यक्तिगत प्रवृतियों को अपने में समेट लेती है। इसलिए बहुत ही सतर्क रहने की जरूरत है, जो भी व्यक्ति उत्तरआधुनिकतावाद के प्रभाव में आया, वह निष्क्रिय हो जाएगा। मानवता में विश्वास खो बैठेगा, कुर्बानी करने का जज्बा उसमें खत्म हो जाएगा और वह सुविधाओं का आदी हो जाएगा। यह खतरा तो बना रहता है, इसलिए सतर्कता की ज्यादा जरूरत है।

डा. कर्मजीत सिंह : डा. साहिब हिन्दुस्तान के संदर्भ में….

डा. ग्रेवाल: जिस तरह हमने पहले कहा है कि उत्तरआधुनिकतावाद विकास को नकार कर चलता है। इसमें एक क्षण के साथ जोड़ने का क्रम चाहे कितना भी जटिल क्यों न हो, फिजूल दिखाई देता है। एक हद तक यह सही है कि उत्तर-आधुनिकतावाद व वृतांत एक-दूसरे के विरोधी हैं। अगर आप उत्तर-आधुनिकतावादी हैं तो आपके लिए वृतांत का निर्माण मुश्किल है, क्यों जब आप फुटकल अनुभूतियों, अनुभवों में ही गुम रहते हो, तो विविधता व बहुलता का हौवा इतना हावी हो जाता है कि इनको जोड़ना संभव दिखाई नहीं देता। अगर उनको आपस में जोड़ेंगे, तो सिर्फ  एक खेल की तरह। इस तरह का खेल खेलते समय आपने दांव पर कुछ नहीं लगाया और इसलिए गंभीरता की भी जरूरत नहीं। वृतांत के लिए उत्तरआधुनिकतावाद का यह खतरा जरूर है कि या तो वृतांत खत्म हो जाएगा और या फिर यह केवल खेल बन कर रह जाएगा। फिर भी उत्तर-आधुनिकतावादी भाषा का इस्तेमाल करते हुए दूसरों तक अपनी बात पहुंचाते  हैं। कितना भी गतिहीन क्यों न हो, एक तरह विरोध का आमंत्रण भी देते हैं। भाषा के इस्तेमाल में एक-दूसरे को अपनी बात कहने व एक-दूसरे को अपनी बात मनवाने के प्रयत्न में कम-से-कम वृतांत तो जरूरी है ही।

            महान वृतांत जिसमें संघर्षों के द्वारा समाज को बदलने का सामूहिक आमंत्रण दिया जाता है। वह उत्तरआधुनिकतावादियों को रास नहीं आता। छोटे-छोटे वृतांत जरूर घड़े जाते हैं। परंतु जैसे मैं कह रहा हूं इस सब कुछ को खेल की तरह लिया जाता है। हमारी परिस्थितियों को बदलने की जरूरत है। यहां अन्याय है, गरीबी है, भुखमरी है, विषमताएं हैं। जरूरत है समाज को न्यायसंगत बनाने की। ऐसे समाज की सृजना की, जहां हर व्यक्ति अपनी इच्छाओं की पूर्ति कर सके। यह सब कुछ अपने-आप तो होने से रहा। इसलिए विश्वास होना चाहिए कि हम मिलजुल कर नए समाज का निर्माण कर सकते हैं। ऐसी परिस्थितियों में वृतांत का अंत घातक हो जाएगा। बल्कि हमें तो हर वृतांत की कल्पना करनी होगी। हां यह जरूर मानना पड़ेगा कि मिलजुल कर तय किए गए कार्यक्रम सब को स्वीकार्य नहीं हो सकते, अगर हुए तो अस्थायी तौर पर ही। कल को इनकी सार्थकता कम भी हो सकती है। उत्तरआधुनिकतावाद की मदद से ऐसे कट्टरवाद से बच सकते हैं। परंतु इसके आगे जो यह मिल-जुल कर समाज को बदलने की राह में रूकावट बनता है, तो इसका त्याग करना होगा।

डा. कर्मजीत सिंह : डा. साहिब आप मेरे सवालों से आगे ही चलते रहे हो और लगभग जो सवाल मेरे मन में थे, उनका जवाब आपने दे दिया है। सिर्फ आखिरी एक सवाल कि पंजाबी हिन्दी में जो उत्तर-आधुनिकतावाद की धाराएं चल रही हैं, उनकी सार्थकता क्या है?

डा. ग्रेवाल : हिन्दी में और शायद पंजाबी में भी उत्तरआधुनिकतावाद के प्रभाव स्वरूप प्रवृतियां चल रही हैं। एक तो जनवादी प्रगतिशील धारा रही है। 70 के दशक में एक विश्वास था कि अगर कुछ व्यक्तियों का रूपांतरण हो जाए तो दूसरों को आसानी से मनाया जा सकता है। इनकी चेतना का स्तर ऊपर उठ जाएगा और वह संघर्ष के लिए तैयार हो जाएंगे। वह इस तरह हथियार उठाकर राजनीतिक संघर्ष में कूद जाएंगे। इस सोच की सीमाओं को पहचाना जा रहा है और समकालीन वर्ग संघर्ष और वर्ग हितों की वास्तविक स्थिति को फिर से विचारा जाने लगा है। प्राथमिकताओं में इस बदलाव को कुछ स्तर तक उत्तर-आधुनिकतावाद की देन भी कहा जा सकता है। अब की बदली सोच के अुनसार राजनीतिक स्तर पर निर्णायक संघर्ष तक पहुंचने से पहले हमें इस बात का जायजा लेना चाहिए कि हमारी चेतना का निर्माण कैसे हुआ। इस चेतना में उपभोक्तावादी संस्कृति व उपनिवेशवादी मूल्य व्यवस्था अपने सूक्ष्म धरातलों में कैसे रची-बसी है, इसका पता लगाया जाए। जब तक इनकी पहचान नहीं होगी, तब तक इनके विरोध में खड़े होने का रास्ता नहीं निकाला जा सकता। आज के उत्तर-आधुनिकतावाद से प्रभावित उनकी रचनाओं में इसका उचित इस्तेमाल मिलता है। जो चेतना के स्तर पर संघर्ष और मूल्य व्यवस्था में खरे-खोटे का निर्णय करती हैं और सामान्य ज्ञान के स्तर पर अतार्किकता को पहचानने पर जोर देती हैं। इन रचनाओं में क्रांतिकारी संघर्ष की बजाए मूल्य व्यवस्था का, खासतौर पर अधिकांश जनता की चेतना का निरीक्षण करने की आलोचनात्मक प्रवृति है। कहानी व कविता में ऐसा आलोचनात्मक विश्लेषण इस नीयत के साथ हो रहा है कि आज की स्थिति बदलनी चाहिए, परन्तु बदलने से पहले चेतना की बनावट को समझा जाना चाहिए और उनकी खाली जगहों को पहचाना जाना चाहिए, जिनको भरने की जरूरत है।

            इसके साथ ही इधर यह भी अहसास हुआ है कि विकास का जो माडल हमने स्वीकार किया है, उसमें भी कुछ सरलीकरण है। केंद्रीयकरण भी कुछ ज्यादा है। मानव व मानवता की बनी-बनाई तस्वीर अपनाने की बजाए नए सिरे से अपने अनुभव से यथार्थ को समझा जाए और निर्णय तक पहुंचने की जल्दी न हो या इसमें बड़बोलापन न हो। सीमित जिम्मेदारी, जिसका ईमानदारी के साथ निर्वाह किया जा सकता है, वैसी जिम्मेवारी रचनाओं में प्राप्त होती है। साहित्यकार की यह विनयशीलता बदलाव के लिए प्रतिबद्ध भी है और बराबरी, सद्भाव और आत्म-सम्मान को बनाए रखने के लिए उत्सुक है। साहित्यकार ऐसा मुगालता भी नहीं पालता कि वह रचना के द्वारा पूरे समाज को बदलने की तस्वीर पेश कर देगा। पहले वह प्रथम किस्म का काम करके उसको आगे बढ़ाना चाहता है। अब उसकी रचना में सब कुछ समेट कर चलने की लालसा नहीं है। मैं समझता हूं कि यह भी उत्तर-आधुनिकतावाद की आलोचनात्मक प्रवृति का सार्थक प्रयोग है।

डा. कर्मजीत सिंह 😕 डा. साहिब यह तो आपने सार्थक प्रभावों की बात की है….

डा. ग्रेवाल: हां इसके साथ ही बड़े पैमाने पर उत्तर-आधुनिकता का पश्चिमी रूप भी देखने को मिलता है। उपभोक्तावाद, क्षण में आनंद लेने, फुटकल अनुभवों को अपने-अपने ढंग से पेश करने, अलगाव, विभिन्नताओं पर जोर देने, वैज्ञानिक तर्क वितर्क को नकारने, अलौकिकताएं, देववाद पर बल देने, फैंटसी और खेल-खेल में जोड़-तोड़ करने की प्रवृतियां सिर्फ  बाजारू लेखन पर ही नहीं, बल्कि गंभीर लेखन पर भी प्रभाव पा रही हैं। महान वृतांत के अंत के नाम पर किसी भी परिवर्तनगामी साहित्य को जो समाज को बदलने के लिए प्रतिबद्ध है, को राजनीति कहकर छुटयाया जाता है।

            सार्थक लेखन के बारे मैं एक बात और कहना चाहता था। राजनीति संस्कृति के धरातल पर भी मौजूद होती है। राजनीतिक लड़ाई की बजाए अब सांस्कृतिक स्तर पर मूल्य चेतना में संघर्ष पर बल ज्यादा हो गया है। कहना मैं यह चाहता हूं कि उत्तर-आधुनिकता के उभार के बाद हमारे देश में सार्थक लेखन का मिजाज भी बदला है। इसके अलावा फैंटेसी के नाम पर यथार्थवाद को और सामाजिक प्रतिबद्धता को नकारने वाला लेखन भी बहुत हो रहा है। दोनों तरह के लेखन का शिल्प के धरातल पर बहुत अंतर दिखाई नहीं देता, इसलिए ऊपरी तौर पर दोनों एक जैसे दिखाई दे सकते हैं। दोनों ही बिंबों पर फैंटसी का इस्तेमाल करते हैं। दोनों ही दिखाई देती चीजों की उधेड़बुन करते हैं। परन्तु दोनों में गुणात्मक अंतर है। गुणात्मक अंतर इस आधार पर निश्चित होता है कि मौजूदा परिस्थितियां के प्रति लेखक का अपना रुख क्या है और पाठक के मन में वह किस तरह की मानसिकता पैदा करना चाहता है? वह पाठक में मौजूदा ढांचे में फिट होने की मानसिकता पैदा कर रहा है या फिर उसके विरोध में अपनी इन्सानियत को बचाए रखने की जरूरत समझने की मानसिकता का विकास कर रहा है? जिस तरह प्रेमचंद ने कहा है कि साहित्य हमें सुलाए नहीं, बल्कि बेचैन करे।

            आज का जनवादी-प्रगतिशील लेखन भी, चाहे वह राजनीतिक धरातल पर सीधे-सीधे वर्गों के संघर्ष पेश न करता हो, परन्तु वह एक बेचैनी पैदा करता है। दूसरी तरह का उत्तर-आधुनिकतावादी साहित्य जो यथास्थितिवादी है, वह हमें अच्छा लगता है, उपलब्धि में मजे लेने की प्रेरणा देता है और सब ठीक-ठाक होने  का भ्रम पैदा करता है।

            अंत में,  मैं यह कहना चाहूंगा कि अगर हम आधुनिकता-आधुनिकतावाद व उत्तर-आधुनिकतावाद मेें इतने उलझते रहे तो दूसरी बातों पर हमारा ध्यान नहीं जाएगा। यह चिंतन बुर्जुआ चिंतन है। इसलिए इसमें वर्ग संघर्ष या वर्ग-विभाजन की केंद्रीय सच्चाई को साफ-साफ  पहचाना नहीं जाता, बल्कि इसको छुपाने की या नजरअंदाज करने की प्रवृति रहती है। इसलिए आधुनिकता हो या आधुनिकतावाद या उत्तर-आधुनिकतावाद इनके बारे में विचार-विमर्श के समय इनकी प्रासंगिकता को पहचानते समय वर्ग-संघर्ष और वर्ग-विभाजन की सच्चाई को भी ध्यान में रखना चाहिए। इसको ध्यान में रखते हुए ही उत्तर-आधुनिकतावाद से मिली अंतर-दृष्टियों की उपयोगिता को पहचान कर अपने विचारों को प्रकट करने की जरूरत हमेशा बनी रहती है। उत्तर-आधुनिकतावाद में वर्ग-संघर्ष को ही नजरअंदाज नहीं किया जाता, बल्कि सामूहिकता को भी नजरअंदाज किया जाता है। अगर हम इस तथ्य को ध्यान में नहीं रखते, तो हम उत्तर-आधुनिकतावाद के भुलावे में आ सकते हैं।

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