खानवा का युद्ध और मेवाती -सिद्दीक अहमद ‘मेव’

भारत के मध्यकाल के इतिहास के बारे में आधुनिक काल की शासन-सत्ताओं ने बहुत सी भ्रांतियां फैलाई।  पूरे मध्यकाल को ऐसे प्रस्तुत किया गया जैसे कि यह युग हिंदू और मुस्लिमों के बीच युद्ध का युग है।  जबकि हिंदू शासक दूसरे हिंदू शासक के खिलाफ, मुस्लिम शासक दूसरे मुस्लिम शासक के खिलाफ, हिंदू शासक मुस्लिम शासक के खिलाफ या मुस्लिम शासक हिंदू शासक के खिलाफ लड़ाई का इतिहास भरा पड़ा है।  लेकिन ये भी सही है कि ये युद्ध कोई धर्म के लिए नहीं लड़े गए थे, बल्कि इनके कारण विशुद्ध राजनीतिक थे। तत्कालीन शासक अपने राज्य के विस्तार के लिए लड़ते थे और यद्धों का खामियाजा साधारण जनता को भुगतना पड़ता था, चाहे वह किसी भी धर्म से ताल्लुक रखती हो। पानीपत की पहली लड़ाई इब्राहिम लोदी और बाबर के बीच हुई थी औऱ दोनों इस्लाम से ताल्लुक रखते थे।  अपना राज्य स्थापित करने के लिए बाबर ने कई युद्ध जीते। उसमें एक युद्ध खानवा का था, इस युद्ध में शामिल सेनाओं के धर्मों से अनुमान हो जाएगा कि किस तरह से धार्मिक विद्वेष पैदा करने के लिए इतिहास की घटनाओं को एकांगी तरीके से प्रस्तुत किया गया। प्रस्तुत है  सिद्दीक अहमद मेव का यह लेख—सं.

खानवा का युद्व मैदान। एक तरफ थी अफगानों, तुर्कों और तातारियों से सुसज्जित बाबर की सेना, तो दूसरी और थी राजपूतों और मेवों की संगठित शक्ति की प्रतीक महाराणा सांगा की सेना। कई दिनों से दोनों ओर की सेनाएं एक-दूसरे के सामने खेमा डाले पड़ी थी, मानो एक-दूसरे के संयम की परीक्षा ले रहीं हैं।

         मगर 15 मार्च, 1527 ई. को सुबह लगभग ढाई घड़ी ( लगभग दस या साढ़े दस बजे) सुबहे दोनों ही सेनाओं का संयम टूट गया और दोनों ओर से दहाड़ ने की आवाज, हाथियों की चिन्घाड़, तलवारों की झन्कार और तोपों की गरजन से खानवा की रणभूमि गूंजने लगी। घोड़ों की टापों, सैनिकों की गर्दिश और तोप के गोलों से उठे धूल और धूएं ने खानवा के आसमान को इस तरह घेरा कि दिन मे रात नजर आने लगी। राजपूती तलवारों और मेवाती खंजरों की मार ने जहाँ तुर्की सेना को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया, वहीं तुर्की तींरदाजों और तोपों की मार ने भरतीय सेना की पक्तियों मे हडकंप मचा दिया। युद्व पूरे शबाब पर पहुंच चुका था। दोनों ओर से भीषण मार-काट मची थी। युद्व मैदान सैनिकों की लाशों से पट चुका था इसके बावजूद एक-दूसरे के खून की प्यासी दोनों ओर की सेनाएं आगे बढ़-बढ़ कर एक-दूसरे पर हमले कर रही थी। इस युद्ध में पहली बार प्रयुक्त हो रही तोपों ने राजपूतों और मेव सैनिकों व  हाथियों  को चौंका दिया था। मगर राजपूत और मेव सैनिक भी पूरे जोश और साहस के साथ तुर्की सेनाओं को मुँह तोड़ जवाब दे रहे थे।

दिन ढल चुका था। युद्ध अपने चरम पर था। मैदान गर्द-ओ-गुबार से घिरा हुआ था। दोनों और की सेनाएं एक-दूसरे के साथ गुत्थम-गुत्था हो रही थी। एक बार तो लगा कि राजपूत और मेव  सैनिक दुश्मन को पछाड़ देंगे। मगर तभी एक तीर राजपूत सेना के सेनापति महाराणा सांगा के सिर में लगा, जिससे वह बेहोश होकर हाथी के हौदे में गिर गया। उन्हें तुरन्त युद्व मैदान से बाहर निकाल लिया गया ताकि उनका उपचार किया जा सके।

मगर अपने सेनापति को न देख राजपूत सैनिक हतोत्साहित होने लेगे। इसी समय सिलदिया सरदार अपने सैनिकों के साथ चलते युद्व में ‘पाला बदल‘ बाबर के साथ जा मिला। ऐसे हालात में राजपूत सैनिकों के पांव उखड़ने लगे।  बाबर को अपनी विजय निकट नजर आने लगी। मगर तभी राजपूत सेना के दाँए भाग के सिपह सालार राजा हसन खाँ मेवाती आगे बढा और गिरती हुई राजपूत सेना की पताका को थाम लिया। उसने अपनी सेनाओं को ललकारा और पूरे जोश के साथ दुश्मन की सेनाओं पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। साथ ही अपने बारह हजार फुड़सवारों को दुश्मन की तोपों पर आक्रमण करने के लिए उकसाया। मेवाती घुड़सवार आगे बढ़ने लगे। इधर राजपूतों ने भी अपनी निढ़ाल हो रही तलवारों को संभाल लिया। युद्ध ने एक बार फिर भीषण रूप अख्तियार कर लिया। एक बार फिर तलवार से तलवार टकराने लगी। नेजे से नेजा भिड़ने लगा। तीरों की वर्षा और आग उगलती तोपों के बीच, घुड़सवार सैनिकों ने अपने जौहर का शानदार नमूना पेश करना शुरू कर दिया। ऐसा लगने लगा कि जल्द की राजपूतों और मेव सेनाएँ संगठित होकर दुश्मन की तोपों का मुंह मोड़ देंगी। मगर तभी तोप के एक गोले ने भारतीय इतिहास की दिशा ही बदल दी।

तोप का वह बेरहम गोला राजपूतों और मेव सेना के नये सेनापति, राजा हसन खाँ मेवाती के पास आकर फटा और इसके साथ ही वह महान मेवाती सपूत वीरगति को प्राप्त हुआ। मेवात रियासत के अन्तिम शासक के बलिदान के साथ ही प्रथम मुगल शासक का भाग्य बदल गया। मेवात रियासत के खण्डहरों पर महान मुगल साम्राज्य की नींव पड़ गई। बाबर भारत का सम्राट बन गया। उसने अपनी इस ऐतिहासिक विजय की खुशी में राजपूतों और मेव  सैनिकों के कटे हुए सरों से एक मीनार बनवाई ताकि उसकी ताकत की धूम चारों दिशाओं मे सुनाई देने लगे।

खानवा की विजय के पश्चात् बाबर मेवात की और बढ़ा। दो पड़ावों के बाद वह मेवात की राजधानी अलवर पहुंचा। उसने अलवर का खज़ाना अपने सबसे छोटे बेटे मिर्जा हिन्दाल को सौंप दिया। इसके पश्चात् वह फिरोजपुर आया और ‘झिरका‘ में पड़ाव डाला। यहाँ से वह कोटला झील देखने गया और शाम को वापिस फिरोजपुर लौट गया। बाबर ने मेवात के एक विद्रोही सरदार इल्यास खां को पकड़ कर जिन्दा ही उसकी खाल खिंचवाली। इसके बाद मेवात की कमान चिन तैमूर को सौंप वह चन्देरी की ओर चला गया।

खानवा के युद्ध ने भारतीय इतिहास पर व्यापक प्रभाव डाला। मेवात का इतिहास तो खानवा की पराजय के पश्चात् ऐसा बदला कि आजतक भी मेवाती उस पराजय की टीस से उभर नहीं पाए हैं।

खानवा के युद्व से पहले और युद्ध के बाद बाबर ने मेवात में भारी तबाही मचाई। उसने भारी मार-काट की और सम्पूर्ण क्षेत्र में दूर- दूर तक आग लगवा दी। सैंकडों मेवाती गाँव तबाह व बर्बाद हो गये। हसन खाँ मेवाती के बलिदान के पश्चात् रियासत सदा के लिए समाप्त हो गई। क्योंकि बाबर ने मेवात को दिल्ली सूबे के अधीन सरकार आगरा, सरकार तिजारा और सरकार सहार में बाँट कर मेवात की संगठन शक्ति को सदा के लिए समाप्त कर दिया। इसके पश्चात् मेवाती कभी अपनी अलग रियासत स्थापित नहीं कर पाये।

उधर बीकानेर के किले में महारणा सांगा का देहान्त हो गया, जिससे राजपूत शक्ति को भारी धक्का लगा। चन्देरी के मेदनी राय को पराजित कर बाबर ने ‘रही-सही कसर‘ भी पूरी  कर दी।

मेवाड, मेवात और चन्देरी को पराजित करने के  पश्चात् ही बाबर उस महान् मुगल साम्राज्य की नींव डालने मे सफल हो सका, जिसने लगभग सवा तीन सौ साल तक भारतीय उपमहाद्वीप पर अपना हरा और सुनहरी झण्डा फहराये रखा।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (जुलाई-अगस्त, 2018), पृ.- 40

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