सिमट रही है आज अंजरि मेंं उनकी धरा-किसानी -राजकिशन नैन

हरियाणवी अंचल के गांवों में वैश्वीकरण के दानवी पंजे ने सदियों से चले आ रहे लोकजीवन के ताने-बाने को पूरी तरह छिन्न-भिन्न कर दिया है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाले पुश्तैनी काम-धंधों का पूरा गणित एक बारगी ही बदल गया है। ग्राम्यांचलों में खान-पान और ओढने-पहनने के तौर-तरीके ही नहीं बदले, अपितु काम-धाम, रीति-रिवाज, तीज-त्यौहार, रहन-सहन और दिनचर्या आदि में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया है। एड्डी-चोटी का पसीना एक करने वाले बुुजुर्ग कभी के आए-गए हो गए हैं। ‘काम प्यारा सै, चाम प्यारा नहीं’ सरीखे वचन कहने वाले धीर और कमाऊ पुरुष अब हरियाणा के गांव-देहात में कहीं दिखाई नहीं पड़ते। अब अपनी नींद सोने और अपनी नींद जागने वाले निठल्ले लोगों का बोलबाला है। उल्टे-खूंट्टे गाड्डण आले (अनुचित कार्य करने वाले) और खड़ी बुहारी देण आले (बेगार टालने वाले) ऐसे गभरु अपनी माट्टी आप पीट रहे हैं। स्वावलंबन, सदाचार और कत्र्तव्यपरायणता का सर्वत्र लोप हो गया है। आदर्श गृहस्थाश्रम का ढांचा खंडित हो गया है। ओज एवं शक्ति पैदा करने वाले विशुद्ध संस्कार भी गांवों में कहीं नहीं रहे।

हरियाणा में स्वयं मरकर दूसरों को जिताने की परंपरा रही है, लेकिन अब इस प्रथा का लेशमात्र भी शेष नहीं है। गांवों के भले, बडेरे और सयाने लोगों ने अपने-अपने देश, काल, परिस्थिति, वर्ग, वातावरण और लोक मानस की दृष्टि से मानव समाज को उन्नत बनाने एवं मानव में मानवता भरने के लिए अतीव उच्च कोटि के कार्य किए हैं। ऐसे सुधी वाले बुजुर्गों की बदौलत ही हरियाणा के हर वर्ग में अतिथि-सत्कार, परोपकार, रक्षा, सेवा, दया, करुणा और दान आदि की रीत रही है। हरियाणा वासी गाय, साधु-संत, पक्षियों, पशुओं और प्राणीमात्र के प्रति अगाध स्नेह रखते हुए आए हैं। प्रदेश के सरल हृदय किसानों ने अशिक्षित होते हुए भी स्वस्थ मूल्यों एवं युग-युग से संचित आदर्शों को अपने लहू से सींच कर जीवित रखा है। हमारे बडेरूओं ने धन-धाम की अपेक्षा धर्म को बड़ा माना है। पुरखों की इस थाती का संरक्षण एवं संवद्र्धण करने की खातिर हमारे बड़ों ने भारी कष्ट उठाए हैं। देश के अन्य अंचलों की भांति हरियाणा अंचल की सांस्कृतिक परम्पराओं का अपना वैशिष्ट्य रहा है। हरियाणवी संस्कृति का फलक अत्यधिक विस्तीर्ण है। अत: यहां केवल अनुकरणीय परंपराओं को उजागर करने का यत्किंचित् प्रयास किया जा रहा है।

खेती हरियाणवी अंचल का मुख्य धंधा है। खेती को ‘किसानी’ भी कहते हैं। खेत-क्यार का काम कहने-सुनने और देखने में जितना सरल जान पड़ता है, करने में वह उतना ही जटिल है। लोकोक्तिकार ने कहा है-

पोह माह का पाळा सहै,
अर भादों का घाम।
पाणी डबड़ां का पीवै,
करै किसानी काम।।

अर्थात-जिसने में पौष और माघ की कड़कती ठंड एवं भादों की तिलमिला देने वाली धूप सहन करने का माद्दा हो तथा जो बरसाती पोखरों का पानी पीने की हिम्मत रखता हो वही खेती का काम करे।

और के बस की है भी कहां? यह किसान का ही श्रम हे, जिसके सहारे आज हम जीवित हैं। किसान की अस्थियां लोहे की और उसकी छाती वज्र की बनी है। किसान ने नाना कष्ट सहे, लेकिन अपनी आत्मा को कलुषित नहीं होने दिया। प्रत्येक जमाने के शासकों ने उसे मारा-कुचला, उसकी पूंजी को छीना, उसकी हस्ती को दबाया, लेकिन वाह रहे धरा के सपूत। तेरा तप साक्षात शिव के ही समान है। तूने उसी को गले लगाया, जिसने तुझे ठुकराया। तूने अपनी अंतडिय़ां सुखायी, लेकिन तेरे द्वार से कोई भूखा नहीं लौटा। धन्य है तेरा साहस और धन्य है तेरी ठकुराई। तेरे तप से खेतों में एक सौ एक प्रकार की लक्ष्मी जन्मती है।

डेढ़ पीढ़ी पहले एक किसान की दिनचर्या तार्यां की छांह में (बहुत प्रात:) शुरू हो जाती थी। पुराने लोग सूर्य, चांद और तारों को देखकर समय का अनुमान लगाते थे तथा उसी के अनुसार कार्य की समय-सारणी तय करते थे। दिन के समय वे सूर्य के प्रकाश से बनी परछाई को देखकर समय का अंदाजा लगाते थे तथा रात को चांद-तारों की मदद से वक्त का अनुमान निर्धारित करते थे। रात को निकलने वाली हिरणी (सूर्यास्त के समय निकलने एवं सूर्योदय के समय अस्त होने वाले तीन विशेष तारे, जो जेठ मास के दौरान आकाश में दिखायी नहीं देते) एवं भूत्तां की राही (आकाश गंगा) देखकर वे तत्काल समय की गिनती कर लेते  थे। हेड़ी तारा (पारधी नामक चमकीला तारा), भूरी तारी (सन्ध्या के समय दिखने वाला प्रथम तारा) और तारों का ‘झुमका’ (विशेष तारों का समूह) देखकर भी बुजुर्ग समय को जान लेते थे। उन्होंने सूर्य की गति के आधार पर दिन-रात को आठ पहर एवं चौसठ घडिय़ों में बांट रखा था। कलेवे के समय को उन्होंने  ‘कल्लेबार’ कहा, दिन के दो पहर बीतने पर ‘दोफाहरा’ पुकारा, सायं चार-पांच बजे खिचड़ी-दलिया रांधने के समय को ‘हांडियां का बखत’ नाम दिया तथा पहर घड़ी का तड़का (भोर-बेला) रहने पर उसे ‘चाकियां का बखत’ कहकर संबोधित किया। भोर के समय को यदि ‘मुरगा बोलण का बखत’ कहा तो आधी रात को ‘गाद्दड़ा बोलण का बखत’ कहकर पुकारा। ‘पीली पाट्यां पाच्छै’ (पौ फटने के बाद) हरकती (सुस्त) आदमी सोकर उठते हैं, हमारे बडेरे सदैव मुर्गे की बांग से पहले जग जाते थे। स्त्री हो अथवा पुरुष आंख खुलते ही सर्वप्रथम धरती चुचकारते थे, तदुपरांत राम का नाम लेते थे और बिछोने समेटकर रखते थे। इसके बाद पशुओं का गोबर संगवाकर फारिग होने  (शौचनिवृति) के लिए बस्ती/गांव से काफी दूर जाते थे। सूर्य उगने के बाद शौच जाने को पाप समझते थे। शौच के लिए जाते तो नीम अथवा कीकर की दातुन करना न भूलते। घर लौटकर पुरुष पशुओं को न्यार-फूस (सानी-पानी) खिलाते। फिर इतमीनान में बैठकर हुक्का पीते, लेकिन भरने से पूर्व उसे ताजा जरूर करते। इसके बाद गाय/भैंस की पीठ थपथपाकर धार-डोकी (पशुओं का दूृध दूहना) का काम निबटाते। डोके चुवकते (दूध निकालते) वक्त कांधे गाभरुओं (उभरती उम्र के युवकों) को धार अवश्य देते। दूध पीतल की बाल्टी में  दुहते और कपड़े से ढककर उसे तत्काल घर पहुंचाते। पुरुष घेर (पशु बांधने का स्थान) अथवा पो (घर के प्रवेश द्वार के साथ बना कमरा) में सोते थे, जबकि महिलाओं  का शयन घर में होता था। बैठक से दूध ले जाने का काम बडेरी महिलाएं भी कर लिया करती। दूध दुहने के बाद बुजुर्ग सन-पटसन के पौधे से रेशा अलग करने के लिए पौड़ चेड़ते और रूई व बिनौलों को अलग-अलग करने के लिए चरखी की मदद से कपास लोढते। हलवाहे बैलगाड़ी में राछ भान (खेती के उपकरण) जचाकर खेतों  की ओर निकलते। तब  जाकर कहीं दिन निकलता।

महिलाएं भी पुरुषों की भांति ऊषा के उदय होने के पूर्व घर के कामों में जुट जाती थी। सर्वप्रथम वे दीया-बाती करती फिर चक्की पीसती। कमेरी महिलाएं प्रात: चार बजे के करीब उठकर चाक्की झो दिया करती और मुंह-अंधेरे ही चूल्ह (आटा  पीसने की हाथ वाली चक्की का मिट्टी से बना वह गोल गहरा भाग, जिसमें अन्न आदि पिस कर इक्_ा होता है) कुछ इलाके में इसे गरंड भी कहते हैं, भर दिया करती, जिसमें कम से कम धड़ी-छह सेर आटा आता है। चक्की के बाद बिलौणी पर चाखड़ा (बिलौने मुंह पर ढका जाने वाला काष्ठ का चक्राकार ढक्कन) रखकर वे दूध बिलोने बैठती तथा पांच-सात गाय-भैंसो के दूध को स्यात घड़़ी (थोड़े से समय) में  बिलो डालती। बिलौणी से घी निकालने के बाद कुंई अथवा कुंए से पांच-सात पैहंडे (बड़ा मटका) पानी के भरकर लाती। इसके बाद घर-आंगन बुहारकर गोबर-कूड़ा करती। गितवाड़ (उपले थापने एवं कुरड़ी डालने का स्थान) में गोबर की हेल (टोकरी) भरकर ले जाती और गोबर के उपले थापती। घर लौटकर ताजे गोबर औ�� पीली मिट्टी से चूल्हा लीपती। तब कहीं पौ फटती। फिर भोजन बनाती।

उन दिनों संयुक्त परिवार प्रथा जीवित थी। एक-एक कुटुंब में साठ-साठ, सत्तर-सत्तर व्यक्ति होते थे। बाज्जी-बाज्जी (किसी-किसी) बीरबान्नाी (औरत) को सुबह-शाम एक-एक झाल्ला (बड़ा टोकरा) रोटी पोणी पड़ती थी। रोटी पकाने के उपरांत महिलाएं हाळी (हल जोतने वाला) का जवारा (हाळी और बैलों के लिए दोपहर का आहार) लेकर खेत में जाती और वहां पूरे दिन काले बैल की भांति कमाती। वह जमाना ही दूसरा था। न पुरुष काम से थकते थे न औरतें। पुरुष आदि जोरावर थे तो महिलाएं भी हट्टी-कट्टी थीं। उनकी कमेर के क्या कहने। घर-खेत पर काम करने के दौरान हाथों और पांवों में पड़ने वाले छालों और गांठों की वे रत्ती भर परवाह न करते थे। उनमें मानसिक और शारीरिक कष्टों को  सहन करने की अपार क्षमता थी। दिनभर हाड़तोड़ मेहनत करने पर भी वे रोटी-राबड़ी और साग-सत्तू चाव से खाया करते। उनकी करामात उन्हीें के पास थी। धन उन्हें बुरा नहीं लगता था, पर उनके धन की परिभाषा निराली थी। वे अन्न को ही सबसे बड़ा धन मानते थे। कहावत भी है-

अन्न धन सो अनेक धन, सोनों-चांदी आधो धन।

सोने-चांदी की जिस चमक के पीछे दुनिया भटक रही है। भोले किसानों की निगाह में वह आधा धन है। अन्न रूपी धन को पाने की खातिर बुजुर्ग दिन-रात मिट्टी में देह खपाते थे। परिश्रम किए बगैर धरती धन नहीं देती। कहा है-

टपकै एड़ी तलक पसीना, तब निपजै माटी में सोना।

किसान की समता कौन कर सकता है? वह सच्चा अन्नदाता है। समूचा संसार उसकी मेहनत पर टिका हुआ है। पशु-पखेरू, जीव-जंतु, कीट-पतंग, देव-दानव और नर-नारायण सब किसान के श्रम पर ही जीवित है। पकी हुई फसल को देखकर किसान की छात्ती गर्व से फूल उठती है। खेत में पक्षियों को मंडराते देखकर वह ऊंचे स्वर में उन्हें आमंत्रण देता है-

‘राम जी की चिडिय़ा, रामजी का खेत
खा लो चिडिय़ा, भर-भर पेट’

किसान की नजर में धन, धरती और फसल का नियंता भगवान् है। इसवर की चाही बड्डी (जो भगवान करता है ठीक करता है), आत्मा सो परमात्मा (पिंड में ब्रह्मांड का वास), करणियां का राम हिमांती (भगवान परिश्रमी की सहायता करता है), राम के घर देर सै अंधेर नहीं (अंततोगत्वा न्याय मिलता ही है), भगतां का राम रुखाळा (भगवान ही भक्तों के सहायक  हैं) और आंद्धयां की माक्खी राम उड़ावै (निर्बलों का सहारा भगवान है) सरीखी हरियाणवी कहावतों में इस अंचल के किसानों की आत्मा साफ झलकती है। भारत के अन्य अंचलों की भांति हरियाणवी किसान भी परमात्मा की दया-मया से अन्न उपजाता है और सबके घरों में चक्की चलवाता है। पर स्वयं किसान की दशा सदैव दयनीय रही है। खेती करते हुए अकाल, बाढ़ और मौसम के बदले मिजाज के कारण कई बार किसान का घर-बार तक बिक जाता है, तब भी वह अपने धर्म पर अडिग रहता है। वह सदियों से धरती की धूल को माथे पर चढ़ाता आया है और न जाने कब तक चढ़ाता रहेगा। केंद्र और राज्य सरकारों ने किसान को झूठे आश्वासन के सिवाए कभी कुछ नहीं दिया। पर किसान रुखा-सूखा खाकर भी दिन-रात अपने-आपको मिट्टी में मिलाता है। इतना बूता और किसी मेेंं कहां?

किसान बारह महीनों पसीना बहाता है और वर्षा, घाम, शीत आदि की चिंता न करके धरती में सोना उगाता है। हमारे बाप-दादाओं का जीवन-सूत्र  वही था कि हमने जो कुछ कमाया है, वह धरती माता से ही कमाया है। उनके जीवन में चैत से फागुुन तक अनोखी गहमागहमी (उन्माद का वातावरण) रहती थीं। वे अपनी कमाई में सबका सांझा (हिस्सा) समझते थे। निरालस्यता उनका अभ्यास और कर्मठता उनका जीवन था। क्या बालक, क्या युवा और क्या वृद्ध, सबके सब दिन निकलने से पहले खेतों में पहुंच जाते थे। छोटे बालक भी स्कूल में जाने से पहले सुबह-सुबह पशुओं की खातिर घास के गाट्ठड़ लाया करते। किसान लोग गोस्टी (छोटा उपला), आग और होक्टी (छोटा हुक्का) लेकर खेत की राह पकड़ते थे। वे कंधे पर हल रखकर बैलों को आगे-आगे हांकते हुए चलते थे। आग और हुक्का खेत  में  लाजिमी तौर पर रखा करते और इनमें सबका सीर (हिस्सा) समझते थे। पाळी (पशुपालक) एक-दो पशु के पीछे कदापि न चलते थे, पशुओं के टोल (समूह) रखते थे। गोधन को सच्ची निधि समझते थे। गोवंश के गोबर की खाद खेतों में डालते थे। सांड को बिना कुछ खिलाए-पिलाए घर के द्वार से न जाने देते थे। सांड अथवा झोटा खेतों में खड़ी फसल को खा रहा होता, तो उसे खदेड़ते नहीं थे। बुजुर्ग, गरीब होते हुए भी संतोषी थे। फटे-पुराने और थेगली (फटे व पर लगाया गया पैबंद) वाले कपड़ों में भी वे स्वर्गिक आनंद भोगते थे। ये बारहों महीनेे प्रकृति की गोद में सोते-जागते थे।

चैत (अप्रैल) में लामणी (पकी फसल की कटाई) करते। साढी (आषाढ़ी फसल) की लामणी पहले आधे चैत शुरू हो जाया करती। लोग बाग-फाग खेलने के बाद इस कार्य में जुट जाया करते। इन दिनों वे हरे छोलिए (हरा चना) खाते व चनों के होळ (आग में भूनी हुई हरे चने की टाट) बनाकर झाकरे (बड़ा मटका) में  भर लेते। दो-तीन माह तक खाते। स्त्रियां तपती धूप में शल्या (फसल कटाई के बाद खेत में बिखरा रहने वाला अन्न) चुगकर नाज बटोरती।

वैशाख (मई) में साढ़ी फसल की कटाई, ढुलाई व कढ़ाई का काम निपटाते। कुएं चिणते, प्याऊ  बिठाते,  खाट-पलंग भरते। स्त्रियां भी हर कार्य में हाथ बटाती। पनघट वाले कुओं पर पनिहारियों की भीड़ लगनी शुरू हो जाती, जो सांझेे तक चरम पर पहुंच जाती। पीपल की बरबंटी (पीपल का फल) एवं बड़ (वट) के बरबंटे (वट वृक्ष का फल) इन दिनों स्त्रियां चाव से खाती।

जेठ (जून) में किसान पछेती (विलंब से बोई गई) साढू (आषाढ़ी फसल) की लामणी करते उसे संगवाकर घर लाते। ज्वार-बाजरे की अगेत्ती (समय से पूर्व बोई गई) बुवाई की जाती। जोहड़ों में जूल (दस हाथ वर्गाकार तथा एक हाथ गहरे माप का घनफल) काढ़े जाते। स्त्रियां  मंडेर (छत्त से ऊपर की दीवार) लीपती व हारे-चूल्हे घालती। खेत में नुला-पुता (नलाई) काम करती। गूलर पककर लाल सुर्ख हो जाती। झींज (जांट/जांट पर लगने वाली लंबी फली) भी इसी महीने पकती। ग्रामीण इन स्वादिष्ट फलों को चटखारे ले-लेकर खाते। पीचू (ज्येष्ठ में करील पर लगने वाला फल) का निराला स्वाद भी लोग इन्हीं दिनों चखते।

आषाढ़ (जुलाई) के महीने में किसान मींह (वर्षा) की बाट (प्रतीक्षा) जोहने लगते थे। उनकी मान्यता थी कि आधा आषाढ़ बीतने पर तो राम, बैरी (दुश्मन) के यहां भी बरसता है। बादलों को रिझाने के लिए मोर पिहू-पिहू करके आसमान सिर पर उठा लेते। बारिश आने से पूर्व बिटोड़ों (उपलों को क्रम से लगाकर चिना गया आयत या शंकू के आकार का ढेर) पर छान/छप्पर डाल दी जाती। बाजरे की बुवाई के समय सभी घरों में सीरा (बिना घी का हलुआ) जरूर बनाया जाता। लिसोड़ा (पीले-से रंग का लसलसा फल) भी इसी माह पकता।

साम्मण (अगस्त) की झड़ी (लगातार वर्षा) लगते ही धरती का नूर  सवाया जो जाता था। इस महीने सामणू (सावनी फसल) की बुवाई करने के बाद ग्रामीण पुरुष नए वृक्ष लगाने का काम किया करते। सावन में हरियाणा के स्त्री-पुरुष गंगा-स्नान के लिए हरिद्वार जाना न भूलते थे। स्त्रियां शिवरात्रि का व्रत भी लाजिमी तौर पर रखती थीं। ‘साम्मण-भादों के घाम में, जोग्गी बणज्या जाट’ (सावन-भादों की खेेती के समय किसान का रूप कुरुप हो जाता है) कहावत बुजुर्गां पर खरी उतरती थी। श्रावण शुक्ल तीज को त्यौहार बेहद निराले अंदाज में मनाया जाता था। एक कहावत से इसकी पुष्टि होती हैै-

साम्मण पहली पंचमी, जै चिमकैगी  बीज।
तूं तो गावै डामचा, मैं खेल्हूंगी तीज।।

अर्थात-सावन मास की प्रथम पंचमी को यदि बिजली चमकती है तो शर्तियां अच्छी बारिश होती। ऐसे में स्त्री अपने पति को संबोधित करते हुए कहती है कि तुम  तो फसल की रखवाली के लिए डामचा (मचान) डालोगे और मैं तीज मनाऊंगी। सावन में स्त्रियां डाभ (दुर्वा) की डालियां काटकर उनसे मांजण (बुहारी) तैयार किया करती। इस माह गांव-देहात में सरसों के तेल के पकवान बनाए-खाए जाते थे। वैसे सुहाळी (सख्त आटे की मी_ी एवं चरचरी पूरी), वैसे गुलगुले (मीठे पकौड़े), पूड़ेे (पुए) एवं शक्करपारे (आटे को तलकर बनाए गए छोटे चोकोर टुकड़े) अब लाख प्रयत्न करने पर नहीं बन सकते। न अब वैसा आटा है, न वह गाढ़ा तेल।

भादों (सितम्बर) में बुजुर्ग पशुओं की सेवा किया करते। उनके चीचड़ (गाय -भैंस की ओहड़ी में लगने वाला रंगा का कई पैरों वाला खटमलनूमा जीव) तोड़ते, घी पिलाते और उनकी मालिश करते। पुरुष बाजरा रुखालते एवं स्त्रियां बाड़ी (कपास) चुगती। वृद्ध व्यक्ति बाण (रस्सी) बांटते।  स्त्रियां, घर-आंगन की लिपाई करती। गांव-गांव कुश्तियों के दंगल होते। मल्ल जोर-आजमाइश करते।

आसौज (अक्तूबर) में हाळी (हल जोतने वाला) जौ-चणे की बिजाई करते। बाजरे की लामणी करते, उसके सूए (शंकू आकार में खड़ी की गई पूलियों का समूह) बनाकर सुखाते। सूखने के बाद उसको चूंटते। तिपाये (तीन पैरों की चौकी) की मदद से ईख बांधते। ये तमाम कार्य स्त्री-पुरुष मिलकर करते। इस महीने कपास का जोर होता था। स्त्रियां सुबह-सुबह घर से निकलती और शाम को पांड (ग_ड़) बांधकर लौटती। बाज्जी-बाज्जी (कोई-कोई) औरत पूरे दिन में दस धड़ी तक (एक धड़ी पांच सेर भार होता है) कपास चुग लेती है। अश्विन के प्रथम नवरात्र के दिन गोबर तथा मिट्टी के सितारों  की सहायता से स्त्री के रूप में दीवार पर सांझी (संध्या की देवी) चीती जाती। इसे मिट्टी के रंगीन आभूषणों से सजाया जाता। रात के समय स्त्रियां सांझी के गीत गाती तथा भोग लगाकर इसकी पूजा करती। दशहरे की रात्रि को बंगाल की दुर्गा के समान इसे जल में विसर्जित कर दिया जाता। दशहरे पर सब शक्कर-चावल बनाते।

कार्तिक (नवंबर) में खेत की बहाई (जुताई) करके साढू की बुवाई  (बिजाई) की जाती है। साढू की बुवाई से निपटकर स्त्री-पुरुष गंगा-स्नान के लिए गढ़  मुक्तेश्वर (उ.प्र.) जाया करते। इससे पूर्व बाजरा निकालते व धान झाड़ते। नए शस्य से लक्ष्मी पूजन करते। हर्ष विभोर होकर दीवाली के लिए जलाते एवं इन शब्दों में ईश्वर का आभार प्रकट करते समय दीवाली कार्तिक धान, सुख राक्खै भगवान। अर्थात् अगली दीवाली तक परमात्म सुखी रखें। कुंवारी कन्याएं एवं गभरेटी छोहरी (युवती) इस माह सूर्यादय से पूर्व तालाबों  में स्नान करना न भूलती। स्नानोपरांत पथवारी माता के भक्तिपूर्ण गीत गाने की परंपरा भी सर्वत्र थी। दे-ऊठणी ग्यास (देवोत्थामी  एकादशी जो कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन, रात के समय मनाई जाती है) के बाद ब्याह-वाणे (शादी-विवाह) शुरू हो जाते। इस माह खेतों में कातकू (कार्तिक मास में पकने वाले) कचरोंं और कचरियों की निराली महक उठा करती। इस महक के वशीभूत  दूर-दूर के गीदड़ कचरे खाने के लिए खेतों में एकत्र हो जाया करते। वे पीली कचरी और वे कातकू कचरे देह की अनेक बीमारियों को दूर किया करते। झड़बेरी के लाल बेर भी कार्तिक में पका करते। ग्रामीण स्त्रियां इन बेरों की झोळी (वस्त्र को मोड़ कर बनाई गई थैली) भर-भरकर लाया करती। बुजुर्ग लोग पौड़ चेड़ते एवं पशुओं की खातिर पाल्ला (झाड़ के सूखे पत्ते) झाड़कर लाते। इस चारे को पशु चाव से खाया करते।

मंगसिर (दिसंबर) में कोल्हू (गन्ने का रस निकालने का यंत्र) जुड़ जाते जो फागुन तक देहमार (निरंतर) चलते। किसानों की सहयोगी जातियों के पोह-बारा हो जाते। झोका कोल्हू में ईंधन झोंकता। जोटियां जोट भरता। गुठिया कोल्हू में गन्ने लगाता। पकावा गुड़ पकाता। चर्मकार मांजी बनाता। लुहार कोल्हू को सुचारू रखता। बढ़ई लकड़ी की पाट डालता। झीमर पानी  ढोता। जोगी सारंगी पर किस्से सुनाते। और भी न जाने क्या-क्या होता। तात्ते (ताजा, गर्म) गुड़ की महक गांव के चारों ओर फैल जाती। कोल्हू चलाना सरल न था। उस काम में लाख जोखिम थे। परंतु बुजुर्ग न जाने किस मिट्टी के बने थे। वे संकट की घड़ी में और अधिक मुस्तैदी से काम करते थे। स्त्रियां मंगसिर में सुरातिया (8-10 औरतों के द्वारा पूरी रात चरखा कातने का संकल्प लिया जाना) और धूपिया (सारा दिन चरखा कातने की प्रतिज्ञा) लेती। कमेरी औरत रातभर में सेर सवा सेर मोटा सूत आसानी से कात लिया करती। कताई का यह काम दीये अथवा ढिबरी की रोशनी में किया जाता था। चरखा चलता करने के बाद उसे रोकने की मनाही थी। सौड़ भरवाने  और उनमें धागे डालने का काम भी इसी माह निपटाया जाता। स्त्रियां बथुआ, मेथी और सरसों के हरे साग सुखा-सुखाकर झाकरों (बड़े मटकों) में भर लेती ताकि गर्मियों में साग की किल्लत न हो।  बुजुर्ग रात-रात भर रहट और चड़स चलाकर खेतों को सींचते।

पोह (जनवरी) का पाळा (ठंड के कारण खुले में पानी जम जाना) पड़ता तो भी बुजुर्ग दिन-रात का भेद भूलकर खेतों में जुटे रहते। कहावत है कि ‘पोह मैं सींह के बी कान हल्लै।’ (पौष में शेर के भी कान हिलते हैं।) उन दिनों  का जाड़ा बड़ा मारू होता था, लेकिन हमारे हलधरों ने उसकी रत्तीभर परवाह नहीं की। वे एक लंगोटी में जाड़ा गुजार देते थे। इस महीने किसान फसलों और पशुओं को पाळे से बचाने के जुगत करते। फंूस जलाकर आग तापते। छिकमां (जी चाहे उतना) दूध पीते। गुड़ के उबलते कड़ाहों में आलू एवं गाजर भूनकर खाते। स्त्रियां चरखा परुंधती (चलाती)। संकरांत (मकर संक्रांति) के दिन तमाम ग्रामीण चंडाल बाल जरूर धोते (निश्चित रूप से स्नान जरूर करते)। नई बहुएं बडेरियों और बड़ों की मान-तान (आदर-सम्मान) करती। शुद्ध घी का हलवा बनता।

माह (फरवरी) में जाड़ा कम हो जाता। इससे जुड़ी एक कहावत गांवों में सदियों से चली आती है।

मंगसिर जाड्डा ढंगसिर।
पोह जाड्डे का छोह।
माह जाड्डै नै खा।

अर्थात-मंगसिर में जाड़ा शुरु होता है, पौष में यौवन पर और माघ में खत्म हो जाता है। माह में गुड़ पकाने पर जोर रहता है। किसान राब (औटाकर गाढ़ा किया हुआ गन्ने का रस) डालकर खांड (सफेद रंग का बूरा) निकालते। खेत-क्यार के बाकी धंधे साथ-साथ चलते रहते।

फागुन (मार्च) में फाग खेलकर चने की कटाई शुरू करते। सरसों भी इसी माह काटी और झाड़ी जाती। गाभरु छोहरे (जवान युवक) आळ (कुश्ती का अभ्यास) करते। बुजुर्ग उन्हें घी-दूध पिलाते। गांव-गांव बैलों की दौड़ होती। स्त्रियां बिटोड़ों की मंंगरी (दो सिरों के बीच की जगह) भरतीं। पुरुष नेही (भूमि में गड़ी चारा काटने की लकड़ी) के गंडासे से सानी काटते।  किसानों के साथ-साथ छत्तीस-जात के लोग बारहों महीने अपना-अपना धंधा पुगाया करते। सुनार, कुम्हार, शिल्पकार, वास्तुकार, मूर्तिकार, दस्तकार, रथकार, चर्मकार,  कर्मा, बढ़ई, जुलाहा, ठठेरा, दर्जी, रंगरेज, लीलगर, धोबी, धुनिया, नाई, तेली, झीमर आदि सब ऋतुओं के अनुकूल अपने-अपने  काम धंधों में व्यस्त रहा करते। बनिये बणज-बट्टे का काम किया करते। कहावत भी है-‘बणज करैगा बाणिया, ओर करैंधे रीस।’ (व्यापार के लिए  जन्मजात व्यापारिक गुण जरूरी है)।

तीस-बत्तीस साल पहले तक हरियाणा के गांवों में ‘घोडयां राज, बुलधां नाज’ एवं ‘जिसने दूध बेच दिया, समझो पूत बेच दिया’ सरीखी कहावतें ज्यों की त्यों चरितार्थ हुआ करती थी। तब, घोड़े समृद्धि के और बैल अन्न आधिक्य के प्रतीक  समझे जाते थे। बडेरी स्त्रियां ‘दुद्धा नहाओ, पुत्त��ं  फळो’ कहकर नई बहुओं को आशीष दिया करती। दूध बेचना पाप था। घर आए मेहमानों की आवभगत दूध से की जाती थी। आगंतुक को दूध का बड़ा लोटा अथवा ईढ़ी वाला बखोरा भरकर दिया जाता था। घी-बूरा के खाळ (पानी का नाला) बहा करते। विवाह-शादी के अवसर पर सर्वत्र देसी घी बरता जाता था। डालडा कोई जानता तक न था। जच्चा का गूंद (गोंद मिली पंजीरी जो जच्चा को खिलाते हैं) धड़ी (पांच सेर) घी से कम का न डाला जाता था। जिन दिनों कसाल्ले (कष्ट) का काम होता, उन दिनों एक-एक धड़ी घी लोग बैलों को पिला दिया करते। सामान्य घरों में भी घी के बारे (मिट्टी का बना घी डालने का बर्तन)भरे रहा करते। हाळी की रोटियां बेल्ले में रखकर इतना घी डाळा जाया करता कि वे डूब जाती थी। साथ में अधबिलोई दही होती थी। वे ठाठ (आनंद) अब कहां?

खान-पान की तरह पहनावा भी सादा था। पुरुष चमरोधा जूता, ल_े की धोती, चोसी का कुरता, सूती खिंडका (पगड़ी) एवं चादरा (बड़ी चद्दर) धारण करते थे। तमाम वस्त्र सफेद रंग के होते थे। स्त्रियां घाघरा, आंगी, ओढऩी एवं जूती पहनती थी। इसके अलावा वे कुछेक आभूषण पहना करती। लाज रखना और उसे निभाना जानती थीं। पुरुष भी अड़बंध (धोती का लपेटा जो कमर पर बांधा जाता है।) की गांठ ढीली न होने  देते थे। वे ‘घोड़े का तंग अर आदमी अड़बंध’ (घोड़े का तंग और आदमी का कटिवस्त्र कसकर बंधा होना चाहिए) नामक कहावत पर पूरा अमल करते थे। इसीलिए उनकी लाठी की मार बड़े-बड़े सांड-भैंसे भी नहीं सह सकते थे। वे बात के पक्के और जबान के धनी थे। दिन के समय आपस में कितना ही लड़ते-झगड़ते, लेकिन शाम को एक साथ बैठकर हुक्का पीते थे। वे कहा करते-

बैठणा तै भाइयां का चाहे बैर क्यूं ना हो,
चालणा तै राह का चाहे फेर क्यूं न हो,
पीवणा तै दूध का चाहे सेर क्यूं नां हो।।

भ्रातृ-प्रेम, रास्ते का गमन तथा दुग्ध-पान का अपना ही महत्व है। हरियाणा के बुजुर्गों ने चार प्रकार के अमृत गिनाये हैं, जो इस प्रकार है-

एक इमरत बुड्ढया की कही,
एक इमरत दूध अर दही।
एक इमरत भाइया का साथ,
एक इमरत माता का हाथ।।

बुजुर्गों का आदेश, दूध-दही का भोजन, भाइयों का संग और मां का हाथ अमृत तुल्य है। वे उकात (सामथ्र्य) देखकर काम करते थे और ‘आप मरयां सुरग दीक्खै’ (अनुभव के बिना ज्ञान अधूरा है) में यकीन रखते थे। ‘अंतर गाज्जे  तै मंजर बाज्जै’ (आंतरिक उत्साह के बिना कार्य सिद्धि नहीं होती) उनका मूल मंत्र था। परंतु अब  उन जैसे ठसके के व्यक्ति नहीं रहे। उनका-सा धैर्य भी कहीं दिखाई नहीं पड़ता।

आजकल सर्वत्र ‘आज मेरी मंगणी काल्ह मेरा ब्याह’ (उतावलेपन की स्थिति) वाली स्थिति है। मशीनी क्रांति ने ग्राम्यांचलों में भारी उलट-फेर कर दिया है। छत्तीस जाति के तमाम काम-धंधे नष्ट हो गए हैं। खेती-किसानी के पारंपरिक साधन भी अब कहीं नहीं रहे। अब बैलों की घंटियों की जगह ट्रैक्टरों की कर्कश घड़घड़ाहट कानों के परदे फाड़ती है। गोबर से लिपे पुते कच्चे घरों के स्थान पर कंकरीट के एक जैसे मकान खड़े हो गए हैं। पुरानी हवेलियां खंडहर में तबदील हो गई हैं। मंदिरों में शंख की जगह लाउड-स्पीकर बजता है। चौपालोंं में आल्हा की टेक की बजाए ताश खेलने वालों की गालियां सुनाई पड़ती हैं। गांवों में इंसान कम और जातियां ज्यादा हो गई हैं। पहले कण-कण में भगवान विराजते थे, अब सर्वत्र सियासत हावी है। मारधाड़, अपराध और खून-कत्ल दिन-दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रहे हैं। बीड़ी-सिगरेट, अंडा, शराब व मीट गटकने की होड़-सी लग गई है। मोपेड, मोटर साइकिल, मोबाइल, सीडी प्लेयर, डेक, टेपरिकार्डर, टेलीविजन, फिल्मी गानों और डीजे (म्यूजिक सिस्टम) के बिना ग्रामीण युवा एक पल जीवित नहीं रह सकते। पारंपरिक  दातुनों की जगह टूथपेस्ट और दूध पावडरों  ने ले ली है। बीजणे का स्थान कूलर व ए.सी. ने ले लिया है। मटके की बजाए फ्रिज का ठंडा पानी लोगों को ज्यादा सुहाता है। बाजारू वस्तुओं ने ग्रामीण संरचना व संस्कृति को बुरी तरह बिगाड़ दिया है। संयुक्त परिवार प्रथा टूटने के कारण सामूहिक परिवारों का विघटन हो गया है।

शिक्षा, रोजगार और चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में गांववासी शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। ‘उत्तम खेती मद्धम बान, निखद चाकरी भीख निदान’। वाली कहावत उलटी हो गई है। अब खेती की बजाए नौकरी उत्तम हो गई है। हरियाणवी अंचल के गांवों में खेती का तमाम काम प्रवासी मजदूरों के कंधों पर आन टिका है। पुराने हाळी-पाळियों की स्मृति मन में एक अजीब-सी कचोट पैदा करती है। गांवों की गलियां, सड़क, स्कूल सब विकास से कोसों दूर हैं। बड़ी-बड़ी गाडिय़ों के काफिलों में घूमने वाले एवं भाषणों के जरिये विकास के झूठे दावे करने वाले नेताओं ने गांवों का सत्यानाश कर डाला है। मूल्यों से हीन नेताओं की कारस्तानी (चालबाजी) के चलते गांवों और शहरों की जिंदगी में जमीन-आसमान का अंतर हो गया है। इस फर्क को कभी नहीं पाटा जा सकता। वोट के वक्त खीसे निपोरने वाले नेता, काम के वक्त बगले झांकते रहते हैं। किसानों के पास ले-देकर खेती की जमीनें बची थी, अब नेताओं की दाढ़ उसी पर गड़ी है। गांववासियों से कौडिय़ों के दाम जमीन खरीदकर राज्य सरकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भारी मुनाफे पर बेच रही है। धन्य हैें हरियाणा के नेता और धन्य हैं प्रदेश के किसान जो खेती की जमीनों को बिकती देखकर भी तमाशबीन बने हुए हैं।

अपने अतीत को कुचलकर गांव आधुनिकता की दौड़ में जितना आगे बढ़ रहे हैं, उतना ही अधिक महामारियों से ग्रस्त हो रहे हैं। ग्रामीण स्थापत्य के बिगड़ते स्वरूप और भुलाई जा रही धरोहर की किसी को रत्ती भर फिक्र नहीं है। यदि युवा पीढ़ी  को यह नहीं बताया गया कि गांवों की विरासत क्या है और हमारी पहचान के लिए क्यों जरूरी है? तो  हम किस तरह पुरखों की विरासत को संजोकर भावी पीढिय़ों को सौंपेंगे। नई पौध को कौन बताएगा कि भारतमाता कभी ग्रामवासिनी थी। आधुनिकता के पदार्पण से गांवों की तमाम निधियां धीरे-धीरे लुप्त हो रही हैं, जबकि जरूरत उन्हें सहेजने की है। मिसाल के तौर पर गांवों की पुरानी हवेलियां और चौपालों में प्राकृतिक वातानुकूलन की व्यवस्था है। किंतु आजकल के इंजीनियरों की देखरेख में बने भवनों में वह पारंपरिक तकनीक नहीं है।

जबसे उपभोक्ता क्रांति ने गांवों में दस्तक दी है तब से फ्रिज, वाशिंग मशीन, रसोई गैस, हीटर और मिक्सी हरियाणा के हर घर की जरूरत बन गई है। बिलौणी में दूध बिलौने वाली रई (कैर की जड़ से बनी चार फूल वाली मथानी) का नाम नव-वधुएं नहीं जानती। वे बिजली का स्विच दबाकर नए उपकरणों की मदद से मक्खन निकालती हैं। बिजली न हो तो दूध रखा रहता है और वह अक्सर नहीं होती। रोटी भी अब मिट्टी के चूल्हे की बजाए गैस के चूल्हे पर बनती है। मिट्टी की बरोल्ली (छोटी हंडिया) में हारा (मिट्टी से बनी अंगारधानी) लगाकर रांधा (पकाना) जाने वाला साग अब कुकर में बनता है जो दूध सदियों से कढ़ावणी (दूध उबालने के लिए बनी मिट्टी की हंडिया) के जरिये हारे में गर्म होता आया था, वह अब पतीले में गैस पर उबाला जाता है। गैस ने भोजन की गंध और गुणवत्ता दोनों छीन ली हैं। छ्योंक (छोंकने की क्रिया) के लिए चीघसा (मिट्टी का छोटा दीया) नहीं बरता जाता, अब फ्राईपेन में  तड़का लगता है। छाछ भी झाब-झाबरोली (मिट्टी की छोटी मटकी) की बजाए स्टील के डोलू में  डाला जाता है।

सब कुछ बदल गया। न वे खाऊ (अधिक खाने वाला) लोग हैं न वह देसी खाज्जा (भोजन) है। हाथी जितना मलीद्दा (अधिक घी का चूरमा) एक खड़ (बार) में खाने वाले लोग इन्हीं गांवों में देखे-सुने गए हैं। हाथी एक ���ार में सवा मण (पचास किलो) मलीद्दा खाता है। हमारे बाप-दादा एक बार में सेर घी पीकर उसे असानी से पचा लिया करते थे। समूचा भैंस का दूध एक बार में पीने वाले भी बहुत हुए हैं। इसीलिए बुजुर्गों का डील-डौल बड़ा होता था। मन डेढ़ मन आम एक-एक व्यक्ति चूस लेता था। उनका बल-पौरुष भी अप्रतिम था। अठारह-अठारह घड़ी की चकली और भारी-भरकम मुगदर (कसरत के समय उठाया जाने वाला भार) वे हंसी-हंसी खेल में उठा लिया करते।

उन दिनों सब गोबर की खाद बरतते थे। देसी बीज होता था, परन्तु अब रासायनिक उर्वरकों और जहरीले रसायनों के अत्यधिक एवं असंतुलित प्रयोग के कारण जमीन की उर्वरा शक्ति का विनाश हो गया है। अन्न, अन्न न रहकर जहर हो गया है। अन्न प्रदूषण से शरीर, जल प्रदूषण से प्राण, भू-प्रदूषण से धर्म, वायु प्रदूषण से धैर्य और पर्यावरण प्रदूषण से धारणा की शक्ति नष्ट हो गई है। औद्योगिकीकरण और शहरीकरण की वर्तमान नीति के कारण आकाश, पृथ्वी, जल, वायु और प्रकृति भयंकर रूप से प्रदूषित हो  गया है। रही-सही कमी प्राकृतिक आपदाओं और वैश्वीकरण की चुनौतियोंं ने पूरी कर दी है। बड़ी जोत वाले कुछेक धनी किसानों को  छोड़कर ज्यादातर किसान फटेहाल और लाचार हैं। कभी सूखा, कभी ओळा, कभी आंधी, कभी कीड़ों का प्रकोप और कभी नकली खाद-बीज। तमाम कहर किसानों पर टूटता है। इन सब कारणों से किसान की रीढ़ टूट गई है। न यह तीन में रहा, न तेरह में। जो खेती डेढ़ पीढ़ी पूर्व तक किसानों की रग-रग में बसी हुई थी। उससे उनका पूरी तरह मोहभंग हो गया है। खेती सिकुड़ने से गांवों के तालाबों, जलाशयों, कुओं और बावडिय़ों का भी बेड़ा गरक हो गया है। इनकी सुध किसान ही लेते थे।

आज भी हरियाणवी अंचल के असंख्य गांव अविद्या से ग्रस्त हैं, संस्कृति से वंचित हैं तथा परावलम्बन से परेशान हैं। चरित्र, नैतिकता, सादगी और सात्विकता का गांवों से लोप हो गया है। शहरों की अच्छाइयों को गांववासियों ने सूंघा तक नहीं, किंतु वहां की बुराइयों को कसकर गले लगा लिया है। कभी शहरी लोग गांववासियों की लल्लो-चप्पो करने को विवश थे, परन्तु आज गांववासी नगरजनों की जूतियां चाट रहे हैं। एक समय था जब गांवों में शस्य की देवी का वास था। शील, सबर, संतोष, सम्पन्नता और शिष्टाचार के साथ-साथ गांवों में सरलता, ईमान और आपसी आत्मीयता भी फूस की झोपड़ी में महलों का-सा सुख था। प्रत्येक दृष्टि से गांव आत्मनिर्भर थे। किसी भी चीज के लिए गांवों को बाहरी जगत का मुंह न ताकना पड़ता था। हल, हंसिया, कुदाल से लेकर बैलगाड़ी तक गांवों  में बनती थी। तमाम शिल्पी और कारीगर गांवों में बसते थे। कपड़ा-लत्ता, कड़ी-शहतीर, गुड़-खांड, घी-दूध, खल-बिनौला सब गांवों में मौजूद था। कपास लोढने की चरखी, सूत कातने का चरखा, कपड़ा बुनने का राछ (जुलाहे का औजार), तेल निकालने  का कोल्हू, रूई पीनने की तांत (बकरे की अंतड़ी से बनी धागे जैसी वस्तु जिससे तांतिया रूई पीनता है), लोहे के औजार बनाने का आरण, सोने-चांदी के गहने बनाने में काम आने वाला अंगीठा, लकड़ी चीरने का आरा, कपड़ा रंगने के ठप्पे, खांड निकालने की मशीन, कुओं से पानी निकालने का चड़स, खेतों में पानी लगाने का रहट आदि सभी गांवों में बनते थे। गांवों में सैंकड़ों तरह के हुनर थे, अरबों रुपया  स्वाह करके जो जहरीली चीनी मिल से निकलती है, उससे लाख दर्जे स्वादिष्ट गुड़ कोल्हुओं में  सर्वत्र देखने को मिलता था। खैंची की जो खांड तब बनती थी, वह लाख सिर पटकने पर नहीं बन सकती। कहां चली गई वे खंडसाळ?

शहरी लोगों ने हमारी ठेठ चीजों  की नकल करके उनकी प्रतिकृति बाजार में सजाकर रख दी। ग्रामवासी बिना हाथ-पैर हिलाए बनी बनाई चीजें शहर से खरीदने लगे। गांवों के हुनर नष्ट हो गए। प्रतिभा पलायन कर गई। कोल्हू कबाड़ी के यहां चले गए। ऊखल-मूसल की जगह धान-गेहूं कूटने-पीसने के लिए राइस  मिल खुल गए। अब कोई स्त्री ऊखल में गेहूं कूटकर लीली (छिलका) नहीं उतारती। न ही हाथ वाली चक्की से आटा पीसती है। मिल के आटे में वह गंध और सोंधी सुवास कहां? देखते-देखते गांवों के तमाम शिल्प व संसाधन नष्ट हो गए। पहले सारी चीजें गांवों से बाहर जाती थीं, अब उससे कई गुना चीजें शहरों से गांव आती हैं। अन्न, वस्त्र, घर तक के लिए गांव वासी पराश्रित हो गए। पारिवारिक सांझेदारी और सामूहिकता के बूते पर जो काम घड़ी-दो घड़ी में निपट जाता है। वह अब  प्राय: लटका ही रहता है। बांटकर काम करने की प्रथा बुजुर्गों के साथ ही रुखसत हो गई।

हमारे बड़े बुजुर्ग प्रकृति के साथ हिल-मिलकर रहते थे। उसका नुक्सान करने की बजाए उसका पोषण करते थे। छोटे से छोटे गांव में आठ-दस बाग एवं पांच-सात बगीचियां जरूर होती थीं। आडू, आम, अनार, अमरूद, जामुन, बेर और केला सरीखे फलों की बहुतायत होती थी। हमारे बाप-दादा वनों एवं वृक्षों से अत्यधिक स्नेह करते थे। तब, प्रदेश में कदम-कदम पर भारी भरकम वृक्ष थे। सर्वत्र नीम, बड़, पीपल, इमली, कदंब, कैम, रोहिंडा, केदू,   गूलर, लेहसवा, महुआ, ढाक, कचनार, बकायन, जांट, खैर, कीकर, शीशम, शहतूत और जामन आदि के दरखतों  की भरमार थीं। कोई घर ऐसा न था जिसके आंगन में कोई न कोई पेड़ न हो। परंतु आज इनमें से ज्यादातर पेड़ लुप्त हो गए हैं। आज की पीढ़ी को वृक्षों से कोई लेना-देना नहीं है। यदि इन उपयोगी वृक्षें को संरक्षण नहीं दिया गया तो वे धरती से सदा सर्वदा के लिए ओझल हो जाएंगे।

वनोंं और वृक्षों के अभाव में जंगली जानवरों और पक्षियों की शामत  आ गई है। गीदड़, लोमड़ी, खरगोश, गोह, झाया, नेवला, सांप, गिलहरी और बिज्जू सरीखे जानवर खेतों में नित्य दिखाई पड़ते थे। किंतु अब वे भी गिनती के रह गए हैं।  सैंकड़ों प्रकार के रंग-बिरंगे पक्षी वृक्षों पर चहका करते, परन्तु अब वे भी इक्का-दुक्का देखने में  आते हैं, गिद्ध, चील, बाज, उल्लू और नीलकंठ आदि पूरी तरह लुप्त हो गए हैं। कछुआ तक  दिखाई नहीं पड़ता। तीसेक वर्ष पूर्व तक एक-एक तालाब में सैंकड़ों कछुए रहते थे। मेंढक भी नदारद हो गया है। काला तीतर देखने को भी नहीं है। खेतों  में  एक-एक हजार की संख्या में हिरणों के झुंड कलाबाजियां खाते फिरा करते, किंतु आज एक भी मृग बाकी नहीं है।

ऋतु, मौसम, हवा, पानी एवं प्रकृति संबंधी अनगिनत लोकोक्तियां बूढ़ों को जबानी याद थी। एक से एक कथक्कड़ होते  थे। दादी-नानियों की कहानियों और गीतों का कहीं अंत न था। हरियाणवी अंचल के किस्सागो यहां की सांस्कृतिक अस्मिता के सधे प्रहरी थे। उनकी किस्सागोई शुरू  होने के बाद महीनों चलती थी। हरियाणा के जोगी सारंगी पर वीर रस के जो किस्से सुनाते थे, उन्हें सुनकर भीरू से भीरू व्यक्ति का खून भी नर्तन कर उठता था। अठारह सौ सतावन की जन क्रांति के अनेक गीत गांवों में आज भी गाए जाते हैं। इन गीतों में तत्कालीन समाज की उथल-पुथल एवं पीड़ा साफ सुनायी देती थी। लोकगीतों, किस्सों, कहानियोंं और किवदंतियों में अतीत की घटनाओं के असंख्य मार्मिक प्रसंग शामिल हैं, जो भुलाए नहीं जा सकते। बुजुर्गों को यह सारी सामग्री कंठस्थ थी। किंतु अब यह निधि विस्मृति के गर्भ में चली गई है।  जनपदीय बोलियों के रूप में बहता हुआ यह जन इतिहास या तो नष्ट हो चुका है या नष्ट होने वाला है। इतिहासकारों की अनभिज्ञता और उपेक्षा के कारण लोक कंठ में विद्यमान एवं महामूल्यवान सम्पति का इस्तेमाल नहीं किया गया। अब न साका है, न वांड़ा, न आल्हा है, न बारहमासिया। चैती-कजरी और फगुआ को कोई नहीं गाता। भजनोपदेशकों और सांगियों के दिन भी लद गए हैं। नकलचियों, मखौलियों, मजाकियों और हंसी-ठठा करने वालों की दुनिया भी सिमट गई है। बांसुरी, अलगोज्जा (एक तरह की बांसुरी), खड़ताल, दुतारी, झांझ (एक तरह का बाजा), डफ और मंजीरा (एक वाद्य यंत्र) बजाने वाले भी नहीं रहे। कितनी ही लोककलाएं और थीं, किंतु आज सबकी सब मृतप्राय हैं। पोत्थी-पतरा (धार्मिक पुस्तकें) बांचने वाले, टोक (बुरी दृष्टि से देखने का भाव) उतारने वाले, कनपेड (कानों के नीचे होने वाली सूजन) झाड़ने वाले, कान बींधने वाले और झाड़ा-झपटा (झाड़े के प्रभाव से रोग का निदान करना) वाले लोग भी कभी के  आए-गए हो चुके हैं। ऐसे-ऐसे सूंघे (गंध परखने वाले) थे, जो व्यक्ति की पैड़ (पदचिन्ह) सूंघ कर उसका भेद निकाल लिया करते। जमीन सूंघ कर धरती के अंदर डेढ़ सौ फुट की गहराई तक स्थित मीठे जल की सोर (छेद) बता दिया करते। नाड़ी देखकर रोग का हाल बताने वाले वैद (वैद्य) बीमारी को ताड़ लिया करते। कलाओं और विद्याओं का कहीं कोई ओर-छोर न रहा। परन्तु सबकी देखती आंखों से वह जखीरा लुट गया।

पंच परंपरा और पंच परमेश्वर के साथ पंचों का प्याला (हुक्का) भी गांवों से रुठ गया है। प्रदेश के गांवों में आज भी बड़े-बूढ़ों के मुंह से यह कहबत (कहावत) सुनी जा सकती है कि-‘पंच जडै परमेश्वर’। अर्थात् जहां पंच है, वहां परमेश्वर है।

आज गांव पूरी तरह दलबंदी और गोलबंदी के  शिकार हो गए हैं। गांववासी एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए घटिया से घटिया तरीके बरतते हैं। पंचायती, विधानसभाई और संसदीय चुनावों ने गांवों की सामाजिक एवं सांस्कृतिक जिंदगी में जहर घोल दिया है। पूर्वजों की शालीन परंपराओं और मान्यताओं को धता बता दिया गया है। बहू-बेटियों की आबरू तक खतरे में पड़ गई है। अपनी कन्याओं को हम माता के गर्भ में मार रहे हैं और घर की खातिर बहू दूसरे राज्यों से खरीदकर ला रहे हैं। दुनिया में इससे बड़ा पाप दूसरा नहीं है।

टीवी चैनलों ने ग्रामीण बच्चों को स्वस्थ दिनचर्या से दूर कर दिया है। गांव के बच्चे सुबह खेतों में आकर व्यायाम/वर्जिस के बाद कुंओं पर स्नान करते थे। पशुओं को पानी पिलाने ले जाते थे। छुट्टी वाले दिन पशुओं को खेतों में चराने ले जाते थे। भादों के महीने में सुबह चार बजे खाट छोड़ कर मोर के चंदे ढूंढने जाया करते। इस काम की खातिर बच्चे संध्या के समय खेतों में खड़े दरख्तों पर मोर बिठाकर आया करते और अगली सुबह आंख खुलते ही चंदे चुगने के लिए दौड़ा करते। जो बच्चा जितने ज्यादा चंदे लाता, वह उतना ही दक्ष कहलाता। सर्दियों में ग्रामीण बच्चे कुतिया के पिल्लों (छोटे बच्चों) एवं कुतिया के लिए मलोट्टा (भोजन) एकत्र किया करते। वे बाल्टी लेकर घर-घर मलोट्टा मांगते और कहते-

घालियो मलोट्टा,
थारा भरै गीहवां का कोठा।
कोठे में छालणी,
थारे बहु आवै चालणी।

‘कुतिया के लिए भोजन दो, तुम्हारा गेहूं का कोठार भरा रहेगा। कोठार में छालणी (छलनी) रखी है, सो तुम्हारे घर कमेरी बहुत आयेगी’ साल के बारह महीने बच्चे घर व खेत के विविध कार्यों में मस्त रहा करते। कबड्डी के अलावा कां-डंडा, खुळिया, पिठू, गुल्ली-डंडा, तीतर-पंखा, बिज्झो बांदरी, अंटा और कंकड़-कौड़ी आदि खेलते। उधम मचाते, नाचते-गाते और न जाने क्या-क्या करते। किंतु अब उनकी तमाम अठखेलियां बुद्धू-बक्से तक सिमट कर रह गई हैं। ग्राम्य बालिकाएं भी अब झुरणी-झुरणी, चुंगल-ज्यारी, टुग्गां-टुग्गां, सत्ते-सत्ते (सात कंकड़) और पेआं-पेआं सरीखे खेल भूल गई हैं, वे न गोबर बटोलती हैं, न बगड़ बुहारती हैं। टीवी पर जो देखती हैं, उसी का अनुसरण करती हैं।

अतीत के हरियाणा में इन तमाम समृद्ध परंपराओं के अलावा भी बहुत कुछ था। इसीलिए इसे ‘देस्सां में देस हरियाणा, जित दूध-दही का खाणा’ वाले देश का रुतबा मिला। दूध आज भी है, पर नई तांदी (युवा पीढ़ी) आग धूम्मा (भक्ष्य-अभक्ष्य) खाने में विश्वास रखती है व अहरा-पहरा (अंट-शंट) बोलने में बड़ाई समझती है। बुजुर्गों की स्थिति ‘इंग्घै कूवा, ऊंग्घै झेरा’ (दुविधापूर्ण स्थिति) वाली है। वे आंखों पर ठीकरी रखकर चुपचाप कोने में पड़े हैं। रेख में मेख लग गई है। अर्थात्-सौभाग्य दुर्भाग्य में बदल गया है। रेह-रेह माट्टी (मिट्टी पलीद होना) होने में कोई कसर बाकी नहीं है, बस ऊंट-मटील्ला (बस्ती उजड़ना) होना शेष है।

पुरुखों ने जिन श्रम भुजबल से,
ऐसी लिखी कहानी।
चप्पे-चप्पे पर स्वदेश के,
अंकित है लासानी।
किंतु दुख की बात,
जिनसे है जग का भोजन-पानी।
सिमट रही है। आज अंजरि में,
उनकी धरा-किसानी।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 33 से 40
 

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