राजेन्द्र बड़गूजर – हरियाणा का लोक साहित्य : पचास साल

लोकधारा


हरियाणा का लोक साहित्य एवं सांग परम्परा इस मायने में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं कि यह मनोरंजन एवं  सामाजिक जीवन  की उठा-पटक एवं संघर्ष का दिग्दर्शन कराते हैं, वहीं यह विमर्श के भी नए आयाम खोलते हैं।

हरियाणवी लोकसाहित्य में  ऐसे अनेक लोक कवि हैं जो हरियाणा के पुनर्गठन यानी नवम्बर 1966 से पहले बहुत पहले काल के ग्रास में समा गए, परन्तु उनकी पुस्तकों का संपादन 2015-16 में हो रहा है। 1966 के बाद धुरंधर लोक कवि हैं जिनकी रागणियों को बड़े शौक से गाया जाता है।

हरियाणा के लोक साहित्य के क्षेत्र में लखमीचंद को हरियाणा का सूर्यकवि के रूप में स्थापित करने की कोशिश की गई।   उनके समकालीन लोक-कवि मुंशीराम जांडली ने हरियाणा के जनजीवन का जैसा चित्र मुंशीराम जांडली ने खींचा हैं, वैसा कोई नहीं खींच पाया। वर्ण-जाति का खंडन, किसान मजदूर की व्यथा, आज़ादी का जश्न, गांधी, सुभाष बोस और भगत सिंह की शहादत और विशेष रूप से 1947 के भारत-पाक बंटवारे को लेकर हिन्दू-मुसलमान पलायन के हृदय-विदारक दृश्य इनकी रागनियों के विषय बने हैं।

सोनीपत के सुसाणा में जन्मे मांगेराम कई मायनों में एक बेहतरीन सांगी स्थापित होते हैं। उन्होंने कई भावनात्मक सांगों की रचना की। वे कथा में भावुक दृश्यों के लिए प्रसिद्ध थे। उनके शिष्य जयनारायण सांगी और बाद में श्यौनाथ त्यागी और मो. शरीफ ने उनकी परम्परा को जिंदा रखा। ‘पिंगला भरतरी’, ‘जयमल फत्ता’, ‘गोपीचंद’, ‘शकुुंतला-दुष्यंत’, ‘कृष्ण-सुदामा’, ‘अजीतसिंह-राजबाला’, ‘वीर हकीकत राय’, ‘रूप-बसंत’ आदि इनके ख्याति प्राप्त सांग है। ‘पिंगला-भरतरी’ की रागणी जब विक्रम अपने भाई को भाभी की शिकायत लगाता है तो लोगों को रोने पर विवश कर देती हैं- ‘भाई रै मेरे लाड़ करणिया मरगे।’ रागणी की चारों कली एक बालक का रूदन प्रस्तुत करती है।

हरियाणा के निर्माण  के बाद यदि किसी कवि को हरियाणा का प्रतिनिधि लोककवि कहा जाए तो वे हैं महाशय दयाचंद मायना। महाशय दयाचंद मायना का जीवनकाल 1915 से 1993 तक का रहा। वे लगभग छह साल फौज में भी रहे। उनके किस्सों और फुटकल रागनियों में  जाति-पांति, किसान-मजदूर का यथार्थ, दलित दमित वर्गों की आवाज़, स्त्री का स्वाभिमान, अंतर्जातीय विवाह, युद्धों में हरियाणा की भूमिका, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और बनता-बिगड़ता हरियाणा का सच्चा खाका खींचा। उनकी कई रागनियां तो क्लासिकल लोकगीतों के रूप में गाई जाती हैं। उनके 21 किस्सों में से ‘पूर्णिमा-प्रकाश’, ‘नीलम-पुखराज’, ‘नेताजी सुभाषचंद्र बोस’, ‘ब्रिगेडियर होशियार सिंह’, ‘मायावती-मास्टर’, ‘वीर हकीकत राय’, ‘कवि कालिदास’, ‘सरवर नीर’, ‘राजा कारक सावलदे’, ‘अंजना-पवन’, ‘देवर भाभी’ आदि अत्यधिक सुप्रसिद्ध हुए। वे  को सचेत करते हैं-

माड़ी कार बुरी करणी आंख्यां की स्याहमी आ ज्यागी।
ये गरीब सताए ज्यांगे तै, फेर गुलामी आ ज्यागी।

सांगी धनपत सिंह निंदाणा हरियाणा के एक अत्यधिक लोकप्रिय सांगी हुए और सन 1979 तक सांग और लोकसंगीत का झंडा बुलंद रखा। ‘लीलो-चमन’ सांग उनका प्रतिनिधि सांग है।  उनके काच्चे श्याम और ठहरो श्याम दो सुप्रसिद्ध शिष्य हुए। इसके अतिरिक्त उन्होंने ‘रूप बंसत’, ‘अमरसिंह राठौर’, ‘हीर रांझा’, ‘गोपीचंद’, ‘हीरामल जमाल’, ‘जानी चोर’ आदि अनेक सुप्रसिद्ध सांगों की रचना भी की। धनपत के गुरु का नाम जमुआ मीर था और धनपत सिंह निंदाणा के गुरुभाई देसराज के शिष्य देईचंद ने भी कई बेहतरीन सांगों का सृजन किया। उनका ‘राजा हरिश्चंद्र’, ‘गजना-शाही मनियारा’, ‘नौटंकी’, ‘सत्यवती’, ‘हीर रांझा’, ‘विषकन्या’, ‘चंदना’, ‘चम्पकलता रणधीर’, ‘ऊखाँ’ ‘चंद्रकला’, ‘मदनपाल-चदं्रप्रभा’, ‘चापसिंह-सोमवती’ आदि सांग विशेष उल्लेखनीय हैं। रागनी के माध्यम से परिस्थिति का यथार्थ चित्रण करने में सिद्धहस्त देईचंद मौलिक प्रतिभा के धनी थे।

मास्टर नेकीराम ने भी हरियाणा की सांग और लोक साहित्य परम्परा को पर्याप्त समृद्ध किया। रेवाड़ी में जन्मे मा. नेकीराम ने पंद्रह के आसपास सांगों का सृजन किया। और 10 जून 1996 में उनका देहान्त हो गया। ‘कीचक वध’, ‘अमरसिंह राठौर’, ‘राजा रिसाल’, ‘चापसिंह-सोमवती’, ‘भगत पूर्णमल’, ‘राजा भोज भालवती’, ‘हीर रांझा’, ‘सरवर-नीर’ आदि सांगों की रचना की। ये रिवाड़ी और राजस्थान के इलाकों में खासे प्रसिद्ध थे।

दयाचंद मायना की शिष्य परम्परा में दो लोककवि उल्लेखनीय हुए – महाशय छज्जूलाल सिलाना और महाशय गुणपाल कासंडा। महाशय छज्जूलाल ने डॉ. अम्बेडकर पर किस्सा रचा जो अत्यधिक लोकप्रिय हुआ। उन्होंने 9 किस्से और अनेक फुटकल रागणियों की रचना की। ‘वेदवती-रतनसिंह’, ‘धर्मपाल-शांति’, ‘राजा हरिश्चंद्र’, ‘नौटंकी’, ‘शहीद भूपसिंह’, ‘सरवर-नीर’, ‘सर्वजीत-विद्यावती’ आदि इनके अन्य किस्से हैं। इन्होंने शिक्षा पर जोर देते हुए भ्रष्टाचार, कन्या भ्रूण हत्या, नशा, महंगाई आदि आधुनिक समस्याओं पर अनेक मौलिक रागणियों की रचना की। गुणपाल कासंडा ने भी अनेक मौलिक कहानियों पर किस्से घड़े। उनके ‘श्याम और रेखा’, ‘प्रश्न के उत्तर’, ‘कलावती-संतराम’, ‘मा चपला रानी’, ‘अंजना-पवन’, ‘भगत फूलसिंह’, ‘राजा हरिश्चंद्र’ आदि अधिक किस्सों में उनकी आर्यसमाजी चेतना झलकती है। इन्होंने भी कुप्रथाओं और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ सृजन किया है।

सिंघाना गांव में जन्में मा. दयाचंद आज़ाद का सांग परम्परा में अमूल्य योगदान है। उनका जीवन 1925-1995 तक रहा। छंद, मात्रा और तुक-लय की दृष्टि से बेजोड़ इनकी रागनियां आज़ादी के सपनों और बाद की अविश्वसनीय परिस्थितियों का गहरा अनुभव रखती है। वे लिख उठते हैं –

सन उन्नीस सौ सैंतालीस म्हं देश आज़ाद होया तेरा।
आजादी खाटी हो सै के मिट्ठी, ना आज तलक पाट्या बेरा।

उन्होंने भ्रष्ट व्यवस्था पर करारे व्यंग्य किये हैं। उन्होंने बीस से अधिक सांगों का सृजन किया, जिनमें से अनेक सांग 1995 में आई बाढ़ में बह गए। ‘चंद्रप्रभा-मदन कुमार’, ‘चंद्रहास’, ‘फूलसिंह-फूलकली’, ‘सतवंती’, ‘जानी चोर’, ‘फूलसिंह-कृष्णा देवी’, ‘राजपाल-रुक्मा’, ‘सीता का दसोटा’, ‘धर्मजीत और विजय’, ‘भीमसिंह-अर्जुनसिंह’ आदि इनके सुप्रसिद्ध सांग थे। इनकी फुटकल रागनियों में समाज का यथार्थ उभरा है।

चंद्रलाल बादी ने सांग विधा को नये आयाम दिये। इन्होंने सांग की विषय वस्तु में लोक के मनोरंजन और वृति-विशेष को ध्यान में रखकर सांग रचे। कुछ पारंपरिक विषयों पर भी सांग लिखे परन्तु पूर्ण रूप से अपने सांचे में ढालकर। इनके सांगों की विशेषता थी स्त्री-पुरुष का परस्पर संवाद  पूर्ण रूप से चटकीला और मनोरंजन पूर्ण होता था। उनके ‘गजना गोरी’, ‘कमला-मदन’, ‘मोहना देवी’, ‘देवर भाभी’, ‘सत्यवान-सावित्री’, ‘नौबहार-धर्मदेवी’, ‘रूपा रेलू राधेश्याम’ आदि सांगों ने खूब धूम मचाई।

चंदगी भगाणिया भी राय धनपतसिंह निंदाणा’ के शिष्य हुए और उन्होंने भी अनेक सांग शृंगार रस से परिपूर्ण लिखे। ‘छबीली भठियारी’, ‘चंदना’, ‘चांद की कौर’, ‘उत्तमचंद सत्यवती’, ‘शाही लक्कड़हारा’, ‘सेठ ताराचंद’, ‘धु्रव भगत’ और ‘मीराबाई’ उनके प्रसिद्ध सांग है। उनके कई सांग उनकी मौलिक कथाओं पर आधारित है।

कृष्ण चंद्र रोहणा कबीर के पारख संप्रदाय से सम्बन्ध रखते हैं। लम्बे समय तक शिक्षक रहे रोहाणा जी ने ‘सेठ ताराचंद’ और ‘कबीर’ सांग के अतिरिक्त डॉ. अम्बेडकर, जोतिराव फुले और सामाजिक बुराइयों पर अनेक रागनियों का सृजन किया।

इनके अलावा ज्ञानीराम शास्त्री, जगत सिंह नारनौंद, मंगतराम शास्त्री, रामेश्वर गुप्ता, रामधारी खटकड़, रामफल ‘जख्मी’, मुकेश यादव आदि ने भी फुटकल रागनियों के माध्यम से सामाजिक समस्याओं पर कटाक्ष किए हैं। रणबीर सिंह दहिया वर्तमान समय में एक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण लोककवि हैं। उन्होंने मेहरसिंह, बाजे भगत, सफदर, उ$धमसिंह, आंडी सद्दाम और नया दौर आदि बिल्कुल नए विषयों पर सांगों की रचना की। ये आशु लोक कवि हैं और जो कुछ इनके आस-पास घटित होता है, उसकी रागनीमय अभिव्यक्ति करते हैं।

समाज में निचले तबको से आने वाले कुछ लोककवियों ने रागनी को जाति-वर्ण के खिलाफ हथियार के रूप में प्रयोग किया है। दयाचन्द मायना और महाशय छज्जूलाल के ‘राजा हरिश्चंद्र’ सांगों को देखा जा सकता है।

पिछले दो ढाई साल से हरियाणवी लोकगीत परम्परा में एक नया बदलाव आया है और वह हैं इसमें दलित युवाओं की भरमार। उन्होंने डॉ. अम्बेड़कर और बहुजन आन्दोलन को लेकर हरियाणवी रैप तक का प्रचलन किया है।

हरियाणा में ऐसे लोक कवियों को तो आगे कर दिया गया जो वर्ण, जाति, स्वर्ग, नरक, देवी-देवता या भाग्य किस्मत में विश्वास को महान संस्कृति मानते हैं। जबकि ऐसे लोककवियों की कमी नहीं रही है, जिन्होंने पुरातन संस्कृति के नकारात्मक पहलुओं को नकारते हुए बदलाव के लिए लोक साहित्य सृजन किया।हरियाणा में अनेक गायकों ने कला की मर्यादा को तोड़ते हुए रागनियों पर किसी अन्य कवि की छाप लगा-लगा कर गाया है। हरियाणा के लोक साहित्य  के पुनर्पाठ की आवश्यकता है, जिसमें इसका गंभीर मंथन हो।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 63

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *