अमृतराय – प्रेम चंद

जीवनी

प्रेमचंद

कैसा था यह आदमी देखने-सुनने मेें? हड्डियां बहुत चौड़ी। इन हड्डियों पर कभी बहुत काफी मांस था, खासा भरा हुआ, चौड़ा-चकला रजपूती शरीर था वो जिसकी एक फोटो मिलती है मय साफे और घनी-घनी लंबी मूछों के….यह देह सदा नहीं रही, चौदह साल की लंबी पेचिश ने उसे चाट डाला, हड्डियों को नहीं चाट सकी, इसलिए हड्डियों का वह कंकाल अंत तक साथ रहा और गवाही देता रहा उस इमारत की जो किसी जमाने मेें कंकाल पर खड़ी थी, जिसने कभी बड़े बांकपन के साथ बहुत से थपेड़े झेले थे, बीमारी के, गरीबी और परेशानियों के….जो सारी जिंदगी उन्हीं थपेड़ों को झेलते-झेलते घुल गई, ढल गई, टूट गई….

दुबली देह, असाधारण गोरा, तपे सोने का-सा रंग, नीली आंखें, चौड़ी झुर्रियोंदार पेशानी, जिस पर समय ने हल चलाया था। सुंदर सौमय मुखाकृति, थोड़े लंबे बाल अकसर हवा में उड़ते हुए, लंबाई औसत, पहनावा गाढ़े का कुर्ता, मिल की धोती, बंगाली बाबू जैसी नफासत से पहनी हुई नहीं, कुछ उटंग ढंग से पहनी हुई जो घुटनों से सात-आठ इंच नीचे तक ही पहुंचती थी….और पैरों में बकायदा बंददार शू। खासा देहकान, ओल्ड-फैशन्ड आदमी था वो, कपड़े-लत्ते के मामले में नई हवा उसे छूकर भी नहीं गई थी। मुझे नहीं याद है कि मैंने उनके पैरों में कभी चप्पल या पंप जूता देखा हो, सदा वही फीते-वीते से लैस शू जिसे वह इन्तहाई सादगी के साथ, निहायत बेलौस तरीके पर धोती-कुर्ते पर पहनते थे….यह बात सुनकर वह शायद ठठाकर बड़ी देर तक हंसते कि कपड़ा महज तन ढांकने के लिए नहीं, अच्छा दीखने के लिए पहना जाता है।

ऐसी थी उस आदमी की सादगी। सादगी को एक फेटिश की, ढकोसले की शक्ल भी दी जा सकती है और दी जाती है। उसे एक या दूसरी आमदनी का जरिया भी बनाया जाता है और जादू-टोने के देश में जिसमें साईं बाबा लोग धूनी रमाकर और सारे शरीर पर भभूत मलकर करोड़ों लोगों को ठगते फिरते हैं, अति साधारण वेश-भूषा का विशेष महत्व भी है। यहां जो जितना ही औघड़ दिखाई दे, जितना ही ज्यादा भगल बनाए, उसकी उतनी ही पूजा होती है। प्रेमचंद की सादगी में भगल बनाने का जुज नहीं था, वह एक सरल, निश्छल आदमी की सादगी थी, जो इस बात को जानता था कि असल बड़प्पन असाधारण बनने में नहीं, साधारण बनने में होता है…

और यही सादगी प्रेमचंद के जीवन की कुंजी है। रहन-सहन, तौर-तरीके, विचार-व्यवहार, हंसना-बोलना सबमें यही सादगी है। प्रेमचंद ने खुद अपनी जिंदगी को एक जगह पर सपाट समतल मैदान कहा है और किसी विषाद के स्वर में नहीं कहा है कि जैसे उन्हें इस बात का अफसोस हो कि उनकी जिंदगी सपाट, समतल मैदान न होकर और कुछ क्यों न हुई। नहीं, बिल्कुल नहीं, वहां भी उनकी बात का अंदाजा यही है कि इस लैंडस्केप का भी अपना विशेष सौंदर्य है, जो लहलहाती हुई खेती का सौंदर्य है। मैं संतुष्ट हूं।

और सभी बातों की तरह प्रेमचंद के काम करने के तरीके में भी वही सादगी है। अपने लेखन कार्य के लिए उन्हें कभी किसी पैराफर्नेलिया की, लवाजमे की जरूरत नहीं पड़ी, न खास तरह का कमरा, न खास तरह का परिवेश, न खास तरह का कागज, न खास तरह का कलम, न खास तरह की कोई सुख-सुविधा, न किसी खास मूड का इंतजार और न लिखने का कोई खास समय, जो है वही सृजन का समय है। बहुत से बल्कि अधिकांश लेखक होते हैं, जो एक खास वातावरण में, एक खास परिवेश में ही साहित्य-सृष्टि कर सकते हैं, जो अपने कमरे को छोड़कर और कहीं लिख भी नहीं सकते, जो कलम से ही लिख सकते हैं, ब्लू, ब्लैक या रॉयल ब्लयू या हरी या किसी खास रंग की स्याही से ही लिख सकते हैं, चिकने-चिकने लिनने फेस के कागज पर ही लिख सकते हैं और बादामी या खुरदरा कागज देखते ही जिनकी रूह फना हो जाती है, जिनके लिखने का कोई खास समय है, चाहे बहुत सुबह चाहे रात बहुत बीत जाने पर निशीथ वेला में, और रहा मूड…उसके तो सौ में निन्यानवे लोग गुलाम हैं इसलिए उसका तो जिक्र ही बेकार है। प्रेमचंद के साथ ऐसी कोई बात नहीं थी। वह फर्श पर बैठकर, डेस्क सामने रखकर लिखते थे। फाउंटेन पेन से उन्होंने कुछ दस्तखत किए हों तो किए हों वर्ना वह सदा होल्डर से लिखते थे। फुलस्केप कागज या स्कूल वाली सादी कापियां, किसी से भी उनका काम चल जाता था।

सवेरे से लेकर दस-ग्यारह बजे रात तक हर समय उनका मूड रहता था और हर समय वो लिखते थे, तमाम बाधाओं के बीच। घर की बाधाएं और मिलने-जुलने वालों की बाधाएं। मगर इन सबसे उनके काम में कोई विघ्न न पड़ता था। मिलने के लिए कोई सज्जन आए तो कलम उठाकर रख दिया गया और फिर उनसे खूब दिल खोलकर जी लगाकर बातें हो रही हैं, कहकहे लगाए जा रहे हैं और उधर उनकी पीठ फिरी नहीं कि कलम फिर हाथ में आ गया और चल निकला जैसे कोई बात ही न हुई, न कोई आया न गया, न विचारों का सूत्र टूटा न भावों का प्रवाह खंडित हुआ…

प्रेमचंद को कभी ऐसा घर मयस्सर न हुआ, जिसमें सबसे अलग उनके लिखने का कोई एक शांत कमरा हो, जहां से कुछ फूल-पत्ती, कुछ हरियाली नजर आती हो और जहां कोई उनके काम में खलल न डाले। लिहाजा घर के शोर-शराबे से, बच्चों की धमाचौकड़ी, उठा-पटक से उन्हें कतई राहत न मिल पाती थी-पता नहीं बाद में उनको उस चीज की तलाश भी रह गयी हो या नहीं, शायद नहीं, मगर उस सबसे राहत मिले या न मिले, वो थे कि अबाध रूप से अपना काम करते चले जाते थे, वैसे ही जैसे नदी अपने प्रवाह में न जाने कितने रोड़ों-पत्थरों को  बहा ले जाती है। मुझे याद है, हम लोग खास उनके कमरे में उनके सर पर सवार होकर ऊधम करते थे मगर मुझे नहीं याद कि उन्होंने एक मर्तबा भी हम लोगों को कमरे से बाहर भगाया हो। जिंदगी के धौल-धप्पे में काम करने की यह आदत उनके अंदर जन्मजात थी या खुद जिंदगी ने मार-मारकर सिखा दी, कहना मुश्किल है। शायद दोनों ही बातें रही हों, मगर इसमें कोई शक नहीं कि इसमें उनकी जिंदगी का, जिंदगी के हालात का भी बहुत बड़ा हाथ था। नखरे (और यह शब्द मैं किसी बुरे अर्थ में नहीं, छोटी-मोटी सनक या मनमौजीपन के ही अर्थ में इस्तेमाल कर रहा हूं) वहीं चल सकते हैं जहां कोई उनको उठाये और कोई उनको उठा तभी सकता है, जबकि वो इस हालत में हो। जाहिर है कि प्रेमचंद कभी इस हालत में नहीं रहे। उनकी जिंदगी की मीन सपाट और समतल जरूर थी, मगर  बलुई थी, कंकरीली थी, उसमें झाड़-झंखाड़ों की कमी नहीं थी। मगर कहीं प्रेमचंद इन नाजरबरदारियों पर आ जाते तो शायद एक पंक्ति भी न लिख पाते। एक-एक पंक्ति लिखने के लिए, रस की एक-एक पतली धार बहाने के लिए उन्हें फरहाद की तरह मुसीबतों के पहाड़ काटने पड़े हैं और इसी में उस आदमी की सच्ची महानता है। यह गौर करने की बात है कि प्रेम चंद अपने-आपको कलम का मजदूर कहते थे और कहते थे कि जिस तरह किसान हाथ में फावड़ा और कुदाल पकड़ता है उसी तरह मैं कलम पकड़ता हूं।

कहने में यह बात अजीब जरूर मालूम होती है, मगर सच है कि प्रेमचंद की ये दर्जनों अमर कलाकृतियां लिखी उसी तरह गयी हैं उन्हीें छोटी-बड़ी दिक्कतों और परेशानियों के बीच और उसी तरह दांत भींचकर जिस तरह कोई गरीब मुंशी अपने सर से कागजात के ढूह को अलग करता है। फर्क बस इतना है कि उस मुंशी के संग प्रेरक शक्ति होती है रोजी की चिंता और मुंशी प्रेमचंद के संग प्रेरक शक्ति है सृष्टि का अपने सामाजिक अनुभव को कला रूप देने का वह दुर्दम आवेग जो अपने लिए राह बना ही लेता है। उस मुंशी के कलम से निकलते हैं इस्तगासे, मैजिस्ट्रेट साहब के फैसले, कुर्की-बेदखली के दस्तावेज और मुंशी प्रेम चंद की कलम से निकलते हैं, गोदान, गबन, कफन, होरी, सूरदास, धनिया, जालपा, सुमन….

प्रेमचंद जल्दी सोने और जल्दी उठने के आदी थे। सुबह उठकर वह घूमने जाया करते थे। दिनभर बैठे-बैठे काम करने वाले के लिए इतनी कसरत जरूरी है और खासकर ऐसे आदमी के लिए जिसका पेट हमेशा के लिए खराब हो गया हो, यही सोचकर उन्होंने घूमना शुरू किया था। घूमकर लौटते और आकर काम पर बैठ जाते। थोड़ी देर बात नाश्ता तैयार होता तो उन्हें बुलाया जाता। नाश्ता करके वह काम पर बैठते तो एक तरह से पूरे दिन के लिए बैठ जाते। (जब उन्हें अपनी किसी नौकरी पर जाना होता-जैसे स्कूल की मास्टरी या ‘माधुरी’ की संपादकी-याद खुद अपने ही ‘हंस’ और ‘जागरण’ के दिनों में, तब तो सवेरे 9-10 बजे  घर से निकलना ही पड़ता।) बस, उन कुछ दिनों या महीनों में  जब उन्हें घर आने का मौका मिलता, वो बारह बजे तक लिखते। फिर खाना खाकर थोड़ा आराम करते, सोते नहीं, लेटते, दो-तीन घंटा कुछ पढ़ते और फिर शाम होने तक लिखते रहते। शाम को भी उनका कहीं जाने को जी न चाहता और वो चाहते कि लिखने का सिलसिला जारी रखें, मगर अकसर उन्हें ठेल-ठालकर बाहर भगाया जाता। जहां भी जाते जल्दी ही लौट आते और लिखने बैठ जाते। फिर दस बजे रात तक लिखते रहते और कई बार आवाज देने पर खाना खाने के लिए उठते और शायद हर रोज मेरी मां का पहला उलाहना यही होता-तुम्हें खाने के लिए दस बार बुलाया जाता है तो आते हो। पेट का रोना रोते हो और बारह बजे  रात को खाना खाना चाहते हो!… और प्रेम चंद डांट खाकर हंस देते, कभी प्रतिवाद न करते। बड़े समझदार आदमी थे।

प्रेमचंद की हंसी बहुत मशहूर है। उतनी खुली हुई बच्चों की-सी भोली, गले में से नहीं, (जैसा कि अकसर तथाकथित ‘सभ्य’ समाज में होता है!) बल्कि पेट में से उठकर आती हुई हंसी मैंने फिर कभी नहीं सुनी। उनका कहकहा जिसने भी सुना होगा, कभी भूल नहीं सकेगा। बात बहुत पुरानी हो गयी, मगर आज भी जब मैं उनकी हंसी को याद करता हूं तो लाजमी तौर पर मेरे सामने किसी झरने की तस्वीर आती है और झरने की वो जगह जहां पानी से सूरज जैसा सफेद कमल बन जाता है। ऐसी हंसी वही हंस सकता है, जो अंदर-बाहर से एक-सा सादा, एक-सा निश्छल, एक-सा निष्कलुष हो, जिसने कभी सपने में भी किसी का बुरा न चाहा हो, जिसने सदा सबकी भलाई की हो, जिसका अंत:करण समुद्र की तरह पवित्र और शांत हो, जिसने जिंदगी मेंं सुखी रहने का राज जान लिया हो।

प्रेमचंद्र का साहित्यिक जीवन उनके साहित्य में है। प्रेमचंद का घरेलू जीवन किसी मानी में साहित्यिक का जीवन नहीं है, क्योंकि वह किसी भी मध्यमवर्गीय गृहस्थ के जीवन से किसी भी मतलब में भिन्न नहीं है। वह एक अच्छे पड़ौसी, वत्सल पिता और पत्नी को अधिक से अधिक प्रेम और आदर देने वाले पति का जीवन है, जिसके चले जाने पर जिंदगियां हमेशा के लिए सूनी हो जाया करती हैंं और जिनकी याद सपने में भी आती है तो आदमी आंसुओं से नहाया हुआ उठता है।

प्रेमचंद के व्यक्तित्व में सबसे मार्के की बात मुझको उनकी सादगी मालूम होती है। उनका कपड़ा-लत्ता, उनकी बोलचाल, लोगों से उनका मिलने-जुलने का ढंग, सब कुछ जैसे पुकार-पुकार कर कहता है – इन्सान को उसके भीतर के खजाने से परखो ! उसकी नेकी से, उसकी सच्चाई से, उसकी हिम्मत से, उसके मानव-प्रेम से। असल इन्सान बनावट में नहीं मिलता। लिहाजा मुखौटे को मत देखो तुम, दिल की रग पकड़ो, देखो उस असली चेहरे को जो मुखौटे के पीछे है।

मगर आज तस्वीर कुछ और है। आज अपने साहित्यकारों की जमात में जिधर भी नजर दौड़ाता हूं, उधर मुझको असली चेहरे कम, मुखौटे ज्यादा नजर आते हैं। कुछ ऐसा मालूम होता है जैसे हर आदमी अपनी  दुकन जमाने में लगा हुआ है और फिक्र में है कि कैसे उसी की दुकान सबसे ज्यादा धड़ल्ले से चल निकले। लिहाजा फिर उसी तरह अपनी-अपनी इश्तहारबाजी होती है कि मान-मनौअल, चिरौरी-विनती करके अपने ऊपर लेख लिखवाये जाते हैं, खुद ही अपने ऊपर लेख लिखकर दूसरे के नाम से छपवा दिए जाते हैं, या एक ही लेखक अपने एक नाम से अपने दूसरे नाम की प्रशस्ति गाता चलता है! उसी तरह फिर लेखकों की अपनी-अपनी टोलियां बनती हैं, जिनमें एक आदमी महंत बनकर बैठ जाता है और अपने इर्द-गिर्द चार-छह, दस-बीस चेले-चपाटे इकट्ठा कर लेता है और फिर लाजमी तौर पर एक टोली का दूसरी टोली से महायुद्ध होता है-जिसे होली का हुड़दंग भी नहीं कह सकते, क्योंकि गलत ही सही, उस हुड़दंग में एक मस्ती तो होती ही है-जिसमें सब एक-दूसरे के मुंह पर अच्छी तरह अलकतरा पोतते हैं, सब एक-दूसरे के गले में जूतों की माला डालते हैं। सब एक-दूसरे को गधे पर बिठाकर शहर भर में घूमाते हैं और सभी टोलियों की अपनी वानर-सेनाएं अश्लील संकेतों के साथ ताली पीट-पीटकर विरोधी पक्ष की चौदह पीढिय़ों का ‘गोत्रोच्चार’ करती हैं।

और यह क्यों? इसलिए कि पद हमको मिले, प्रतिष्ठा हमको मिले, पैसा हमको मिले। इन तीन प्रकारों के पीछे सब पागल हैं। कोई राज्य सभा में जाना चाहता है, कोई किसी शिष्टमंडल में भू-परिक्रमा करने का इच्छुक है, कोई किसी आयोग की सदस्यता का अभिलाषी है। इस वक्त कमोबेश हम सभी का कुछ ऐसा ही हाल है। जैसे कुएं में ही भांग पड़ गई हो। मैं अगर कहूं कि मैं दूध का धोया हूं और मेरे अंदर कहीं ऐसी वासना नहीं है तो वह झूठ होगा। और आत्मछलना से बड़ी छलना दूसरी नहीं होती। जो बात सच है, उसको मानना चाहिए। जहां हवा ही कुछ मायावी लास्य दिखला रही हो, वहां साहित्य ही कैसे अछूता बचे! फलत: व्यवसाय को जो कूटबुद्धि हल्दी-नमक-तेल, कपड़े की आढ़त में लगती है, बहुत-कुछ वही साहित्य की आढ़त में भी दिखायी दे रही है। एकदम वही नहीं, बहुत कुछ वही, मूलत: वही, इसलिए कि आज हमारी दृष्टि में अधिकांशत: साहित्य कोई साधना की चीज नहीं रह गया है और न साहित्यकार, साधक। इस व्यवसाय-युग में आज साहित्य भी एक पण्य वस्तु हो गया है (जैसे बिक्री की और चीजें वैसी ही उनमें  एक साहित्य भी) और साहित्यकार केवल उसका बनाने वाला। और दुनिया उसके लिए एक बाजार है जहां उसके ग्राहक डोल रहे हैं। इससे ज्यादा  वह कुछ नहीं समझता और न समझना चाहता है। यही वक्त की हवा है। जो लोग साहित्य को साधना समझते हैं, उसके लिए कष्ट उठाते हैं, यातनाएं सहते हैं, मरते खपते हैं, उनको वह दकियानूस समझता है, सिड़ी समझता है, अगले वक्तों का एक अजूबा समझता है, जिसकी माकूल जगह मुर्दों का अजायबघर है। आज तो सबको बहती गंगा में हाथ धोने की पड़ी है।

प्रेमचंद कुछ दूसरे ही ढंग के आदमी थे। यह बात जरूर है कि आज हिन्दी राष्ट्रभाषा बन जाने के बाद, हिन्दी साहित्यकारों के सामने जितने प्रलोभन हैं  तब उतने नहीं थे या कहिए कि बिल्कुल नहीं थे, क्योंकि तब तक हिन्दी को किसी तरह की कोई मान्यता नहीं मिली थी। मगर कुछ प्रलोभन तो तब भी थे और हमेशा ही रहते हैं। यह बात और है कि एक आदमी के लिए जो चीज लोभनीय होती है, वह दूसरे आदमी के लिए लोभनीय नहीं होती। एक आदमी का ईमान दस रुपए पर डिग जाता है, दूसरे का दस हजार पर भी नहीं डिगता। इसलिए प्रलोभन क्या है और क्या नहीं, इसकी परीक्षा उस आदमी को बाहर रखकर नहीं की जा सकती, जिसको प्रलुब्ध करने के लिए वह प्रलोभन है।

मिसाल के लिए पिछले दस-पंद्रह बरसों में हमने बहुत से लेखकों को पैसे के लोभ में बंबइया फिल्म के जंगल में भटकते और बरबाद होते देखा है। प्रेमचंद भी एक बार अपनी किन्हीं मजबूरियों के कारण, सन् ‘34 में, बंबई की फिल्मी दुनिया में पहुंचे थे। उस वक्त उनको एक हजार रुपए मिलता था, जो बहुत ज्यादा न हो मगर बहुत कम भी नहीं था और आज रुपए की कीमत असलियत में जिस तरह गिर गई है, उसको देखते हुए तो उसे काफी बड़ी रकम कहना होगा। मगर तब भी एक बरस के भीतर प्रेमचंद वहां से भाग खड़े हुए। क्यों? क्या इसलिए कि उनको रुपया काटता था या इसलिए कि उनके पास घर पर ही खजाना गड़ा हुआ था या वो इतने भोले थे कि उन्हें पता ही न था रुपया किस काम आता है? नहीं, वो इतने भोले-नादान नहीं थे और न उनके घर पर खजाना गड़ा हुआ था और न रुपया उन्हें काटता ही था। वह भाग इसलिए आए कि उस अजीब दुनिया में जहां एक जाहिल, अनपढ़ डायरैक्टर की बादशाहत होती है, वह निभा नहीं सके और वो निभा इसलिए नहीं सके कि उन्हें किसी कीमत पर अपनी आत्मा का, अपने विवेक का सौदा करना मंजूर न था। उस वक्त की अपनी दिमागी कैफियत उन्होंने अपने कई खेतों में अपने दोस्तों से बयान की है और उससे यह बात साफ जाहिर होती है कि उन्हें अपने गांव में बैठकर नमक-रोटी खाना कबूल था, मगर शान-ओ-शौकत के झूठे दिखावे की उस भूल-भुलैया में खो जाना कबूल नहीं था, भले वहां रोज पुलाव ही क्यों न मिले। और वह क्यों? वह इसलिए कि उस नमक-रोटी के साथ सृजन का काम चल सकता था, क्योंकि वहां मन की शांति है और उस पुलाव के साथ नहीं चल सकता, क्योंकि  यहां की मन की शांति नहीं है और उस पुलाव को बचाए रखने के लिए बीस झमेले करने पड़ते हैं और धीरे-धीरे यह नौबत आ जाती है जबकि वह आदमी उस पुलाव को नहीं खाता बल्कि वह पुलाव उस आदमी को खाने लगता है।

और यही वह वजह है जहां पर लेखक  को खुद अपने तईं यह तै करना पड़ता है कि वो अपने लेखन को, अपने सृजन को, कितना महत्व देता है। यह लफ्फाजी करने की जगह नहीं, बल्कि दृढ़ मन से, शांत चित से एक निश्चय करने की जगह होती है। अगर आपके मन की आवाज साफ-साफ कहती है कि मेरा सृजन ही मेरा जीवन है और जो भी हो वही सबसे ऊपर रहेगा तो हर हालत में आपका मन उसका उपाय ढूंढ लेगा। मन की शक्ति का अभी तक किसी ने पार नहीं पाया है। लेकिन अगर किसी कारण से आपका मन पैसा, पद, प्रतिष्ठा, यश, प्रभुत्व की ओर ज्यादा भागता है और आपका लेखन, आपका साहित्य-सृजन उस सबके लिए केवल एक सीढ़ी है तो स्पष्ट ही सबसे आपकी दृष्टि में आपका लेखन गौण हो जाता है – और वहीं, उसी स्थल पर लेखक की अपमृत्यु का बीजारोपण हो जाता है। उसके बाद फिर कहीं रक्षा नहीं है और वह एक अंधी खाई की तरफ बढ़ता हुआ ढाल है, जिस पर आप चल रहे हैं, बल्कि यों कहिए, लुढ़क रहे हैं। यहीं पर हममें से अधिकांश भूल करते हैं और जब हमारा लेखक, हमारा सर्जक मर चलता है तो हम अपने मनस्तोष के लिए परिस्थितियों की विडंबना का रोना रोने लगते हैंं।

मैं यह नहीं कहता कि परिस्थितियां बिल्कुल दोषमुक्त हैं मगर मैं यह जरूर कहना चाहता हूं कि सारा दोष परिस्थितियों का नहीं है। कभी, किसी युग में, किसी लेखक या कलाकार को मनचाही परिस्थितियां नहीं मिलतीं। परिस्थितियों से संघर्ष करने में ही व्यक्तित्व का कमल खिलता है और यही बात लेखक के लिए भी सही है। सृजन में संघर्ष निहित है। संघर्ष गरीबी से, परेशानियों से-जैसे कि प्रेमचंद ने किया। संघर्ष सम्पन्नता की अफीम से जोकि कम खतरनाक नहीं होती – जैसे कि रविन्द्रनाथ ने किया और संघर्ष राजसत्ता से, अर्थात् उसके आतंक और उसके प्रलोभनों, दोनों से-जैसे कि प्रेमचंद ने किया और रविन्द्रनाथ ने किया।

प्रेमचंद से ज्यादा मुसीबतें किस लेखक को उठानी पड़ी होंगी, (उनका ब्यौरा देने की जरूरत नहीं है, सबको उनका हाल मालूम है) मगर उनका लेखक नहीं मरा। उन्होंने अपने जीवन के अंतिम पंद्रह वर्षों को छोड़कर सारी जिंदगी सरकारी नौकरी की और अंग्रेज सरकार की-मगर उनका लेखक नहीं मरा। उनकी किताबें जब्त हुई, जलायी गईं, उनके लिखने पर बंदिशें  लगाई गईं-मगर तब भी जिंदा रहने का उपाय उन्होंने ढूंढ निकाला। सरकारी नौकरी में रहने के कारण जब वो अपने नाम से नहीं लिख सके तो छद्म नाम से लिखा और वही छद्म नाम आज भी पूजा जाता है। दिनोंदिन जीवन के छोटे-बड़े झंझटों और परेशानियों से उनकी जिंदगी शल थी, मगर तब भी उनका लेखक मरने नहीं पाया। सम्पन्नता की दहलीज पर भी वह एक बार पहुंचे-मगर मुंह मोड़कर चले आए, क्योंकि भीतर का दृश्य बड़ा घिनौना था। राजकीय सम्मान के दरवाजे भी उनके लिए खुलने को हुए- मगर दूर से ही उन्होंने उसको प्रणाम किया, क्योंकि वह गली अच्छी न थी, भले वहां फूलों के गजरे हों, मखमल के गाव तकिये हों।

कभी वे चीजें उनके लिए प्रलोभन न बन सकीं, क्योंकि उनके भीतर लेखक का गहरा आत्म-सम्मान था, सर्जक की आंतरिक गरिमा थी, कलाकार का वह विपुल मानसिक ऐश्वर्य थी, जिसके आगे सोना-चांदी सब मिट्टी है। उन्होंने दृढ़ मन से, शांत चित्त से निश्चय किया था कि मेरा सर्जक सर्वोपरि रहेगा, क्योंकि वही मेरा परम सुख है, वही मुझे जीवित रखेगा, आगे चलकर उसका मूल्य चाहे जो भी ठहरे- और इसीलिए विषम जीवन-परिस्थितियोंं में भी उनका लेखक, उनका कलाकार मरा नहीं।आज ताकत  के उसी सोते को अपने मन के भीतर टटोलने को मेरा जी चाह रहा है।

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