बाजार के हवाले शिक्षा -सुरेन्द्र ढिल्लों

शिक्षा


हरियाणा प्रदेश में शिक्षा के क्षेत्र  में आए परिवर्तनों पर जैसे ही नजर जाती है, तो यह बात स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है कि प्रदेश में विद्यालयों-महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों की संख्या में भारी वृद्धि हुई। शिक्षण संस्थाओं की बढ़ती संख्या का यह सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। राज्य की विभिन्न सरकारों ने इसे शिक्षा के प्रसारीकरण का इकलौता अचूक उपाय मानते हुए इस दिशा में निरंतर कदम बढ़ाती आई हैं और इसी उपलब्धि के दम पर राज्य को शिक्षा के उभरते हुए ‘हब’ के रूप में विज्ञापित एवं प्रचारित करती आ रही है।

शिक्षा नीतियों में भी समय के साथ-साथ राष्ट्रीय शिक्षा नीतियों के अनुरूप निरंतर परिवर्तन हुए हैं। अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा कानून को लागू करना, सर्वशिक्षा अभियान का चलाया जाना, राजकीय विद्यालयों में वोकेशनल शिक्षा चालू करना व तकनीकी शिक्षा को बड़े पैमाने पर बढ़ावा देने के प्रयास शिक्षा क्षेत्र में हो रहे नीतिगत परिवर्तनों का फल हैं।

नब्बे के दशक में देश में आई आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के साथ-साथ, सॉफ्टवेयर जगत में भारतियों की प्रतिभा की धाक जमाने के कारण इस प्रकार का ढिंढोरा पिटा गया कि भारत शीघ्र ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापार व सेवा क्षेत्र में एक महाशक्ति बनने जा रहा है। परिणामस्वरूप हरियाणा के गुड़गांव में भी अनेक कॉल सेंटर खुल गए और अंग्रेजी जानने वालों के लिए रोजगार के अनेक नए अवसर खुल जाने का सपना दिखाया जाने लगा। अंग्रेजी भाषा ने फिर एक नयी अंगड़ाई ली और हरियाणा सरकार ने राज्य के विद्यार्थियों को अंग्रेजी में पारंगत करने के लिए एक नया बीड़ा उठाया। स्कूल और कालेजों में न केवल एजुसैट के माध्यम से विद्यार्थियों को ‘सॉफ्ट स्कील’ व अंग्रेजी बोलना सिखाने का कार्यक्रम चलाया गया, अपितु स्कूलों में पहली कक्षा से ही अंग्रेजी पढ़ाना अनिवार्य कर दिया गया। गैर सरकारी स्कूल चाहे वे गांव में स्थित या कस्बे में पूर्णत: अंग्रेजी माध्यम के स्कूल बन गए।  इनमें पढ़कर बड़ी हुई पीढ़ी को न तो अच्छी तरह अंग्रेजी आती, न हिन्दी और न वे अपनी सभ्यता, संस्कृति, इतिहास व समाज  से जुड़ाव महसूस करते हैं और न उनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा हो पाया है।

यही व समय था जब हमारी शिक्षा व्यवस्था, बाजार के हवाले कर दी और सरकारों ने भी पूरी शिक्षा व्यवस्था को बड़े निर्लज्ज भाव से व्यापारिक व निजी हाथों में सौंप दी। जगह-जगह निजी क्षेत्र में खुलने वाले इंजीनियरिंग-तकनीकी संस्थानों, चिकित्सा संस्थानों, बीएड, डीएड, मैनेजमैंट व प्रौद्योगिकी के संस्थानों की बाढ़ सी आ गई और रोजगारोन्मुखी शिक्षा पाने की चाहत रखने वालों के वित्तीय शोषण का एक नया दौर आरंभ हुआ। भारी फीस लेकर ज्ञान बेचने वालोंं की दुकानें खुल गई और मान्यता प्राप्त शिक्षण संस्थानों के समानांतर कोचिंग संस्थानों के फैले साम्राज्य ने शिक्षा को एक नया ही रूप दे डाला।

किसी जमाने में संभवत:  डिग्री हासिल कर लेना रोजगार पा लेने की गारंटी माना जाता हो, परन्तु आज डिग्री मात्र अर्जित कर लेने से किसी को नौकरी नहीं मिल सकती। आज भी हमारे विद्यार्थी व उनके अभिभावक शिक्षा को नौकरी से जोड़कर देखते हैं। खेद की बात है कि सरकार भी इसी बात में विश्वास करती है। परन्तु हमें तो आज ऐसी शिक्षा व्यवस्था चाहिए जो रोजगार लेने वाले नहीं, रोजगार देने वाले पैदा कर सके। कम से कम इस दृष्टि से तो तमाम परिवर्तनों के बावजूद हमारी शिक्षा व्यवस्था उस लक्ष्य की ओर उन्मुख दिखाई  नहीं देती।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 61
 

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