हरियाणा में खेती किसानी-विमर्श -सुरेंद्र कुमार

                आधुनिक हरियाणा में कृषि को समझने के लिए कोई एक सिद्धांत या एक वैचारिक फार्मूला काम में नहीं लाया जा सकता। जब हम पहले के अध्ययनों पर निगाह डालते हैं, तो उनमें कई अलग-अलग पहलू उभरकर सामने आते हैं जो कई बार अंतर्विरोधी भी होते हैं।

                हरियाणा के खेतिहर ढांचे को समझने के कई आख्यान हैं। उनमें से तीन आख्यान गिनाये जा सकते हैं। ऐसा नहीं है कि ये तीनों आख्यान एक दूसरे से कटे हुए हों। बल्कि यूँ कहें कि तीनों आपस में एक -दूसरे पर निर्भर हैं।

                पहला- शुद्ध अकादमिक विमर्श जो कि प्रतिष्ठित शोध पत्र-पत्रिकाओं में चलता है। यह विमर्श आर्थिक-सामाजिक पक्षों के तकनीकी पहलुओं पर प्रकाश डालता है। इनमें शीला भल्ला, टॉम ब्रास, सुरिन्दर जोधका, सत्य पॉल और  प्रेम चौधरी प्रमुख हैं।

                दूसरा आख्यान है – गंभीर पत्रकारिता से जुड़े  समूहों और विचारकों का, जिन्होंने अकादमिक काम और आम जन के बीच की कड़ी की भूमिका निभाई है। उदाहरणार्थ प्रोफेसर दौलत राम चौधरी जैसे विचारक।

                तीसरा है – आम किसान की रोजमर्रा की समस्याओं से जूझने में मदद करते हुए किसान संगठनों और कार्यकर्ताओं का।

                जब हम इन तीनों किस्म के आख्यानों को देखते हैं तो बहुत सी चीजें समान मिलती हैं जबकि कुछ बातें एक दूसरे से बिल्कुल उलट। हरियाणा में कृषि के स्वरूप और समस्याओं को लेकर कोई एक रंग का विचार मुमकिन नहीं है।

                एक विचार तो ये है कि आज की कृषि असल में कृषि ही नहीं है, क्योंकि उसका पूरा स्वरूप पूंजी पर निर्भर हो गया है। सिर्फ  ज़मीन में कोई चीज़ पैदा कर देने से क्या हम उसे कृषि कहें या नहीं? ‘पूंजी’ के प्रवेश के साथ ही ‘औद्योगिकता’ अंदर आ जाती है। ये वो कृषि नहीं है जो हजारों सालों से परिवार-आधारित, आत्म-निर्भर और टिकाऊ थी।  अगर ये पंूजी आधारित है और परिवार श्रम से ज्यादा मशीनों-कीटनाशकों- उन्नत बीज किस्मों की फिक्र करती है तो हम आखिर किसको बचाने की बात कर रहें हैं?

                हरियाणा का ऐतिहासिक कृषि-ढांचा परिवार के इर्द-गिर्द है। अब वो स्थिति बिल्कुल वैसी नहीं है। यहां सिर्फ एक ‘भावनात्मक अपील’ पैदा करने का प्रयास नहीं है जिसमें ‘महान प्राचीनता’ में लौट जाने जैसा कोई ख्याल हो।

                तो हरियाणा की कृषि को पिछले पचास साल के आईने में जब हम देखते हैं तो एक बात रह-रहकर सामने आ जाती है। पूंजीवादी ढांचे वाली कृषि में एक ओर तो ‘हरित क्रांति’-किसान खुशहाली-गांव की समृद्धि जैसे चमकदार पहलू हैं और दूसरी तरफ  ऋण संकट और आत्महत्याएं भी हैं। जो भी हो हरियाणा ने समृद्धि का एक स्तर तो पाया ही है। चाहे प्रति व्यक्ति आय की बात हो या फिर गरीबी का उन्मूलन, हरियाणा आज भारत के सर्वाधिक अग्रणी राज्यों में एक है। यह सच है कि हरियाणा के एक तबके में समृद्धि आई है।

                हरियाणा की राजनीति किसान और कृषि की राजनीति कही जाती है।  यह लुभावने और भावुकता भरे मुहावरों का इस्तेमाल करती है। हरियाणा में एस.वाई.एल. नहर के पानी का वायदा और फिर उससे आने वाली समृद्धि का सपना कई चुनावीं घोषणा-पत्रों का अहम हिस्सा रहा। इस सबमें एक बात और जोडऩा महत्वपूर्ण है कि हरियाणा में किसान राजनीति है, लेकिन स्वतंत्र किसान आंदोलन नहीं।

                हरियाणवी कृषि के इतिहास में ‘हरित क्रांति’ एक मील का पत्थर थी। इससे समृद्धि आई, फसलों का उत्पादन बेहद तेज गति और उछाल के साथ बढ़ा और खुद-काश्त यानी खेत के मालिक के खुद ही खेती करने का रूझान भी बढ़ा। हरित क्रांति एक समय बाद ठहराव की स्थिति में आ गई। असल में हुआ ये कि जहां एक तरफ  खाद्यान्न का उत्पादन लगातार बढ़ा वहीं दूसरी ओर खेती पर आने वाली लागत भी बढ़ती गई। जैसे यूरिया, कीटनाशक और मशीनों की कीमतें लगातार बढ़ी हैं।

                भूमि की उत्पादकता की एक सीमा तो होती ही है। जमीन की उत्पादकता एक हद पर जाकर रूकती है। एक एकड़ में पैदा होने वाले अनाज को कई गुणा बढ़ा दिया गया। उन्नत बीज, यूरिया और कीटनाशकों के इस्तेमाल से बम्पर फसलें हासिल हुईं।

                 हरित क्रांति के समय बीजों की नई किस्मों की एक बड़ी भूमिका रही थी। उसमें भी एक ठहराव सा आ गया। बदलते समय में बीजों की किस्मों में हमें कोई बड़ा परिवर्तन नहीं दिखा। हरियाणा में बड़ी जोत के किसान अधिक नहीं है। छोटी जोत के किसानों की जोत और भी छोटी होती गई है। भूमिहीन खेत-मजदूरों के हालात लगातार खराब हुए हैं।

                राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा कम हुआ है।  उद्योग जिस तरह से बढ़ा है उसने कृषि से उखाड़े गए श्रम को रोजगार नहीं दिया है। उद्योग खुद संकट और मंदी के दौर से गुजर रहा है।1991 के बाद अर्थव्यवस्था की सुई पूर्णतया बाजार की तरफ  घूम गयी।  चाहे जो भी हो बाजार और सरकार को हर हाल में किसान केंद्रित और किसान हित में नीतियां बनाने के लिए काम करना चाहिए।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( सितम्बर-अक्तूबर, 2017), पेज- 27

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