बदलती देह भाषा और  पितृसत्तात्मकता – टेक चंद

पॉप-कल्चर

सपना चौधरी इन दिनों चर्चा में है। हरियाणा की यह लोकगायिका अपने गायन से ज्यादा नृत्य को लेकर प्रसिद्ध हो गई है। इतनी कि स्टार का दर्जा हासिल कर चुकी है। सपना चौधरी ने हरियाणा की निर्देशित, तयशुदा देहभाषा को बदल कर रख दिया है।

हरियाणा में मनोरंजन के मुख्य साधन सांग और रागनी रहे हैं। रागनी के प्रति दीवानगी इस हद तक रही है कि सर्दी के मौसम में भी लोग रात-रात भर कंबल, चद्दर ओढ़े रागनी सुनते हुए दिन कर देते थे। यहां तक कि रागनी कंपीटीशन को लोग सौ डेढ़ सौ, दो सौ किलोमीटर दूर तक जाकर भी देखते-सुनते थे। खेती-किसानी से थके लोगों को इन रागनियों में मनोरंजन के साथ-साथ ऐतिहासिक, पौराणिक नैतिक किस्से-कहानियां भी सुनने को मिलते थे। इन रागनी गायकों का हरियाणा क्षेत्र में वैसा ही सांस्कृतिक महत्व रहा है जैसा जापान में सूमो पहलवानों का।

इन गायकों की टोलियों में पुरुष ही होते थे। इस स्थिति में थोड़ा परिवर्तन तब आया जब लगभग 1990 के दशक में इनकी टोली में मीनू चौधरी, सरिता चौधरी नामक स्त्रियों का प्रवेश हुआ। सूट सलवार पहनकर और सिर पर पल्ला लेकर गाती इन स्त्रियों ने जल्द ही अपना आधार निर्मित कर लिया।

1990 के बाद मनोरंजन के साधन बढ़े तो रागनी गायकों, सांग कलाकारों से जनता की अपेक्षाएं भी बढ़ गई। प्रारंभ में घूंघट-पल्ले में स्टेज पर आई मीनू चौधरी और सरिता चौधरी ने घूंघट हटा दिए और सिर पर पल्ला ले, चेहरा नुमाया कर गाने लगीं। (इस सूची में अन्य नाम भी शामिल किए जा सकते हैं) चेहरे पर भाव-भंगिमा दिखाई देने लगी। इतने पर ही बस ना हुई। सैंकड़ों-हजारों दर्शकों-श्रोताओं की मांग, ताली, प्रशंसा और होये! होये के चलते द्विअर्थी संवादों, चुटकलों का प्रवेश इन राग-रागनियों में हो गया। मेरे विचार से हरियाणा की रागनी भारत भर में ऐसी विद्या है, जिसमें खूब ताकत, स्टेमिना, हाजिर जवाबी और साहस की जरूरत होती है। सैंकड़ों, हजारों की भीड़ जिसमें पुरुष ही होते हैं। उनको बांध कर रखना बहुत बड़ी चुनौती होती है। अपने मनपसंद गायकों, कलाकारों को भी भीड़ कब ‘हूट’ कर दे पता नहीं। यहां भीड़-तंत्र काम करता है। वाह! वाह! और होये! होये! कब हाय! हाय और हुई-हुई में बदली जाए कहना कठिन है।

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ऐसे में इन स्त्रियों ने बातों और आवाज को रसीला तथा शरीर को लचीला बनाकर नाचना शुरू कर दिया। जनता खुश हुई। फैन बनने और बढऩे लगे। इन टोलियों, मंडलियों की मांग बढऩे लगी, जिनमें स्त्रियां होतीं। दर्शकों की वाह! वाह! और कलाकार स्त्रियों के नाच-लोच तथा अदाओं में सापेक्ष सम्बन्ध स्थापित हो गया। स्टेेज पर पुरुष और स्त्री के संवादों में द्विअर्थी शब्दों, मुहावरों, चुटकलों की प्रधानता होने लगी। नतीजा यह हुआ कि पुरुष दर्शक व श्रोता तो बढ़ गए, लेकिन स्त्री-दर्शकों व श्रोताओं की तादाद कम होते होते लगभग नगण्य और फिर खत्म हो गई। अब पुरुष खुलने लगे और वे गायक कलाकार स्त्री से भी ऐसी मांग करने लगे। माहौल बदल गया।

इस बदले परिदृश्य में दो एक साल पहले प्रकट हुई सपना चौधरी। इस गायिका ने हरियाणवी रागनी गायन के मानदण्ड बदल कर रख दिए। ऐसा वह कर पाई देहभाषा Body Language बदल कर। वह नाचती है सूट सलवार पहन कर, सिर पर पल्ला लेकर, नशीली मादक भाव-भंगिमाओं और चपल-चंचल देहयष्टि से। ऐसा कि देखने वाले नोटों की बारिश कर देते हैं। इंटरनेट, यू-ट्यूब पर उसकी ढेरों वीडियो हैं। उसकी मांग दिनों दिन बढ़ती जा रही है।

अब सब जगह सपना चौधरी नाच-गा रही है। मंदिर से चौपाल तक। आंगन से मैदान तक, मोबाइल से दिलों दिमाग तक सपना यथार्थ बनी हुई है। इसका बड़ा कारण उसकी बिंदास और मस्त नृत्य शैली है। हरियाणा के खाप पंचायत वाले माहौल में शक के आधार पर ही किसी को जिंदा जलाया और मारा जाता रहा है। जहां घूंघट छोटा होने पर औरतों को जानवरों की तरह धुन दिया जाता हो, लड़कियों को आंचल संभाल कर, नज़रें झुकाकर कंधे दबाकर, छोटे डग भरकर, मुंह बंद कर चलने-रहने की हिदायतें दी जाती रही हैं। लड़कियों और औरतों की भाषा से लेकर देहभाषा तक पितृसत्तात्मक समाज ने प्रतिबंधित कर नियंत्रण में कर रखी है। पिता, दादा से लेकर चाचा, ताऊ, चचेरे-ममेरे बड़े भाई यहां तक कि निखट्टू नालायक छोटे भाई भी पढ़ी-लिखी बहन को डांट-फटकार व मार-पीट सकता है, यदि लड़की की देहभाषा में परिवर्तन नोट कर लिया जाए। लड़की की देहभाषा में प्रेम, स्वच्छन्दता और स्वतंत्रता के निशानों की बू भी आए तो लुच्चे से लुच्चे, निठल्ले से निठल्ले, दिनभर ताश पीटते, बीड़ी शराब पीते पड़ोसी, रिश्तेदार भी लड़की की खुलती देहभाषा पर इल्जाम, प्रतिबंध और लांछन लगाने से नहीं चूकते।

इसके एकदम उलट दूसरी तरफ यही समाज सपना चौधरी का सपना दिलों में पाले हुए है, क्योंकि सपना चौधरी ने हरियाणा की निर्देशित, तयशुदा देहभाषा को बदल कर रख दिया है। वह नाचती है, खुलकर नाचती है। कंधे तानकर, हाथ उठाकर पांवों को खोलकर नाचती है। पीठ जनता की तरफ कर अंगड़ाई लेकर नाचती है, सीना तानकर, सीना कंपन कर, सीना थिरकाकर नाचती है। बदन लहराकर, बल खाकर, मचलकर नाचती है। उसका चेहरा हंसता, भाव देता, उल्लासमय चितवन लिए हुए है। वह शोख चंचल अदाओं से आंखें मटकाकर सम्मोहित सा कर हजारों की भीड़ पर बिजलियां गिराकर नाचती है। उसकी मादक भंगिमा भीड़ को उत्तेजित कर देती है। वह लोगों में उत्सवधर्मी चेतना का संचार करती है। कभी-कभी वह गाती भी है, ज्यादातर डी जे पर बज रहे गानों पर नाचती है। लिपसिंग करती है। कई बार तो पुरुष स्वर पर भी लिपसिंग करके नाचती है। पुरुष स्वर पर भी उसके वही नाज-नखरे वाले हाव-भाव रहते हैं। लोग उसी के लिए जुटते हैं। सब जगह उसकी जबरदस्त डिमांड है।

बढ़ती हुई माग का ही नतीजा है कि सपना की बाढ़ सी आ गई है। छोटी सपना सपना जैसी एक और सपना नई सपना की जमात सी खड़ी हो गई है। अब एक नहीं अनेक सपना हैं। घर परिवारों में शादी-ब्याह में बजने वाले डीजे पर छोटी बच्चियों से लेकर युवतियां, नव ब्याहता और अन्य स्त्रियां भी सरे-समाज सपना की नकल कर नाचती हैं और रिश्तेदार प्रशंसा करते हैं, नोट वारते-लुटाते हैं। देहभाषा निरंतर बदलती, खुलती और उत्तेजक होती जा रही है। मगर मांग है कि बढ़ती जा रही है। ऐसे में पुरुष रागनी गायक हाशिये पर खिसक गए हैं। एक मायने में स्टेज से उतर गए हैं और जनता के दिलों से भी। आज लोग उन्हें याद भी नहीं करते हैं, क्योंकि यादों में  है कमर लचकाकर नाचती सपना और उसकी नकल कर कूद-कूद नाचती, भर बंधा-यौवन वाली नयी-नयी नायिकाएं।

एक अदद सपना ने देह भाषा बदली तो सामंती पितृसत्तात्मक व्यवस्था हाशिये पर चली गई। इसके और क्या परिणाम होंगे यह तो भविष्य ही बताएगा। कयास लगाए जा सकते हैं कि क्या पुरुष रागनी गायक संग्रहालय की वस्तु हो जाएंगे? क्या सपना के जलवों पर नोट बरसाता, आहें भरता हरियाणा का बच्चा-बूढ़ा और जवान तबका स्त्रियों के प्रति लोकतांत्रिक हो पाएगा? क्या सपना को सराहते और अन्य बच्चियों, स्त्रियों को बरजते, डपटते  उनके व्यवहार का दोहरापन समाप्त होगा?

सवाल और स्थितियां अनेक हैं, बहरहाल! जिस रागनी को लेकर सपना चौधरी पर एससी/एसटी कानून के तहत मुकद्दमा दर्ज किया गया, मेरे विचार से उस रागनी में किसी भी प्रकार का दलित उत्पीडऩ नहीं है। उसमें दलितों के पढ़-लिखकर तरक्की कर जाने तथा अन्य जातियों के परम्परागत काम धंधे ठप्प हो जाने का भाव है। शिक्षा व्यवस्था ने दलितों को तरक्की दी है तो अपने काम धंधो से चिपके लोग बाज़ार की भेंट चढ़ गए। ‘पढ़ लिख कै तरक्की करगी, बावली जात चमारां की’ पंक्ति को व्यंजना में लें तो बात स्पष्ट हो जाती है कि सारा समाज जिस जाति को बावला समझता था, वह तो पढ़-लिख कर तरक्की कर गई और जो ज्यादा समझदारी दिखाते हुए पुश्तैनी धंधों के सहारे रहे, डर के मारे कदम ही ना बढ़ाया, वर्ण व्यवस्था में वर्णित गर्वित भाव बोध से मुगालते में रहे वो बदलते दौर में जो बाज़ार का है, में बरबाद हो गए। जिन्हें सब बावली जात कहते हैं, उनकी समझ देखो, शिक्षा का चुनाव किया और जो चतुर बनकर पुरोहितवादी व्यवस्था में उनकी गति देख लो। लगता है इतना स्पष्टीकरण काफी होगा। फिलहाल सपना चौधरी बेखटके नाच-गा रही है। उसकी हवा है और रागनी गायकों की टोलियां इस हवा में उड़ती जा रही हैं। साथ ही पुरुष वर्ग का चरित्र भी स्पष्ट से स्पष्टतर होता जा रहा है।   

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( मार्च-अप्रैल 2017), पेज-75-76
 

2 thoughts on “बदलती देह भाषा और  पितृसत्तात्मकता – टेक चंद

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    कपिल भारद्वाज says:

    जबरदस्त विश्लेषण । हालांकि इस बात से मैं सहमत नहीं हूं कि पुरुष रागनी कलाकार संग्रहालय तक ही सीमित हो जाएंगे । इसमें एक बात और ये है कि इन रागनी कलाकारों को कई बार सपना जैसी कलाकारा का बहिष्कार करने की बात करते सुना है, अश्लीलता फैलाने के नाम पर; हालांकि कई बार ये रागनी कलाकार और सपना अगले ही दिन मंच सांझा कर रहे होते हैं । इनकी रस्साकसी चलती रहेगी ।

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    Anonymous says:

    एक अदद सपना ने देह भाषा बदली तो सामंती पितृसत्तात्मक व्यवस्था हाशिये पर चली गई। – सपना ने सामंती पितृसत्ता का बाल भी बांका नहीं किया, इस तरह के अश्लिल नाच सामंती समाज में सदियों से होते रहे हैं, बेहद बुर्रा विश्लेषण केवल सपना का बचाव, लेखक समेत कोई भी शायद नहीं चाहेगा कि सपना जैसी लचर डांसर उनके घर में पैदा हो….

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