रेनू यादव – भारत में उच्च शिक्षा और युवा वर्ग

शिक्षा

आज भारत का उच्च शिक्षा का ढांचा पूरे विश्व में अमेरिका और चीन के बाद तीसरे स्थान पर है। सरकारी रिपोर्टों के अनुसार उच्च शिक्षण संस्थानों और उनमें पढऩे वाले बच्चों एवं शिक्षकों में लगातार वृद्धि हो रही है। भारत में उच्च शिक्षा का सकल नामांकन अनुपात लगभग 20.4 प्रतिशत है, वही हरियाणा का ग्रॉस एनरोलमेंट अनुपात अगर देखा जाए तो यह कुछ ही सालो में 20.40 प्रतिशत  से बढ़ कर लगभग 27.9 प्रतिशत हो गया है।

हमारे यहां पर कुल जनसंख्या में आज युवाओं की अच्छी-खासी संख्या है, जहां हमारे देश में 3,560 लाख जनसंख्या लगभग 10-24 वर्ष की आयु की है, वही हरियाणा में 15 से 24 वर्ष की आयु के युवा लगभग 52,45,000 है।

ऐसी स्थिति में सवाल ये उठता है कि क्या उच्च शिक्षा युवाओं के सपनों और उम्मीदों को पूरा करने में मदद कर पा रही है?  होना तो यही चाहिए कि उच्च शिक्षा युवाओं के ज्ञान में और अधिक वृद्धि करे, ज्यादा प्रभावशाली और आत्मविश्वासी बनाये, लेकिन हालात कुछ और ही बयां कर रहे हैं। एक ओर तो मानविकी विषयों की तरफ से आम छात्रों का रुझान लगातार घटता जा रहा है जिसका कारण रोजगार है क्योंकि छात्र उन पाठ्यक्रमों या कोर्सों की तरफ आकर्षित हो रहे हैं जिनसे उन्हें रोजगार हासिल करना आसान लगता है। दूसरा आज उच्च शिक्षा प्राप्त बहुत बड़ी युवाओं की आबादी डिग्रियां हासिल करके भी बेरोजगारों की भीड़ में पहले से ही शामिल है। जिसका एक कारण गुणवत्ता की कमी है, अगर हम गुणवत्ता युक्त शिक्षा की बात करें तो हरियाणा के स्नातक के विद्यार्थियों को यह ना के बराबर ही मिलती है और स्नातकोत्तर की गुणवत्ता का स्तर भी बहुत कम है, हालात ये बने हुए हैं, कि ये उच्च शिक्षाधारी अधिकतर अपनी पढाई पूरी करके दिल्ली की तरफ किसी प्राइवेट संस्थान से कोचिंग लेते हुए नजर आते हैं।

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भारत में बेरोजगार युवाओं की संख्या लगभग 15.50 प्रतिशत है जबकि हरियाणा में बेरोजगारी दर लगभग 34 प्रतिशत है। बेरोजगारी अपनी चरम सीमा पर है, ऐसे में पढ़े -लिखे युवाओं में भी निराशा घर करती जा रही है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब फतेहाबाद की रहने वाली दो बहनों ने बेरोजगारी की समस्या से परेशान होकर अप्रैल माह में अपनी जान दे दी। उससे पहले भी ऐसे मामले सामने आये हैं।  एक सरकारी चपड़ासी की नौकरी के लिए हजारों ‘पी.एच.डी.’ धारक आवेदन करते हैं, ऐसे में स्नातक और स्नातकोत्तर के हालात तो समझ में आते ही हैं।

व्यावसायिक और प्रबन्धन से जुड़े विषयों का अध्ययन करने वाले छात्रों के मामले में भी रोजगार की हालत ‘वही ढाक के तीन पात’ वाली है। ‘प्रोफेशनल डिग्री’ लेने के बाद भी युवाओं को समझ में नहीं आता कि किस दिशा में जाना चाहिए। ‘बी. टेक.’ में अलग-अलग विशिष्ट किस्म की डिग्री हासिल करने वाले युवा भी आखिर में एस.एस.सी. या सी.जी.एल. की तैयारी में सिर खपाते नजर आ जाते हैं।

छात्रों का अच्छा-ख़ासा हिस्सा गुणवत्ता युक्त शिक्षा हासिल करने के मकसद से विदेशों में भी शिक्षा ग्रहण करने जाता है ताकि वहां पर पढ़ाई करके ज़्यादा से ज़्यादा पैसा कमा सके। परन्तु इस किस्म की उच्च शिक्षा अधिकतर आबादी की पहुँच से तो बाहर ही है।

सरकारें सार्वजनिक शिक्षा से हाथ खींच कर इसे बिकाऊ माल में तब्दील कर रही हैं। व्यावसायिक और तकनीकी शिक्षा के नाम पर तमाम कोर्सों को स्व-वित्तपोषित बनाया जा रहा है। सरकार ने शिक्षा के बजट में करीब 50 फ़ीसदी की कटौती की है और आइआइटी की फीस में भी करीब 122 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की है।

यदि सही मायने में शिक्षा है तो वह लोगों को समाज में फैली समस्याओं से मुंह मोड़ना नहीं सिखाती बल्कि उनके समाधान की तरफ उन्मुख करती है। बेहतर शिक्षा न केवल समाज के मानस का निर्माण करती है बल्कि इसे बेहतरीन रूप से ढालती भी है।  शिक्षा का मकसद सबको समानता से देखने का दृष्टिकोण पैदा करना है पर आमतौर पर यह देखा जाता है कि हरियाणा के महाविद्यालय में केंद्रीय पुस्तकालय एवम महिला छात्रावास के बन्द होने में भी अन्तर पाया जाता है।

विश्वस्तरीय सर्वेक्षण और शोधों में हमारे विश्वविद्यालय एवम महाविद्यालय बहुत अधिक पिछड़े हुए पाये जाते हैं। उच्च शिक्षा ऐसी होने चाहिए जो युवाओं को लिंग, रंग, जाति और धर्म से ऊपर उठाए यानी हर चीज के प्रति सही नजरिए से सोचने की कुव्वत भी प्रदान करे। परन्तु हमारे यहां जमीनी हकीकत इससे बहुत अलग है। इसका एक उदाहरण तो हाल में ही घटित आरक्षण आन्दोलन है जिसमें जातिवाद का जहर इस कदर फैला कि युवा वर्ग भी इसकी चपेट में आ गया जिससे उसे एक भयावह रूप मिला। होना तो यह चाहिए था कि प्रदेश के पढ़े-लिखे युवा आरक्षण के सवाल पर तमाम नेताओं के बयानों की असलीयत लोगों के सामने रखते और उनसे आपस में एक-दूसरे का सिर न फोड़ने की अपील करते, पर यहां तो खुद ऐसे नौजवान ही वही सब कुछ कर रहे थे।

उच्च शिक्षा की शैली ऐसी हो कि वह संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठा कर युवाओं को तार्किक तौर पर सोचना सिखाये  किन्तु हमारे यहाँ पर शिक्षा व्यवस्था कहीं न कहीं उद्योग की सेवा में तो लगी है और ज्ञान-तर्क-विवेक और जनवादी मूल्यों से रिक्त है।

शिक्षा का काम अज्ञान का बोझ हटाना होता है किन्तु हमारे यहाँ पर शिक्षा स्वयं में ही एक बोझ बनकर रह गयी है।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 63
 

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