स्टेज पर वह मां  की आखिरी रात थी – संजीव ठाकुर

व्यक्तित्व

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मैं तब साढ़े तीन बरस का था। सिडनी, मेरा भाई, मुझसे चार बरस बड़ा था। मां थिएटर कलाकार थीं, हम दोनों भाइयों को बहुत प्यार से लिटाकर थिएटर चली जाती थीं। नौकरानी हमारी देखभाल किया करती थी। रोज रात को थिएटर से लौटकर मां हम दोनों भाईयों के लिए खाने की अच्छी-अच्छी चीजें मेज पर ढंक कर रख देती थीं। सुबह उठकर हम दोनों खा लेते थे और बिना शोर मचाए मां को देर तक सोने देते थे।

सिडनी हाथ के करतब दिखाना जानता था। एक बार उसने दिखाया कि वह सिक्का निगल कर अपने सिर के पीछे से निकाल सकता है। बस मैंने उसकी नकल कर डाली। मैंने एक सिक्का निगल लिया। मां को डाक्टर बुलवाना पड़ा।

मेरी स्मृति में पिता भी हैं जो मां के साथ नहीं रहा करते थे और दादी भी जो हमेशा मेरे साथ छोटे बच्चों जैसी बातें किया करती थीं। उनका घर का नाम स्मिथ था। मैं छह साल का भी नहीं हुआ था कि वे चल बसीं।

मां को कई बार मजबूरी में भी काम पर जाना पड़ता था। सर्दी-जुकाम के चलते गला खराब होने पर भी उन्हें गाना पड़ता था।  इससे उनकी आवाज कभी-कभी गायब हो जाती और फुसफुसाहट में बदल जाती। श्रोता चिल्लाना और मां का मजाक उड़ाना शुरू कर देते। इस चिंता में मां मानसिक रूप से बीमार जैसे होने लगीं। उनको थिएटर से बुलावा आना भी बंद होने लगा। मां की इस परेशानी की वजह से केवल पांच वर्ष की उम्र  में ही मुझे स्टेज पर उतरना पड़ा। मां उन दिनों मुझे भी अपने साथ थिएटर ले जाया करती थीं। एक बार गाते-गाते मां की आवाज फट गई और फुसफुसाहट में बदल गई। श्रोतागण कुत्ते और बिल्लियों की आवाजें निकालने लगे। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। मां स्टेज छोड़ कर चली गईं। स्टेज मैनेजर मां से मुझे स्टेज पर भेज देने की बात कर रहा था। उसने मां की सहेलियों के सामने मुझे अभिनय करते देखा था। स्टेज मैनेजर मुझे स्टेज पर लेकर चला ही गया और मेरा परिचय देकर वापिस लौट आया। मैं गाने लगा। गाने के बीच में ही सिक्कों की बरसात होने लगी। मैंने सिक्कों  को बटोरना ज्यादा जरूरी समझा और दर्शकों को साफ -साफ  कह दिया कि पहले मैं सिक्के बटोरूंगा, फिर गाऊंगा। इस बात पर दर्शक ठहाके लगाने लगे। स्टेज मैनेजर एक रूमाल लेकर स्टेज पर आया और सिक्के बटोरने में मेरी मदद करने लगा। मुझे लगा कि वह मेरे सिक्के ले लेगा, सो दर्शकों से भी यह बात मैंने कह दी। इस बात पर ठहाकों का दौर ही चल पड़ा। स्टेज मैनेजर जब सिक्के बटोर कर जाने लगा, तब मैं भी उसके पीछे-पीछे चल पड़ा। सिक्के की पोटली मां को सौंपे जाने पर ही मैं वापिस स्टेज पर आया। फिर जमकर नाचा, गाया, मैंने तरह-तरह की नकल करके दिखाई।

अपने भोलेपन में मैं मां की खराब आवाज और फुसफुसाहट की भी नकल कर बैठा। लोगों को इससे और अधिक मजा आया और वे फिर सिक्के बरसाने लगे। मैं अपने जीवन में पहली बार स्टेज पर उतरा था और वह स्टेज पर मां की आखिरी रात थी।

यहीं से हमारे जीवन में अभाव का आना शुरू हो गया। मां की जमा पूंजी धीरे-धीरे खत्म होती गई। हम तीन कमरों वाले मकान से दो कमरों वाले मकान में आए, फिर एक कमरे के मकान में। हमारा सामान भी धीरे-धीरे बिकता गया। मां को स्टेज के अलावा कुछ आता नहीं था, लेकिन उन्होंने सिलाई का काम शुरू कर दिया। इससे  कुछ पैसे हाथ में आने लगे। घर का सामान तो धीरे-धीरे बिक ही गया, पर मां थिएटर की पोशाकों वाली पेटी सम्हाले हुए थीं। शायद कभी उनकी आवाज वापिस आ जाए और उन्हें थिएटर में काम मिलना शुरू हो जाए। उन पोशाकों को पहन कर मां तरह-तरह के अभिनय कर मुझे दिखलातीं। ढेर सारे गीत और संवाद सुनाती। अपनी अज्ञानता में मैं मां को फिर से स्टेज पर जाने को कहता। मां मुस्कुरातीं और कहती, ‘वहां का जीवन नकली है, झूठा है।’

हमारी गरीबी की कहानी यह थी कि सर्दियों में पहनने के लिए कपड़े नहीं बचे थे। मां ने अपने पुराने रेशमी जैकेट को काट कर सिडनी के लिए एक कोट सी दिया। सिडनी वह कोट देखकर रो पड़ा। मां के समझाने-बुझाने पर वह कोट पहन कर स्कूल तो चला गया, लेकिन लड़के उसे चिढ़ाने लगे। मां की ऊंची एड़ी की सैंडिलों को काट-छांट कर बनाए गए सिडनी के जूते भी कम मजाक के पात्र नहीं थे! और मां के पुराने लाल मोजों को काटकर बनाए मोजों को पहनकर जाने की वजह से लड़कों ने मेरा भी खूब  मजाक बनाया था।

इतनी तकलीफोंं को सहते-सहते मां को आधी सीसी सिरदर्द की शिकायत शुरू हो गई। उन्हें सिलाई का काम भी छोड़ देना पड़ा। अब हम गिरिजाघरों की खैरात पर पल रहे थे, दूसरों की मदद के सहारे जी रहे थे। सिडनी अखबार बेचकर इस गरीबी के विरुद्ध थोड़ा लड़ रहा था। ऐसे में एक चमत्कार जैसे हुआ। अखबार बेचते हुए बस के ऊपरी तल्ले की एक खाली सीट पर उसे एक बटुआ पड़ा हुआ मिला। बटुआ लेकर वह बस से उतर गया। सुनसान जगह पर जाकर उसने बटुआ खोला तो देखा कि उसमें चांदी और तांबे के सिक्के भरे पड़े हैं। वह घर की तरफ  भागा। मां ने बटुए का सारा सामान बिस्तर पर उलट दिया। बटुआ अब भी भारी लग रहा था। बटुए के भीतर भी एक जेब थी। मां ने उस जेब को खोला तो देखा कि उसके अंदर सोने के सात सिक्के छुपे हुए हैं। हमारी खुशी का ठिकाना नहीं था। बटुए में किसी का पता भी नहीं था। इसलिए मां की झिझक थोड़ी कम हो गई। मां ने इसे ईश्वर के वरदान के रूप में ही देखा।

धीरे-धीरे हमारा खजाना खाली हो गया और हम फिर गरीबी की ओर बढ़ गए। कहीं कोई उपाय नहीं था। मां को कोई काम नहीं मिल रहा था। उनका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं चल रहा था। इसलिए उन्होंने तय किया कि हम तीनों यतीमखाने में भर्ती हो जाएं

यतीमखाने में भी कम कठिनाइयां नहीं थी। कुछ दिनों बाद हम वहां से निकल आए। सिडनी जहाज पर नौकरी करने चला गया। मां फिर से कपड़े सीने लगीं। मैं कभी फूल बेचने जाता तो कभी कागज के खिलौने बनाता। किसी तरह गुजारा हो रहा था।

एक दिन मैं बाहर से आ रहा था कि गली में बच्चों ने बताया, ‘तुम्हारी मां पागल हो गई है।’ उन्हें पागलखाने में भर्ती करवाना पड़ा। सिडनी जहाज की नौकरी छोड़ कर चला आया। उसके पास जो पैसे थे वह मां  को देना चाहता था। लेकिन  मां की स्थिति ऐसी नहीं थी कि उस पैसे को ले पातीं। जहाज से लौट कर सिडनी ने नाटकों में काम करना शुरू कर दिया। मैंने कई तरह के काम  किए – अखबार बेचे, खिलौने बनाए, किसी डाक्टर के यहां नौकरी की, कांच गलाने का काम किया, बढ़ई की दुकान पर रहा। इन कामों से जब भी समय बचता  मैं किसी नाटक कम्पनी के चक्कर लगा आता। लगातार आते-जाते आखिर एक दिन एक नाटक में मुझे काम मिल ही गया। मुझे मेरा रोल दिया गया। मैं उसे पढऩा ही नहीं जानता था। उसे लेकर मैं घर आया। सिडनी ने बड़ी मेहनत की और तीन ही दिनों में मुझे अपना रोल रटवा दिया।

नाटकों का यह हाल था कि कभी प्रशंसा मिलती तो कभी टमाटर भी फैंके जाते। ऐसे में एक दिन मैंने अमरीका जाने का निश्चय कर दिया। सिडनी के लिए चिट्ठी छोड़ कर एक नाटक कम्पनी के साथ अमरीका चला गया। वहां कई नाटक किए। एक नाटक में मेरा काम देखकर एक व्यक्ति ने फैसला किया कि जब कभी वह फिल्में बनाएगा, मुझे जरूर लेगा। बहुत  दिनों बाद ही सही वह दिन आया और मैक सीनेट नाम के उस व्यक्ति ने मुझे ढूंढ निकाला। अपी ‘की-स्टोन कॉमेडी कम्पनी’ में नौकरी दी। फिल्मों का यह काम मेरे  पिछले कामों से बिल्कुल अलग था। एक बार शूटिंग करते  वक्त निर्देशक ने कहा, ‘कुछ मजा नहीं आ रहा है। तुम कोई कॉमिक मैकअप करके जाओ।’ मैं ड्रेसिंग रूम में गया। इधर-उधर देखा। पास ही एक ढीली-ढाली पतलून थी। मैंने उसे पहन लिया। उस पर एक खराब-सा बैल्ट बांध दिया। ढूंढ-ढांढ कर एक चुस्त  कोट पहन लिया। अपने पैरों से बहुत बड़े जूते पहन लिए। छोटी सी टोपी सिर पर डाल ली। बूढ़ा दिखने के ख्याल से टूथब्रश जैसी मूछें लगा ली। एक पतली-सी छड़ी को उठा लिया। आईने में देखने मैं खुद को ही नहीं पहचान पा रहा था। छड़ी लहराते और कमर लचकाते जब मैं बाहर आया तो लोग जोर-जोर से हंसने लगे, ठहाके लगाने लगे। लोगों की हंसी की आवाज सुनकर जब निर्देशक ने मेरी ओर देखा तो वह खुद भी पेट पकड़कर हंसने लगा। हंसते-हंसते उसे खांसी होने लगी। यही मेरा वह रूप था, जो मेरे साथ हमेशा चिपका रहा, लोगों की तारीफें  पाता रहा।    (साभार : बड़ों का बचपन, एकलव्य प्रकाशन)

 

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