मां रही है दर्शा तेरी ये दशा – सुशीला बहबलपुर

कविता

कर दिये गए थे हाथ तेरे पीले
होते-होते किशोर
बिना जाने तेरी मंशा
शायद नहीं था पता तुझे
अर्थ इस गृह बन्धन का
वो बिखरी-बिखरी खुशियां
वो रिश्ते की महक
वस्त्र गहनों की चहक
सब बिखर गई चार दिन की चांदनी मानिद
पसर गया सन्नाटा
बन अन्धेरी रात का शागिर्द
बार-बार मां तेरे तन में से फूटता
यही दु:ख
तुने लुटा दिया हम सब पर सारा अपना सुख
फिर भी क्यों मां
तु मुझे
खुद जैसा चाहती है बनाना
जवानी में भी मां तू
जवान कम, बुढ़ी ज्यादा
कहता है ये तन तेरा
अब भी सोचता है मन बहुतेरा
आधी रात को पड़े खटिया पर
अब गृहस्थी से हूं बेखबर
बहुू बेटा पर रोब जमाऊंगी
जी भर अपनी सेवा करवाऊंगी
लेकिन मां कुछ भी नहीं हुआ
वैसा तूने सोचा था जैसा।
ये उदास आंखें कहती हैं तेरी
हीन दिशाहीन का जग है बेटी
मां सच बता क्या सब ये है तेरे विचार
या व्यवस्था के आगे तू है ही लाचार
फिर क्यों मां
तु मुझे
खुद जैसा चाहती है बनाना
सब कुछ जानकर भी
जग के सम्मुख वस्तु की माफिक
चाहती है सजाना
क्यों मां क्यूं।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (जुलाई-अगस्त 2016) पेज-28
 
 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *