जाट आरक्षणः हिंसा और आगजनी- सुरेन्द्रपाल सिंह

आलेख


ये क्या जगह है दोस्तों, ये कौन सा दयार है

फरवरी 2016 के कुछ दिन हरियाणा प्रदेश के लिए जलजले जैसे दिन थे। शायद इससे पहले इतना अराजक और आगजऩी का माहौल सन् 1947 में देश के बंटवारे के वक्त देखा गया था। थोड़ी उत्सुकता और कुछ सामाजिक रुझान के वश सारे प्रभावित इलाक़ों में कुछ अन्य मित्रों के साथ करीब करीब 2 बार जाना हुआ। कहीं विस्मय, कहीं रुदन को रोकने का असफल प्रयास, कहीं दम्भ भरी मूंछों का ताव, कहीं झूठ और मक्कारी, कहीं अफ़सोस भरे भाव, कहीं बेबसी और लाचारी, कहीं नफरत की सीमेंट से चिनाई की जा रही दीवारें, कहीं मोम की तरह पिघलते दिलों का लावा, कहीं जवान मौत को झेलती माँओं के खुश्क चेहरे, कहीं बदले की भावना की चिंगारी और कहीं कहीं प्रेम के फूलों में सुंदर सुंदर रंग भरते हुए तल्लीन हाथ दिखाई दिए। यूं लगता है जैसे करीब एक महीने में अनेकों वर्ष की जि़न्दगी जी ली हो मैंने।

चाहे रोहतक हो या झज्जर, गोहाना हो या कलानौर, हाँसी हो या कलायत, जहां भी जाना हुआ दर्द और गुस्से की भी जातियां जाट, पंजाबी, सैनी, गुज्जर, बाल्मिकी आदि के रूप दिखाई दी। पहली बार लगा कि जातियां सिर्फ इंसानों में ही नहीं बल्कि मुलभूत इंसानी एहसास और संवेदनाएं भी जातियों के सींखचों में कसमसाती हुई दिखाई दी। गोहाना में अगर एक बाल्मिकी युवक को फरसे से काट कर और आँखों में जेली घुसेड़ कर मार दिया जाता है तो इसका दर्द सिर्फ बाल्मिकी समुदाय को ही है। ना तो मारने वालों को इसका कोई अफ़सोस और ना ही अन्य समुदायों को कोई विशेष पीड़ा। रोहतक में पुलिस द्वारा छात्रों की निर्मम पिटाई का रंग भी जाति के चश्मे से देखा जा रहा है जबकि पिटाई उन सबकी हुई जो भी सामने आ गया। फ़ौज की गोलियों से युवक मरे तो फ़ौज की रेजिमेंट कौन -2 सी थी? यहां भी जाति के लेबल हवा में है।

लूटपाट, आगजऩी, और यहां तक कि मार-काट का दंश जातियों के चौखटे में बंद दिखाई दिया। हिंसा करने वालों की वकालत करने वाले इन वारदातों का जस्टिफिकेशन दे रहे थे या वक्त और परिस्थितियों के अनुसार ये कह कर अपना पल्ला झाड़ने की कवायद करते हुए दिखाई दिए कि उन्हें उन बातों का ज्ञान ही नहीं है या ऐसे काम तो नीची जाति वाले ही कर सकते हैं। जिस सीमा तक जान माल के अलावा दिलों में दरार पड़ने का नुकसान हुआ है उसका एहसास मूंछों के ताव के नीचे बेबस होते हुए दिखाई दिया।

दो बातें कबीलाई गर्व और गौरव को ठेस पहुंचाती महसूस हुई – लूटपाट और महिलाओं से बदसलूकी। जहां आगजऩी और तोड़-फोड़ में गर्वोक्ति का एहसास झलकता हुआ दिखाई दिया वहीं लूटपाट की जिम्मेदारी निम्न जातियों पर शिफ्ट करते हुए बदसलूकी की बात को बदनाम करने के एक बड़े षड्यंत्र के रूप में रखा गया।

उकसाने के तारों की तलाश और कोई तार ना मिलने पर काल्पनिक तार ढूंढने का सिलसिला लगातार दिखाई दिया। अमानवीय स्तर तक कदम उठाने की उत्सुकता को हिम्मत के रूप में पेश किया जाना और उसके लिए अफवाहों का सहारा लेना जैसे जरूरत बन गई थी। जैसे कि ‘रोहतक में पुलिस ने जाट छात्रों की लाशें बिछा दी थी’, झज्जर में ‘छोटू राम धर्मशाला में 35 बिरादरी वालों ने लाशों के टुकड़े टुकड़े कर के डांस किया’, ‘फ़ौज ने नौजवानों के माथों पर गोलियां चला कर लाशों के ढेर लगा दिए हैं’ और ‘फलां जात वालों ने ये कर दिया व फलां ने यूं’। ऐसी अफवाहों ने आग में घी का काम किया लेकिन इन अफवाहों के झूठ पाये जाने पर भी कुछ अति कर गुजरने पर भी किसी अफसोस का एहसास ना के बराबर है।

गांवों में माइक से इकट्ठेहोने का आह्वान और उनका हजारों की संख्या में ट्रालियों में भर कर हाथों में जेली और फरसों को लेकर शहरों की ओर कूच करना, पुलिस और फ़ौज का मूकदर्शक रहना, आम जनता द्वारा डर के मारे घरों में दुबक जाना, टारगेट करके आगजनी, लूटपाट और तोड़ फोड़, घरों में घुस कर सर्वनाश कर देना, कुछ निर्मम हत्याएं भी कर देना, रेल, सड़कों और आम रास्तों को कई कई दिनों तक जाम कर देना – ये मंजर ना जाने कौन सी सभ्यता का संकेत है। कम से कम ये सब देसा में देस हरियाणा की परिकल्पना से तो इंच भर भी मेल नहीं खाता।

18-19 से लेकर 28-30 की उम्र के नौजवान ना तो बुजुर्गों के कहने से रुके और ना ही किसी और के। डीघल में कोई बता रहा था कि अधकचरे पढ़े लिखे, बिन ब्याहे, बेरोजगार लड़कों की लंबी चौड़ी फौज को ये लग रहा था कि आरक्षण मिलते ही उन सबको सरकारी नौकरी मिल जायेगी और आरक्षण की सुविधा लेने के लिए कुछ अतिवाद में जाना ही पड़ेगा। ये सुनकर जेहन में ये सवाल उठता रहा कि गिनी चुनी सरकारी नौकरियों में आरक्षण से इतने बड़े समूह में से कितनों को नौकरी मिल पाएगी? आरक्षण अगर मिल भी गया तो क्या रोजगार का संकट खत्म हो जाएगा?

इस यात्रा के दौरान घटनाओं से जुड़ी सूचनाओं को तोड़ने मरोड़ने का क्रम सहज ही दिखाई दिया। कलायत के गैर जाटों द्वारा बड़ी संख्या में इकट्ठेहोने की घटना से मुकरना, जाट आंदोलनकारियों द्वारा किसी भी तोड़ फोड़ की वारदात से सम्बद्ध ना होने की बात कहना, झज्जर में 35 बिरादरी के नाम से छोटू राम धर्मशाला में आगजऩी और बुत को तोड़ने की घटना से अनभिज्ञता जाहिर करना, जाटों द्वारा छावनी मोहल्ले में आगजनी और हत्या की घटना से पल्ला झाड़ लेना, सुखपुरा चौक रोहतक पर सैनी बिरादरी की दुकानों को आग के हवाले कर देने की घटना को ये कह कर टाल देना कि ये तो उन्होंने मुआवजे के लिए खुद ही किया था, एक बड़े स्कूल और उसकी बसों को, कार एजेंसियों और सैकड़ों कारों को, रेवड़ी, मिठाई, मोबाइल, बैंक, फायर ब्रिगेड, थाने, स्टेशन, बस स्टैंड, अस्पताल, डाकखाना,  तहसील, मार्किट कमेटी, और यहां ़तक कि युद्ध के दौरान भी बख्श दिया जाने वाला रेड क्रास भी आग की लपटों में जले हैं। थानों के अलावा फ़ौज की टुकडिय़ों को भी हेलीकॉप्टर से आना पड़ा और हमलों का सामना करना पड़ा।

पानीपत के पास सिवाह गाँव की पंचायत और लोगों ने मिलकर जिसमें महिलाओं की बड़ी हिस्सेदारी रही है, पानीपत शहर में उपद्रवकारियों को नहीं घुसने दिया और इस प्रकार पूरे शहर को बचा लिया। बालसमन्द में आपसी झगड़े के बाद जाटों और चमारों ने मिलकर अपनी अपनी गलती को स्वीकार करके हालात को सामान्य बना लिया। इनके अलावा कितने ही व्यक्ति, छोटे छोटे संगठन हर प्रकार का खतरा मोल लेकर भी उपद्रव रोकने का प्रयास करते रहे। राज्य के कितने ही इलाके ऐसे थे जो पूर्णतया शान्त रहे।

लेकिन एक बड़ा सवांल है कि ये सब करने वाले या इनको संगठित करने वाले कौन है? जहाँ साफ़ साफ़ वीडियो क्लिप्स हैं, प्रत्यक्षदर्शी भी है वहां भी किसी समुदाय में अप्रत्यक्ष रूप से ही सही कोई स्वीकारोक्ति की भावना दिखाई नहीं देती।

रोहतक में शाम के वक्त खुले पार्क में मज़दूरों के बच्चों को गांधी स्कूल के नाम से पढ़ाने वाले मित्र ने बताया कि अब वहां बच्चों की संख्या आधी के आसपास रह गई है। कारण असुरक्षा और रोजगार का खत्म हो जाना है। शेवरले की एजेंसी में करीब 120 लोग काम करते थे, इसी प्रकार हुंडई में, मारुती में,  स्कूल बस चलाने वाले, कलानौर में रेहड़ी वाले, जलाई गई छोटी छोटी दुकानों वाले हजारों गरीब परिवार बेरोजगारी और भुखमरी के कगार पर आ खड़े हुए है जिन्हें न ही मुआवजा मिल पा रहा है और न ही सहानुभूति।

डीघल गांव का आंदोलनकारियों के साथ झज्जर जाने वाला एक जांगड़ा परिवार का युवक आर्मी की गोली स��� मारा गया। जब हम वहाँ गए तो उसके घर के सामने वाले घर में मुख्यतया आंदोलन समर्थक चौधरी उस युवक के परिवार की गरीबी और जवान मौत पर सहानुभूति प्रकट कर रहे थे। सरकार से किसी प्रकार का मुआवजा न मिलने पर भी उन्हें आक्रोश था। जब हमने सवाल किया कि खाप ने भी ऐसे परिवारों के लिए पैसा इकठ्ठा किया है तो एकदम रहस्यमय चुप्पी और बचाव की तर्ज पर बताया गया कि खाप तो सहायता करेगी ही। थोड़ी देर बाद एकांत में एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि मौत के तुरंत बाद तो गांव में पूरी हवा बनाई गई कि उसे शहीद का दर्जा दिया जायेगा और उसकी याद में एक मेमोरियल भी बनाया जाएगा। कुछ दिन बाद उन्हीं में से ये कहने लगे कि वो तो अवारा और निक्कमा लड़का था।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( मई-जून 2016), पेज -23 -24

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Author: सुरेंद्र पाल सिंह

जन्म - 12 नवंबर 1960 शिक्षा - स्नातक - कृषि विज्ञान स्नातकोतर - समाजशास्त्र सेवा - स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से सेवानिवृत लेखन - सम सामयिक मुद्दों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित सलाहकर - देस हरियाणा कार्यक्षेत्र - विभिन्न संस्थाओं व संगठनों के माध्यम से सामाजिक मुद्दों विशेष तौर पर लैंगिक संवेदनशीलता, सामाजिक न्याय, सांझी संस्कृति व साम्प्रदायिक सद्भाव के निर्माण में निरंतर सक्रिय, देश-विदेश में घुमक्कड़ी में विशेष रुचि-ऐतिहासिक स्थलों, घटनाओं के प्रति संवेदनशील व खोजपूर्ण दृष्टि। पताः डी एल एफ वैली, पंचकूला मो. 98728-90401

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