हांसी से बही सूफी विचारधारा

हांसी से बही सूफी विचारधारा

स्वामी वाहिद काज़मी

हांसी में स्थित दरगाह चहार कुतब। प्रख्यात चार सूफी संतों का मकबरा ।  ‘कुतब’ शब्द  आदर्श  व्यक्ति प्रयोग होता है। यहां दफन महान सूफी संतों या कुतब जमाल उद दीन हांसवी, बुरहानुद् दीन, कुतुबुद्दीन मनुव्वर और नूरूद्दीन हैं। उस समय के कई मुस्लिम गणमान्य व्यक्तियों के मकबरे भी दरगाह में है जैसे में मीर आलम, बेगम स्किनर और मीर तिजारह, सुल्तान हांसी के हामिदुद्दीन के मुख्य रसद पहुंचाने वाला। आरम्भ में मकबरे शहर की एक छोटी सी मस्जिद के निकट स्थित थे, लेकिन बाद में फिरोज शाह तुगलक ने दरगाह के उत्तरी किनारे पर एक बड़ी मस्जिद बनवाई थी।

आज हम भारत के जिस  भू-भाग को हरियाणा नाम से जानते-मानते हैं, उस प्रदेश में केवल कुरुक्षेत्र ही धर्मक्षेत्र नहीं रहा है। सदियों तक यहां से सूफी विचारधारा भी दूर-दूर तक प्रवाहित रही है। शैख जलालुद्दीन थानेसरी (निधन सन् 1581-82 ई.) और हजऱत नानू शाह (निधन सन् 1650 ई.) जैसी महान सूफी विभूतियां थानेसर की ही थीं। तात्पर्य यह कि एक थानेसर ही नहीं हरियाणा के प्राचीन व ऐतिहासिक नगर और बस्तियां सूफी-संतों से भी आबाद रही है। हरियाणा में इतने अधिक सूफी-सन्त और दरवेश हुए हैं कि उन्हें लेकर एक विशदाकारी शोध-ग्रंथ लिखा जा सकता है।

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हरियाणा के ऐतिहासिक नगर हांसी को आज भी इस बात के लिए बजा तौर पर गर्व करना चाहिए कि बाबा फरीद गंजेशकर (जन्म- सन् 1173, निधन- सन् 1265 ई.) जैसे महान सूफी धर्माचार्य के सबसे प्रिय, सबसे प्रतिष्ठित और संभवतया सबसे प्रथम शिष्य जो सज्जन बने वे खास हांसी नगर के ही थे। उनका नाम है – शैख जमालुद्दीन हांसवी। पं. रतन पिंडौरी ने उनकी उपाधि ‘चहार कुतुब’ लिखी है। यह उपाधि किसी सामान्य सूफी को नहीं, सिद्ध वली और परम साधक दरवेश के लिए ही प्रयुक्त होती है। सूफियों के यहां ‘चहार कुतुब’ उपाधि से विभूषित सन्त का दर्जा इतना बुलंद और उसकी प्रतिष्ठा का स्तर यह होता है कि उसे उसके नाम से नहीं, अलंकरण अथवा उपाधि के शब्द से याद किया और बयान किया जाता है। अत: सूफी ग्रंथों में आपका उल्लेख भी ‘हजरत चहारकुतुब हांसवी’ के रूप में ही मिलता है। आपके पीर अर्थात् दीक्षा-सद् गुरु बाबा फरीद गंजेशकर दिल्ली के सुविख्यात सूफी संत हजरत बख्तियार काकी (निधन सन् 1235 ई.) के शिष्य थे। हजरत बख्तियार का मजार दिल्ली के महरौली इलाके में प्रसिद्ध स्थल है। अपने सद्गुरु के सान्निध्य में साधनारत रहकर बाबा फरीद आगे और साधना के लिए हांसी आ गए थे। उसी दौरान जमाल साहब उनके सम्पर्क में आए और विधिवत् दीक्षा-सम्पदा से मालामाल हुए। बाद में बाबा फरीद साहब हांसी से अजोधन (पंजाब, अब पाकिस्तान में शामिल) जाकर बस गए। आप यहीं रहकर साधनारत रहे।

बाबा फरीद के हाथों सूफी पंथ में दीक्षित होने से पूर्व आप एक सुसम्पन्न संसारी व्यक्ति थे। बहुत बड़े सरकारी पदाधिकरी तो थे ही, धर्म-कर्म में अग्रणी होने के कारण आपको खरतीब यानी धर्म-व्याख्याता जैसा सम्मानपूर्ण पद भी प्राप्त था। किन्तु जब बाबा फरीद की शिष्यता ग्रहण की तो गांव, नगर, धन सम्पति सब कुछ त्याग कर फकीरी जीवन के अनुसार जिंदगी गुजारने लगे। आपकी जीवन सहचरी भी संत प्रवृति की फकीरी जीवन में रमीं महिला थीं। उन्हें सम्मानवश ‘मादरे-मोमिना’ (मोमिनों की माता) कहा जाता था।

बाबा फरीद के सर्वाधिक प्रिय शिष्य आप ही थे। उन्हें अपने इस प्रिय शिष्य से स्नेह ही नहीं, उन पर गर्व भी था। वे आपसे बहुत प्रसन्न रहते थे और बहुधा खुश होकर फरमाया करते थे – ‘शैख जमाल मेरा जमाल (सौंदर्य) है।1 बाबा फरीद जब भी अपने पीरों-मुर्शिद से मिलने दिल्ली जाते, आपको भी अपने साथ ले जाते थे। बाबा फरीद के दूसरे सर्वाधिक उल्लेखनीय शिष्य हुए दिल्ली के नामी सूफी संत हजरत निजामुद्दीन (जन्म-सन् 1238, निधन-सन् 1325 ई.) किन्तु बाबा फरीद ने सबसे पहले आपको ही अपना खलीफा चुनकर खिलाफतनामा (वह अधिकारपत्र जिसके द्वारा सूफी सद्गुुरु अपने सबसे सुयोग्य शिष्य को अपना खलीफा अर्थात् जानशीन नियुक्त करते हैं) आप ही को प्रदान किया था। बाद में जब निजामुद्दीन औलिया भी बाबा फरीद के दर्शनार्थ दिल्ली से अजोधन गए और उनसे विधिवत् दीक्षा की दौलत पाई। बाबा फरीद ने उन्हें भी खिल्अत खास से नवाजा। जब निजामुद्दीन औलिया साहब वापस दिल्ली के लिए रवाना हुए तो बाबा फरीद ने उनसे ताकीद की-‘पहले हांसी जाना और वह सनद शैख जमालुद्दीन को दिखाना, फिर देहली का रुख करना और सनद काजी मुन्तखव को भी दिखाना।2 इस घटना से पता चलता है कि आपके सद्गुरु भी आपको कितना मानते और मान देते थे। यहां तक कि वे आपके पीर होते हुए भी आपकी धर्मपत्नी को मादरे-मोमिन ही संबोधित करते थे।

बाबा फरीद के जीवनकाल में ही हांसी में आपका निधन हुआ। बाबा फरीद ने आपके अल्पायु पुत्र बुरहानुद्दीन को वहीं से नमाज पढऩे की एक चटाई, डंडा और वैसा ही खिलाफतनामा भेजा, जैसा आपको भेजा गया था। इसप्रकार शैख बुरहानुद्दीन ही आपके गद्दीधारी बने। सूफी विचारधारा आगे प्रवाहित रही।

शैख जमालुद्दीन हांसवी से एक नए सूफी पंथ का प्रवर्तन हुआ, जो ‘जमाली’ कहलाया। आगे चलकर हांसी में अंकुरित व फले-फूले इस पौधे की शाखाएं दूर-दूर तक फैली। शैख जमाल साहब के वंशजों में से एक पहुंचे हुए दरवेश शाह मुहम्मद खलीलुर्रहमान जमाली हुए, जिन्हें वली कामिल बताया गया है, वे शैख जमाल के सज्जादानशीन भी थे। बाद में हांसी से सहारनपुर चले गए थे और वहीं 74 वर्ष की आयु में सन् 1342 हिजरी में निधन हुआ। वे फारसी, उर्दू व हिन्दी तीनों भाषाओं में कविता भी करते थे। नमूने के लिए एक पद का यह अंश देखें-

होरी खेलूंगी हांसी नगर में।
रैनी चढ़ी है जमाल के घर में।
या मन हू की झांझ बनायो।
उन ही के दफ  सभी बाजायो।
रंग फना का मन में रचायो।
डाल गुलाल बका का सर में।
होरी खेलूंगी हांसी नगर में।3

खलीलुर्रहमान साहब के पुत्र वलीउर्रहमान सन् 1885 ई. में सरसावा (जिला सहारनपुर यू.पी.) में पैदा हुए और तीस वर्ष की उम्र में अपने पिता के खलीफा और हजरत शैख जमाली के सज्जादा नियुक्त हुए। पिता की भांति आपका भी तीनों भाषाओं में कविता करने का उल्लेेख और कुछ काव्योदारहण भी प्राप्त होते हैं। आपकी एक भजन-रचना की आरंभिक पंक्तियां पेश हैं-

मन की खिड़की खोल रे मूरख
मन की खिड़की खोल।
न जा काशी, न जा मथरा
न जा मस्जिद, न जा गिरजा
मन के अंदर ढूंढ सजन को
मत फिर डांवा डोल।
न की खिड़की खोल दे मूरख,
मन की खिड़की खोल।4

सुना है सरसावा में आपका मजार विद्यमान है और पूजित-सेवित भी है। आज सहारनपुर और सरसावा में शायद कम ही  लोग इस तथ्य से परिचित होंगे कि उनके यहां के इन सूफी-संतों का उद्गम हरियाणा का हांसी नगर है, वहीं से वह प्रेम-गंगा बही थी।

संदर्भ-

  1. डा. शैलेश जैदी-अलखवानी (प्रस्तावना), पृ. 60
  2. इशरत रहमानी-‘ख्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया ताहा इस्लामी    डाइजेस्ट (नयी दिल्ली), जून 1991Ó
  3. पंडित रतन पिंडौरवी-हिन्दी के मुसलमान शुअरा, पृ. 466
  4. वही, पृ. 467

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र,  देस हरियाणा ( नवम्बर-दिसम्बर 2017), पेज – 19-20