वी.बी.अबरोल – डॉ. ओम प्रकाश ग्रेवाल : एक जुझारू अध्यापक

संस्मरण


प्रो. ओम प्रकाश ग्रेवाल के सौम्य, शालीन व्यक्तित्व में ही कहीं छिपा था एक जुझारूपन जो इन्सानी कद्रों के साथ हो रही बेइंसाफी के प्रति विरोध की भावना से अपनी खुराक पाता था। उच्च कोटि का विद्वान होने के साथ-साथ वे मानवीय मूल्यों और न्यायोचित व्यवस्था के पक्षधर भी थे। उन की शख्सियत के इसी पहलू को उजागर करता है डॉ. वी.बी.अबरोल  का यह लेख। डॉ. अबरोल दयाल सिंह कॉलेज, करनाल में अँग्रेजी के प्राध्यापक हैं और प्रो. ग्रेवाल के ऐसे अन्तरंग सहयोगी रहे जिन्होंने उन  के संघर्षों को बड़े करीब से देखा और महसूस किया।  – सम्पादक।

आम तौर पर हमारे समाज में माना जाता है कि एक अध्यापक का पढऩे-पढ़ाने के अलावा दीन-दुनिया से क्या लेना-देना। जो कुछ रूखा-सूखा मिल जाय, बिना किसी शिकायत उसी में गुजारा करना चाहिए। अपना हक माँगने के लिए हड़ताल ?  बाबा रे बाबा! राष्ट्र निर्माता भी कहीं ऐसी बातें करते हैं? जैसे राष्ट्र निर्माता आदमी नहीं होता, जिन्दा रहने के लिए उस की  कोई भौतिक ज़रूरतें नहीं होतीं। मुश्किल तो यह है कि अध्यापक ने भी यह मान लिया है कि अपना हक हासिल करने के लिए सामूहिक संघर्ष सम्मानजनक नहीं है। यह प्रवृत्ति विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के शिक्षकों में ख़ास तौर पर दिखाई देती है।

            हरियाणा में तो वैसे ही संघर्ष द्वारा अपने अधिकार प्राप्त करना हमारी चेतना का हिस्सा नहीं है। कहीं अफसर के अगाड़ी और घोड़े के पिछाड़ी भी चला जाता है? ऐसे सामाजिक माहौल में देश के प्रतिष्ठिïत दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त करने के बाद फुलब्राइट फेलोशिप पर अमेरिका के जाने-माने रोचेस्टर विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि ले कर यदि ग्रेवाल साहब अपना करियर बनाने की ओर ही ध्यान लगाते तो किसी को उन से शिकायत न होती। ऐसा नहीं है कि वे इस मामले में पिछड़ गए। हरियाणा के सब से पुराने, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में अँग्रेजी साहित्य के प्रोफेसर एवं शैक्षणिक मामलों के डीन का पद प्राप्त करना करियर के लिहाज़ से कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। पर वे यदि करियरिस्ट होते तो देश के किसी और भी बड़े तथा प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भी इन पदों को हासिल कर सकते थे या अमेरिका से वापस ही न लौटते। हमारे देश में अमेरिका में किसी बड़े ओहदे तक पहुँचने से बड़ी उपलब्धि और कोई नहीं मानी जाती।

            किन्तु तिकड़मबाजी से ऊँचे पद तक पहुँचना ग्रेवाल साहब का लक्ष्य नहीं था। वे झूठी विनम्रता के शिकार नहीं थे। यह दिखावा नहीं करते थे कि ”बन्दा किस काबिल है?’’ वे अपनी क्षमताओं को जानते थे, अपने को कम नहीं आँकते थे। पर यह मानते थे कि जीवन में आगे बढऩे का हक सब को है और सब को उस के अवसर मिलने चाहिएं। प्रोफेसरशिप और डीन के पद उन्होंने अपने अधिकार के तौर पर प्राप्त किए, किसी दूसरे का हक मार कर नहीं। मेरा यह मानना था कि कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वालों के लिए एक रनिंग ग्रेड तो हो पर रीडर और प्रोफेसर के पद केवल उन को मिलने चाहिएं जिन का अपने विषय में विशेष काम हो। इन पदों को सस्ता नहीं बनाना चाहिए। एक लम्बी बहस के बाद डॉक्टर साहब ने मुझे भी कायल कर दिया कि शिक्षण संस्थाओं में शिक्षा के लिए अच्छा वातावरण बनाने के सन्दर्भ में यह ज़रूरी है कि वहाँ किसी भी प्रकार का अभिजात्य न हो और सब को आगे बढऩे के समान और समयबद्ध अवसर मिलें, नहीं तो पढ़ाई-लिखाई के बजाय लोग सीमित अवसरों को प्राप्त करने के लिए एक दूसरे को अडंग़ी मारने में ही लगे रहेंगे। आिखर ठहरा हुआ पानी सड़ांध तो मारेगा ही। विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को इस सड़ांध से मुक्ति दिलाना ज़रूरी है।

            जाहिर है , ग्रेवाल साहब सब को आगे बढऩे के अवसर मिलने की वकालत लोगों की हवस को शान्त करने के लिए नहीं बल्कि उच्च शिक्षा के संस्थानों में बेहतर शैक्षणिक माहौल बनाने के लिए करते थे। देश भर के कॉलेजों में आज शिक्षक आगे बढऩे के अवसर न मिलने के कारण ज़बरदस्त घुटन का शिकार हैं। इन दमघोटू हालात के चलते शिक्षा के स्तर में समय के साथ जो सुधार आना चाहिए था, वह ठहर सा गया है। सरकार भी उच्च श्क्षिा को अभिजात्य वर्ग की सीमित आवश्यकताओं को पूरा करने के साधन से अधिक कुछ नहीं मानती। आगे बढऩे के अवसर तो दूर की बात, आज तो शिक्षक अपने अस्तित्व की ही लड़ाई लड़ने के लिए मजबूर हो गया है। इस का फायदा उठा कर कुछ तत्व शिक्षा में वैज्ञानिक चेतना और धर्म निरपेक्ष अन्तर्वस्तु को कमजोर कर रहे हैं। इन गम्भीर चुनौतियों भरे समय में हरियाणा का शिक्षक आन्दोलन ग्रेवाल साहब के वैचारिक नेतृत्व से वंचित हो गया है।

            वैचारिक नेतृत्व का मतलब यह कतई नहीं कि ग्रेवाल साहब केवल बन्द कमरे में चन्द लोगों के कान में फूँक मार कर उन के कन्धे से बन्दूक चलाते थे। यह सच है कि उन्होंने शिक्षक संघ में न केवल कभी कोई पद नहीं माँगा बल्कि जब उन को पद देने की कोशिश की गयी तो भी स्वीकार नहीं किया। पर ऐसा कर के वह िजम्मेदारी से पीछा नहीं छुड़ा रहे थे। कुरबानी का समय आने पर वे सब से अगली कतार में सब से आगे खड़े हुए मिले। महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक में जब शिक्षक संघ का नेतृत्व कुलपति की नाराज़गी का शिकार हो कर आन्दोलन का रास्ता अपनाने के लिए मजबूर हुआ तो आरम्भ में जातिवादी और रूढि़वादी भावनाओं को भड़का कर कुलपति महोदय आन्दोलनकारियों को अलग-थलग करने में कामयाब रहे। इस पर शिक्षक संघ की बैठक में संघर्ष को और सघन करने, और गति देने का निर्णय लिया गया। शिक्षक संघ के अध्यक्ष डॉ. भीम सिंह दहिया ने आमरण अनशन पर बैठने का प्रस्ताव रखा। कुछ और साथियों ने भी अपने-अपने हाथ उठाए। इस समय ग्रेवाल साहब ने कहा कि सिद्धांत रूप से वह आमरण अनशन पर बैठने के समर्थक नहीं हैं। आमरण अनशन अन्तिम हथियार होता है। दस दिन बाद जब अनशनकारी की हालत बिगड़ने लगती है तो सरकार की संवेदनहीनता के चलते हम उस की जान बचाने के लिए खुद समझौते के रास्ते ढूंढने लगते हैं। फिर भी यदि सब की यह राय बनी है तो अनशन पर संघ का अध्यक्ष या अन्य नेतृत्वकारी साथी नहीं बैठेंगे। फिर आन्दोलन कौन चलाएगा? अनशन पर बैठना ही है तो कोई ऐसा आदमी बैठे जो भागदौड़ के काम न कर सकता हो और हम सब में मुझ से निकम्मा कौन है? बड़ी चतुराई से उस नि:स्वार्थ आदमी ने सब के तर्क काट कर यह मानने के लिए मजबूर कर दिया  कि आमरण अनशन पर तो वही बैठेगा। उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि आमरण अनशन वह अपनी शर्तों पर करेंगे। नींबू-पानी के अलावा अपनी जान बचाने के लिए वह और कुछ नहीं लेंगे। दस दिन बाद जब तबीयत बिगड़ने लगी तो डॉक्टरों की सलाह पर उन्हें बिना बताए नींबू पानी में इलेक्ट्रॉल्स मिला कर देने की कोशिश की गयी पर एक घूंट मुँह में लेते ही वे समझ गए और पानी थूक दिया। देखभाल करने वाले साथी को जो झाड़ पड़ी वह अलग।

            जब ग्रेवाल साहब के आमरण अनशन पर बैठने की खबर अखबारों के ज़रिए फैली तो न केवल हरियाणा बल्कि अन्य प्रदेशों के विश्वविद्यालयों के शिक्षक और बुद्घिजीवी चिन्तित हो उठे और विश्वविद्यालय प्रांगण में एक विशाल रैली हुई जिस से सरकार ने भी दबाव महसूस किया। एक प्रमुख मन्त्री महोदय ने यह आश्वासन  दे कर उन का अनशन तुड़वाया कि शिक्षक संघ की माँगें यदि एक समय सीमा में नहीं मानी गईं तो वे मन्त्री पद से इस्तीफा दे देंगे। (मन्त्री महोदय ने इस्तीफा दिया भी और दो दिन बाद वापस ले लिया, यह एक अलग कहानी है। वैसे भी मेरा उद्देश्य उस आन्दोलन का इतिहास आप के सामने रखना नहीं है।)

            31 जुलाई से १० दिसम्बर तक चलने वाले उस आन्दोलन में ग्रेवाल साहब का योगदान अनशन के साथ ही समाप्त नहीं हो गया। अभी उन्होंने पूरी तरह से स्वास्थ्य लाभ भी नहीं किया था कि छात्रों ने संघ के समर्थन में जेल जाने का फैसला किया। ग्रेवाल साहब का कहना था कि छात्रों के साथ शिक्षकों का कोई प्रतिनिधि भी जेल जाएगा। एक बार फिर, उन्होंने सब को कायल कर दिया कि जेल में ‘आराम’ करने के लिए उन जैसे ‘निठल्ले’ से बेहतर और कौन हो सकता है। यहाँ मैं स्पष्ट कर दूँ कि जिस आन्दोलन में उन्होंने इतनी कुरबानियाँ दीं, उस में उन का अपना कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं था। कुलपति महोदय ने विश्वविद्यालय कार्यकारिणी की अगली मीटिंग के एजेंडा में उन को अँग्रेजी साहित्य विभाग में प्रोफेसर के पद पर स्थायी करने का आइटम रखा हुआ था पर उन्होंने वापस रीडर के पद पर कुरुक्षेत्र जाने का फैसला किया।

            कुरुक्षेत्र लौटने के बाद भी वे चैन से नहीं बैठे। वे मानते थे कि विश्वविद्यालय केवल शिक्षक और शिक्षार्थियों से नहीं चलता। गैर शिक्षक कर्मचारी भी उस का एक महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं। प्रशासन को उन की जायज़ माँगों को मानना चाहिए न कि दमनकारी रवैया अपनाना चाहिए। जब कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में गैर शिक्षक कर्मचारी संघ संघर्ष के लिए मजबूर हुआ तो ग्रेवाल साहब ने खुले आम उन के साथ एकजुटता का इज़हार किया और आन्दोलन के समर्थन में माहौल बनाने में सक्रिय भूमिका अदा की। उन पर रोहतक के आन्दोलन के हश्र का रत्ती भर भी मानसिक दबाव नहीं था।

            डॉ. ग्रेवाल अँग्रेजी साहित्य के एक बहुत ही कामयाब और लोकप्रिय अध्यापक थे। हमारे यहाँ कामयाब अक्सर वह अध्यापक होता है जो विद्यार्थियों को परीक्षा के लिए पका-पकाया मसाला परोस दे और लोकप्रिय वह जो हाज़री के बारे में सख़्ती न बरते। बेशक, डॉ. ग्रेवाल ने विद्यार्थियों की परीक्षा सम्बन्धी ज़रूरतों को कभी नज़रअन्दाज़ नहीं किया पर न उन्होंने पका-पकाया परोसा, न नियमों में ढिलाई बरती। उन की कामयाबी और लोकप्रियता का कारण था वह सहजता जिस के साथ वह विषय की परतें उधेड़ते हुए उस की गहराई में उतर जाते थे। गहराई तक पहुँच जाने की यह क्षमता  उन्होंने साहित्य और जीवन के गूढ़ अन्तर्सम्बन्धों और जीवन के विभिन्न पक्षों के बारीक अन्तर्सबन्धों की अपनी पैनी समझ से हासिल की थी। उन का मनना था कि शिक्षा जगत सामाजिक सन्दर्भों से कटा हुआ कोई द्वीप नहीं है। इसलिए शिक्षा जगत के संघर्ष शेष समाज के लोकतांत्रिक संघर्षों से अलग-थलग रह कर कामयाब नहीं हो सकते। उन की यह समझ ही अध्यापक, चिन्तक और समाज के विभिन्न पक्षों के लोकतांत्रिक जन संघर्षों के वैचारिक नेता के रूप में उन की सब से बड़ी शक्ति थी।

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