अलीगढ़ : समलैंगिकता पर विमर्श -विकास साल्याण

समलैंगिकता को अलग-अलग दृष्टि से देखा जाता है कुछ समलैंगिकता को मानसिक बीमारी मानते हैं। कुछ इसे परिस्थितियों के कारण उत्पन्न आदत मानते हैं तो कुछ एक सामान्य प्राकृतिक कृत्य मानते हैं। लेकिन तीनों ही स्थितियों में किसी भी प्रकार से इसे अपराध या पाप नहीं माना जा सकता। वह कार्य जिसे बिना किसी को कोई नुकसान पहुंचाए अपनी इच्छा से अपने निजी संतुष्टि के लिए करे तो उसे अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता ।

”नैतिकता की परिभाषा हर एक के लिए अलग होती है, जो लोग शाकाहारी होते हैं वह मांस खाने वाले को अनैतिक समझते हैं, जो लोग शादीशुदा हैं वो लोग तलाक लेने वाले को अनैतिक समझते हैं। नैतिकता की सीमा क्या है? अगर कोई, किसी के नैतिक दायरे से बाहर चला जाए तो क्या उसे सजा मिलनी चाहिए, अगर ऐसा है तो देश के हर एक नागरिक को किसी न किसी  के नैतिक दायरे से बाहर जाने के उल्लघंन में सजा मिलनी चाहिए’’ – अपूर्व असरानी द्वारा लिखित, हंसल मेहता द्वारा निर्देशित व मनोज वाजपेयी द्वारा अभिनीत फिल्म अलीगढ का संवाद है यह।

यह फि़ल्म ऐसे विषय पर बनी है जो भारतीय समाज की नजर में बहुत बड़ा पाप व अपराध है। वह मुद्दा है समलैंगिकता का। विश्व स्तर पर समलैंगिकता को स्वीकृति मिल रही है परन्तु भारत जैसे विकासशील देश में इस विषय पर फि़ल्म बनाना भी अपराध की तरह माना जाता है।

फि़ल्म अलीगढ में रामचन्द्र सिरस (मनोज वाजपेयी) अलीगढ विश्वविद्यालय के भाषा विभाग के अध्यक्ष व मराठी के प्रोफेसर हैं। 64 वर्षीय अध्यापक अकेले रहते हैं, कविता लिखते हैं,संगीत सुनते हैं और अपनी शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए अपने दोस्त की सहायता लेते हैं।

एक स्टिंग ऑपरेशन में दो पत्रकारों द्वारा उनके घर में घुसकर उनके निजी सम्बधों की क्लिप बनाई जाती है और अगले दिन वो खबर सभी अखबारों व न्यूज चैनलों की सुर्खियां बन जाती है और उन्हें परिणामस्वरूप युनिवर्सिटी से निष्काषित कर दिया जाता है और सात दिनों में घर खाली कर देने का नोटिस दिया जाता है और उनके पुतले फूंक कर सामाजिक तौर पर जलील किया जाता है। दीपू(राजकुमार राव) नामक एक पत्रकार जो इस खबर को मानवीय दृष्टि से देखता है और प्रो.सिरस की सहायता के लिए आगे आता है और उनके लेख से कुछ सोशल एन.जी.ओ. उनकी सहायता के लिए आगे आती हैं और उनको थोडी राहत मिलती है।

समलैंगिकता को अलग-अलग दृष्टि से देखा जाता है कुछ समलैंगिकता को मानसिक बीमारी मानते हैं। कुछ इसे परिस्थितियों के कारण उत्पन्न आदत मानते हैं तो कुछ एक सामान्य प्राकृतिक कृत्य मानते हैं। लेकिन तीनों ही स्थितियों में किसी भी प्रकार से इसे अपराध या पाप नहीं माना जा सकता। वह कार्य जिसे बिना किसी को कोई नुकसान पहुंचाए अपनी इच्छा से अपने निजी संतुष्टि के लिए करे तो उसे अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता ।

फि़ल्म में प्रो.सिरस को कोर्ट में व कोर्ट के बाहर समाज में दोनों जगह बदसलूकी की स्थिति का सामना करना पड़ता है। कोर्ट में उनसे पूछा जाता है कि आपका आपके फ्रेंड से कैसा संबंध था ? क्या आप सेक्स करने के लिए पैसे देते थे? आप दोनों के बीच मर्द कौन था ?

समाज में उसको कोई किराये पर कमरा देने को तैयार नहीं। उनसे ऐसा व्यवहार किया जाता है कि जैसे वो कोई इंसान नहीं बल्कि कोई छूत की बीमारी हो।

यह बात अपने आप में चौंका देने वाली है कि डाक्टर भी उससे भेदभाव करता है। डाक्टर का पद हमारे समाज में संकीर्णताओं को तोडऩे वाला होता है।

इस तरह के सामाजिक बहिष्कार के साथ जीना सम्भव कैसे हो सकता है। यह एक अति दयनीय स्थिति है जिसमें मनुष्य को अपना जीवन झूठ के साथ जीना पडता है और वह अपने आपको ही धोखा देता है। ये सब बातें दर्शाती हैं कि भारतीय समलैंगिक कम्युनिटी कैसे अपना जीवन जी रही है। किस तरह वह अपने भावों का दमन करके घुट कर जीते हैं।

लेकिन इसके पीछे किसी इंसान की जुड़ी भावना और उसकी शारीरिक व मानसिक आवश्यकता को कैसे नजरअंदाज कर सकते हैं। इसी भावना को मनोज वाजपेयी फिल्म में एक संवाद के माध्यम से समझाने की कोशिश करते हुए कहते हैं जब पत्रकार दीपू उसके सामने गे शब्द का प्रयोग करता है,तो वह कहता है

‘कोई मेरी फिलिंग तीन अक्षरों से बने शब्द से कैसे समझ सकता है। यह एक कविता की तरह भावात्मक, एक तीव्र इच्छा जो आपके काबू से बाहर होती है – एन अनकंट्रोलएबल अर्ज’’

इस तरह का जीवन जीने में बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। लोग नफरत करने लग जाते हैं। लोग संकेतों से बहुत कुछ बोल जाते हैं। भावनात्मक चोट के घावों को भरना बेहद ही मुश्किल होता है। अंत में प्रो.सिरस सुसाईड कर लेते हैं।

यह एक नया प्रयोग का विषय है क्योंकि  पहले भारतीय सिनेमा में गे की पहचान एक लचीले व नाजुक सा दिखने वाले करैक्टर के रूप में होती थी जो एक लम्बे-चोड़े मर्द को देखकर आकर्षित हो जाता था और हास्य, व्यंग्य तक ही सीमित था परन्तु पहली बार हिन्दी सिनेमा में समलैंगिक (गे) को एक सामान्य पुरुष के रूप में पहचान मिल पाई। यह भी स्पष्ट किया है कि उसका भी अपना जीवन होता है,उसकी कुछ आकांक्षाएं होती हैं और जो लोग नैतिकता का झण्डा उठाए फिर रहे हैं उन्हें शायद नैतिकता की परिभाषा को संशोधित करना पड़ जाए। यह फि़ल्म आने वाली पीढी को एक नई दृष्टि व दिशा प्रदान करेगी ।

सम्पर्क-9991378352

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