सेहत
भारत में 1980-90 के दशकों तक ‘हस्पताल’ सुविधा ज्यादातर सरकारी या पब्लिक क्षेत्र में थी। आर्थिक उदारीकरण के बाद ढांचागत परिवर्तन से सरकारों ने निजी संस्थाओं के लिए सस्ती जमीन, टैक्स छूट, आयात पर छूट इत्यादि की घोषणा की, जिससे बड़े निजी अस्पतालों की स्थापना की शुरुआत हुई।
आज हालात यह हैं कि सरकारों ने अपने स्वास्थ्य ढांचों पर खर्चों की वृद्धि को नहीं बढ़ाया। बड़े उन्नत तथा अनुसंधान उन्मुख संस्थानों को समय की दौड़ में पिछाड़ दिया, जिसका फायदा जल्दी से निजी क्षेत्र ने उठाया।
सरकारों ने नए संस्थान तो बढ़ाए ही नहीं, उल्टा पहले के संस्थानों को ‘आत्मनिर्भर’ बनाने के नाम पर उपयोगकत्र्ता शुल्क तथा सेवाओं को अनुबंध पर कर दिया। यह सब करके सरकारों ने उच्च स्वास्थ्य सेवाओं से अपना पीछा छुड़ाना चाहा तथा अपने-आप को केवल प्राथमिक स्तर की चिकित्सा तक सीमित करने की कोशिश की। इसे लेकर वह लोगों में यह भ्रम फैलाते रहे कि वह अपनी ‘स्वास्थ्य के लिए सामाजिक प्रतिबद्धता’ को नहीं भूली है।
सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के बजट में कटौती 90 के दशक में शुरू हुई। 1992-93 के आर्थिक सुधारों ने पब्लिक स्वास्थ्य सेवाओं के संसाधनों में कटौती की। पांचवें वेतन आयोग का असर यह हुआ कि बजट का विनियोजन (ड्डद्यद्यशष्ड्डह्लद्बशठ्ठ)केवल कर्मचारी वेतन को ही पूरा कर पाता है। आधुनिकीकरण का पूरा बोझ अस्पतालों पर डाला गया कि वो एक उपयोगिता शुल्क (ह्वह्यद्गह्म् द्घद्गद्ग) लेें। अब ये गरीबों के ऊपर दोहरी मार पड़ने लगी। एक तरफ तो जनसंख्या वृद्धि के अनुपात में संस्थानों की संख्या तथा सुविधाएं न बढ़ाए जाने से सरकारी अस्पतालों में इतनी भीड़ रहने लगी कि वहां जाने से लोगों को डर लगने लगा। दूसरा वहां उपयोगिता शुल्क भी लगने लगा, जिससे गरीब और गर्त में धकेला गया।
ये अस्पताल सरकारी बजट की कमी से सुविधाएं तथा समयानुसार आधुनिकीकरण से वंचित रहे, जिससे प्राईवेट क्षेत्र और फलीभूत हुआ। इसी समय में बहुउद्देशीय प्राइवेट संस्थानों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है, परन्तु हमारी राज्य सरकार द्वारा उच्च स्वास्थ्य सेवा के नये केंद्र नहीं स्थापित किये गए।
स्थिति आज यहां तक है कि कभी रेफरल अस्पताल के नाम पर पीजीआई, एआईएमएस आदि अस्पतालों का नाम गर्व से लिया जाता था, उनके नाम की जगह अब प्राईवेट मल्टी-स्पेशयलिटी अस्पतालों ने ले ली है। इन उच्च सरकारी अस्पतालों की रीढ़ की हड्डी माने जाने वाले प्रोफेसर, हेड आफ डिपार्टमेंट तथा उच्चतम कैरियर के डाक्टर भी प्राइवेट मल्टी-स्पेशयलिटी अस्पतालों की चकाचौंध से खुद को दूर न रख पाए। उसकी वजह इन प्राइवेट संस्थानों द्वारा दिए जाने वाला पैसे का लालच, सरकारी राजनीति तथा लाल-फीताशाही से मुक्ति, ऐसा इंफरास्ट्रक्चर तथा तकनीक का प्रदान करना, जिससे डाक्टर को काम करने का उच्चतम वातावरण मिले।
इसका खामियाजा आम जनता को भुगतना पड़ रहा है। प्राइवेट अस्पतालों का मकसद कमाई है, न कि स्वास्थ्य सेवा। हर चीज की एक कीमत है। कमाई बढ़ाने के दबाव में कई बड़े प्राइवेट अस्पताल बिना जरुरत वाली जांच तथा इलाज भी करते हैं। जिन परीक्षण तथा सेवाओं की जरूरत नहीं भी है, वो भी लोकप्रिय कर बेची जाती हैं। यह सब तर्कसंगत देखभाल, चिकित्सा नैतिकता तथा मरीज की सेवा को ताक पर रखकर किया जाता है।
दूसरी तरफ सरकारी उच्च सेवाओं संस्थानों में ऊपर लिखी कमियों के कारण गरीब आज भी इन आधुनिक सेवाओं से वंचित है। इस पर एक विचारणीय पहलू यह भी है कि धीरे-धीरे विशेषज्ञ चिकित्सकों की कमी अब सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य स्तर (जिसकी जिम्मेवारी सरकार लेती है) तक भी खलने लगी है।
इन सबका निचोड़ यह है कि बेशक केंद्र तथा राज्य सरकारों ने मूलभूत स्वास्थ्य सेवाएं (जो कि एक क्लीनिक या नर्सिंग होम समान सेवाओं) पर तो अपना खर्च जारी रखा है, परंतु उन पर भी वह गुणवत्ता की कसौटी पर पिछड़ती नजर आने लगी है। लेकिन चिंता का विषय यह है कि सरकार ने उच्च स्वास्थ्य सेवाओं से अपना पल्ला झाड़ने की जो कोशिश की है, उसका खामियाजा केवल और केवल गरीब भुगत रहा है। भारत जैसे विशाल देश, जो दुनिया के एक-तिहाई गरीबों का घर है, वहां पर उच्च स्वास्थ्य सेवाओं को 100 प्रतिशत प्राईवेटाइज कर उन्हें इन सेवाओं से वंचित करने के घातक दुष्परिणाम हैं।
इसलिए सरकारों को अपनी स्वास्थ्य सेवाओं का बजट आबंटन कम से कम दोगुना करना होगा तथा नए आधुनिक चिकित्सा से लैस मिनी पीजीआई जैसे संस्थान राज्यों में बनाने चाहिएं।
अगर सरकारी क्षेत्र में स्पेशयलिटी अस्पताल, क्लीनिक तथा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र लंबे समय तक न रहे तो स्वास्थ्य सेवाएं तथा उनकी कीमत न केवल गरीब, बल्कि संभ्रात वर्ग की पहुंच से भी बाहर हो जाएगी तथा यह स्थिति सरकारों के लिए भयावह होगी।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा ( अंक 8-9, नवम्बर 2016 से फरवरी 2017), पृ.- 63