याद आते हैं पुराने दोस्त नानक चंद से बातचीत -चंद्र त्रिखा

चंद्र त्रिखा

नानक चंद की उम्र उस समय 21 साल रही होगी, जब पाकिस्तान के नूरगढ़ गांव जिला मुल्तान में उनके गांव पर मुसलमानों ने हमला बोल दिया। पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के अलग-अलग होने की फुसफुसाहट कई दिनों से चल रही थी लेकिन नानक चंद को इन बातों से कोई सरोकार नहीं था और वे अपने पिता के साथ दुकान पर कारोबार में हाथ बंटाते थे। अचानक एक दिन पिता ने गांव छोडऩे का ऐलान कर दिया। बच्चे सहम गए। नानक चंद के भी परिवार में छोटे भाई स्कूल (पाठशाला) गए हुए थे, उन्हें बीच में घर बुलाया गया। इस बीच मुसलमानों की टोलियां उनकी ओर बढऩे लगीं। नानक चंद बताते हैं कि एक बार ऐसा लगा कि उनके लालाजी (पिता) उन्हें अकेले छोड़कर भागने की फिराक में हैं लेकिन बच्चों और महिलाओं ने उनके आगे अपनी सुरक्षा की दुहाई मांगी। हालांकि उनके पिता ऐसा नहीं चाहते थे कि वे बच्चों को छोड़कर जाएं किंतु हालात के बयान यही थे। खैर ऐसा नहीं हुआ और नानक के पिता ने अपने हमउम्र लोगों के साथ कुछ मुसलमान मौजिज लोगों से बात की ताकि वे वहां से सुरक्षित निकल सकें। बात बन गई और कुछ मुसलमान लोग आगे बढ़े तथा उन्हें कुत्तापुर के रास्ते टिब्बा सुल्तानपुर तक छोड़ गए। हालांकि उपद्रवी अपने इरादों से बाज नहीं आए और गांव के चार लोगों को वहीं मार दिया। एक-दो पठानों ने भी इनकी मदद की। बैलगाड़ी और पैदल लोगों का जत्था लाहौर की ओर बढऩे लगा। सामने से आई हिन्दुस्तान की फौज ने उन्हें ट्रकों व रेलगाडिय़ों से लाहौर से आगे हिन्दुस्तान के अलग-अलग शहरों में भेजा। 90 साल की उम्र में नानक चंद शाहपुर बेगू (सिरसा) में अपने घर पर निरंतर रेडियो सुनते हैं। खासतौर पर जब पाकिस्तान से जुड़ी खबर आती है तो उन्हें कहीं कुछ छूटी हुई चीजें याद आती हैं। उन्हें अपने मुसलमान साथी रसूल खां तथा गुलाम कादिर भी याद आते हैं और उन्हें लगता है कि शायद वे अब इस दुनिया में नहीं हैं। शाहपुर बेगू में ही रह रहे दौलत राम भी अब काफी वृद्ध हो गए हैं। उन्हें याद है 1947 का एक मंगलवार जब उनके गांव कोटला दिलबरदा के पड़ोसी गांव पजीवाला को उपद्रवियों ने आग लगा दी। हादसे में गांव के लगभग सभी लोग स्वाहा हो गए। इससे भयभीत दौलत राम के परिवार ने भी अन्य लोगों के साथ गांव छोड़ दिया। पाकिस्तान की पाठशाला में 8 जमात पढ़े दौलत राम बताते हैं कि जैलदारों ने उन्हें परमिट दिलवाए और लाहौर से पहले कान्हा-काशा स्टेशन तक भिजवाया। वहां पहले से ही भारत की फौज मौजूद थी, जिसने उन्हें भारत की सीमा तक पहुंचाया। दौलत राम जब करनाल के तरावड़ी शहर में आ गए और मेहनत मजदूरी करने लगे।

साभार-वे 48 घंटे-डा. चंद्र त्रिखा

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (मार्च-अप्रैल 2017, अंक-10), पेज – 42

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