एक नक्सली का कबूलनामा – गांधी जी को हम हर रोज़ मारते रहे हैं।

असीन राजाराम उर्फ गगनदीप सिंह

11 साल की वह उम्र जब दुनिया एक खुली किताब होती है। हर नया चेहरा, हर नया किरदार, एक सपना बन जाता है। कभी फौजी बनने का जुनून, कभी आर्य समाजी हेड मास्टर की केसरी पगड़ी का आकर्षण, कभी खो-खो प्लेयर की फुर्ती, तो कभी कबड्डी की गर्जना। मैं भी ऐसा ही था—जीवन की दिशा खोजता एक कच्चा बालक। पर यह सिलसिला तब रुका, जब हमारे गाँव में एक नक्सली संगठन के सांस्कृतिक दल ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु पर ‘झूठी आजादी’ नामक नाटक किया। उन गीतों में सरकार के खिलाफ जो आग थी, किसान-मजदूरों और महिलाओं की समस्याओं पर जो आक्रोश था, उसने मेरे अंदर कुछ तोड़ दिया। उसी दिन लगा, यह सही है, मुझे भगत सिंह बनना है।

यह मात्र एक राजनीतिक झुकाव नहीं था, यह एक गहन वैचारिक दीक्षा थी जिसने मुझे वह सम्मान, वह पहचान दी जो मुख्यधारा के समाज की अमानवीय पदानुक्रम (inhuman hierarchy) में दुर्लभ थी। जिस समाज ने हमें हाशिये पर रखा, वहाँ इन संगठनों ने हमें आत्मीयता दी, स्नेह दिया और सबसे बढ़कर, समानतापूर्ण व्यवहार दिया। उनके संगठित नाटकों और क्रांतिकारी गीतों ने मेरे मन में एक वैकल्पिक, शोषण-मुक्त सामाजिक व्यवस्था की कल्पना रोपी।

संगठन ने हमारे लिए एक ‘बाल दस्ता’ बनाया। उन्होंने हमें सिर्फ़ हथियार की ज़रूरत नहीं बताई, बल्कि सबसे पहले कलम दी। हमें लिखना, गाना, नाटक करना सिखाया। हमारी दुनिया एक छोटी-सी पुस्तकालय थी, जहाँ वियतनाम, चीन, रूस की महान क्रांतियां हमारा पाठ्यक्रम थीं। हमने ‘बाल छापामार’ जैसी किताबें पढ़ीं, जहाँ संघर्ष के बीच भी मानवीय रिश्तों की कोमलता थी। हमने गोर्की, चेर्नेवस्की और ओस्त्रोवस्की की रचनाएँ आत्मसात कीं। यह साहित्य हमें मानवीय गरिमा दिखाता था, लेकिन साथ ही एक अत्यंत सहज तरीके से यह स्थापित करता था कि परिवर्तन और क्रांति के लिए केवल हिंसा ही एकमात्र और अनिवार्य साधन है। हमें सिखाया गया कि आंध्र, बिहार और दंडकारण्य में चल रहे हथियारबंद आंदोलन ही वास्तविक मुक्ति संघर्ष हैं। इस वैचारिक संसार में, कला, साहित्य और भावना का उपयोग केवल एक अंतिम सत्य को स्थापित करने के लिए किया गया था: परिवर्तन केवल बंदूक की नली से ही जन्म लेगा।

इस वैचारिक प्रशिक्षण का सबसे महत्वपूर्ण और विनाशकारी स्तंभ था—भारतीय इतिहास का पुनर्लेखन और महात्मा गांधी का विमर्श में खलनायक के रूप में निर्माण। यह एक सुनियोजित, दोतरफा अभियान था, जिसकी नींव में संवैधानिक रास्ते को हमेशा के लिए अमान्य करना था।

पहला पहलू: हिंसा को दार्शनिक रूप से न्यायोचित ठहराना। भगत सिंह के आदर्शवाद को अति-हिंसक रूप दिया गया। 1996 में, ‘नौजवान दस्ता’ ने भगत सिंह के चुनिंदा लेखों—जैसे ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ और ‘बम का दर्शन’—की किताब छापी। इस किताब ने भगत सिंह की सच्ची विरासत को हथियार उठाना घोषित किया। उद्देश्य स्पष्ट था: क्रांति के लिए केवल शारीरिक साहस नहीं, बल्कि हिंसा का दार्शनिक अनुमोदन आवश्यक है, और हमें उस हिंसा के एकमात्र सच्चे वारिस के रूप में स्थापित किया गया।

दूसरा पहलू: गांधी की वैचारिक हत्या। यह सबसे घातक था। ‘भारतीय मुक्ति संघर्ष की कुछ कड़वी सच्चाईयां’ नामक किताब के माध्यम से इतिहास के पन्नों को पलटा गया। इसमें गांधी को सीधा अंग्रेज़ों का दलाल घोषित किया गया। यह वैचारिक आधार बनाया गया कि कांग्रेस की स्थापना ही अंग्रेजों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को कुचलने के लिए की थी, और गांधी की अहिंसा इसी साज़िश का सबसे बड़ा उपकरण थी। यह माना गया कि अहिंसा जनता के क्रोध और विद्रोह को निष्क्रियता (Passivity) में बदलकर ब्रिटिश राज को लंबे समय तक टिकाने के लिए गढ़ी गई थी।

इस विमर्श ने गांधी को हमारी नजरों में खलनायक बना दिया। यह विचार प्रबल था कि गांधी ने जानबूझकर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी रद्द नहीं कराई, क्योंकि वह उस हिंसक क्रांति से डरते थे जिसका सपना भगत सिंह देखते थे। उस समय की प्रचार सामग्री और फिल्मों ने इस मिथक को और मजबूत किया, जिससे वैचारिक आधार को भावनात्मक बल मिला। नतीजतन, हमने भारतीय स्वतंत्रता को एक झूठी आज़ादी माना, जहाँ ‘गोरे अंग्रेजों’ के जाने के बाद ‘काले अंग्रेजों’ का राज आ गया था। हमारी मान्यता थी कि वर्तमान व्यवस्था भगत सिंह के समाजवादी स्वप्न के साथ सबसे बड़ा धोखा है। इसलिए, भारतीय संविधान को भी इसी पूंजीवादी और सामंती शोषण को बनाए रखने का एक उपकरण माना गया, जो जनता को धोखा देता है और क्रांति की संभावनाओं को कुचलता है।

यह वैचारिक नींव इतनी ज़हरीली और मजबूत थी कि वर्षों तक मैंने हिंसा को केवल ‘क्रिया की प्रतिक्रिया’ नहीं, बल्कि परिवर्तन का एकमात्र और अपरिहार्य दार्शनिक आधार माना। मेरे लिए, हिंसा राजनीतिक उपकरण से कहीं ज़्यादा, अस्तित्व का एक अटल सत्य थी।

बंदूक का दर्शन, हिंसा का दुष्चक्र 

लगभग 1998 से 2024 तक, मैंने अपनी पूरी जिंदगी इस अटल विश्वास के लिए समर्पित कर दी कि राजसत्ता का जन्म बंदूक की नली से होकर ही गुज़रेगा। मेरे दर्शन में, बंदूक से ही जनता का राज आना था, बंदूक से ही गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी मिटनी थी, बंदूक से ही महिला समानता आनी थी, और बंदूक से ही जातिवाद खत्म होना था। देश की हर समस्या—आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक—का एकमात्र और अंतिम समाधान मेरे लिए बंदूक था। यह एक ऐसा दर्शन था जिसने किसी भी अन्य रचनात्मक साधन के अस्तित्व को नकार दिया था।

मैंने छत्तीसगढ़, ओडिशा और महाराष्ट्र के सबसे दुर्गम जंगलों में एक लंबा जीवन बिताया। मैं माओवादी पार्टी की प्रेस टीम से लेकर माओवादी सेना पीएलजीए (PLGA) तक का हिस्सा रहा। यह वह युद्ध था जहाँ बंदूक दोनों तरफ़ थी। इस दौरान मेरे साथ के सैकड़ों साथी मारे गये, जिनकी लाशों का हमने अपने हाथों अंतिम संस्कार किया। कुछ लाशें हम उठा भी नहीं पाते थे। वहीं, पुलिस और अर्धसैनिक बलों के सैकड़ों जवान भी माओवादी सेना के द्वारा मारे गए। सबसे विचलित कर देने वाली बात यह थी कि सैकड़ों गाँव वाले, नौजवान आदिवासी मुखबिर के नाम से कत्ल कर दिए गए। ये वही गाँव वाले थे जिनके लिए हम जल-जंगल-जमीन बचाने की वकालत करते थे, जिनकी जनताना सरकार स्थापित करने का सपना देखते थे। माओवादी दीर्घकालीन जनयुद्ध की रोशनी में जो गहरा अंधकार पैदा हुआ, वह मुझे भीतर तक सालता है।

मैंने जिस द्वंद्वात्मक ऐतिहासिक भौतिकवाद को आधार माना था, वह लक्ष्य तो महान रखता था—मानव द्वारा मानव का शोषण समाप्त करना। रूसी क्रांति के 80 साल और चीनी क्रांति के 49 साल बाद भी, जब मैं संघर्ष में था, हमें हिंसा का ही पाठ पढ़ाया जा रहा था। इससे यह स्पष्ट हुआ कि इन महान क्रांतियों ने उद्देश्य में समानता का लक्ष्य तो रखा, लेकिन साधन में हिंसा को चुनने के कारण, वे अपने लक्ष्य की ओर निरंतर बढ़ नहीं पाए। हिंसा ही उनका शाश्वत साधन बनी रही, और इसी हिंसा ने स्वयं उन मूल्यों का दमन कर दिया जिनके लिए क्रांति की गई थी। मानव मुक्ति का स्वप्न, शासक वर्ग की नई कठोरता में बदल गया।

मैंने मानव समाज के इतिहास को बर्बरता के युग से सभ्यता के विकास के क्रम में देखा। मैंने समझा कि संगठित हिंसा का मूल क्या है: यह संपत्ति और राजसत्ता पर कब्ज़ा करने की मूल प्रवृत्ति से उपजा है। यह प्रवृत्ति—जो कबीलाई कत्लेआम, राजाओं के साम्राज्य विस्तार, और आधुनिक राज्यों की नीतियों तक जारी है—हमेशा अल्पमत के लाभ के लिए बहुमत के श्रम और जीवन पर कब्जा करती है।

और सबसे घातक सत्य यह है कि हिंसा के बल पर प्राप्त की गई चीज़ हमेशा हिंसा के बल पर ही छीनी जाती है। यह वह अंतहीन दुष्चक्र (Vicious Cycle) है जो कभी नहीं टूटता, बल्कि सभ्यता की हर नींव को कमजोर करता है।

अहिंसा के रास्ते…

यह मेरी दार्शनिक समझ की पराकाष्ठा थी कि हिंसा समस्या का समाधान नहीं, बल्कि स्वयं समस्या का पुनरुत्पादन है। यह स्पष्टीकरण कि हिंसा पहले राजसत्ता या शोषक वर्ग द्वारा शुरू की जाती है, अब मेरे लिए अपर्याप्त था। हिंसा मानवता के अनुकूल नहीं है, चाहे वह आरंभिक हिंसा हो या उसकी प्रतिक्रिया में की गई प्रतिहिंसा।

जहर, जहर है। किसी भी परिस्थिति में उसके गुण और स्वभाव नहीं बदल सकते। इसी प्रकार, हिंसा और प्रतिहिंसा का मूल भी हिंसा ही है—खून खराबा, मारपीट, अत्याचार, बलात्कार, ज़बरदस्ती। मानव प्राणी एकमात्र ऐसा चेतन प्राणी है जो इस अंतहीन हिंसक सिलसिले को रोक सकता है। पशुजगत अभी विकास के उस पायदान पर नहीं पहुँचा है कि वह सोच सके कि सामने वाले को मारे बिना अपना जीवन यापन कर सकते हैं, लेकिन हम इंसान हैं। किसी भी गुनाह की सज़ा के रूप में प्रतिशोध या ‘खून का बदला खून’ केवल बर्बर समाज की निशानी है। इसीलिए, किसी भी तरह की सार्वजनिक और व्यक्तिगत हिंसा को मौलिक रूप से मानव समाज में कोई स्थान नहीं होना चाहिए। अहिंसा ही मानव विकास के लिए एकमात्र सहायक है।

मेरे संघर्ष के सबसे कठोर वर्षों में भी, जिस द्वंद्वात्मक दर्शन ने मुझे हिंसा के लिए प्रेरित किया, उसी के अंतर्निहित नियम मेरे वैचारिक ढाँचे को तोड़ने लगे। द्वंद्ववाद के केंद्रीय सिद्धांत—कि हर चीज़ परिवर्तनशील है और हर चीज़ के भीतर उसका विरोध निहित है—ने मुझे अपनी ही वैचारिक दुनिया के आंतरिक विरोधाभासों को देखने पर मजबूर किया। यह आंतरिक वैचारिक द्वंद्व था जिसने अंततः मुझे हिंसा के दर्शन की कैद से मुक्त कराया।पर यह मुक्ति, मुक्ति से ज़्यादा आत्मग्लानि का क्रूर अहसास लेकर आई। मुझे उस गहरे वैचारिक अपराध का बोध हुआ जो मैंने अनजाने में किया था—यह केवल राजनीतिक गलती नहीं थी, बल्कि एक मौलिक दार्शनिक अपराध था।मेरे लिये सबसे विचलित कर देने वाली पंक्तियाँ हैं, “गोडसे ने गांधी को नहीं मारा। गांधी जी को हम हर रोज़ मारते रहे हैं।”

यह जानना कि मेरे विचार और मेरे शब्द वर्षों तक गांधी की वैचारिक हत्या करते रहे—यह मेरे जीवन का सबसे कड़वा और सबसे ज़रूरी सत्य था। गोडसे ने उनके शरीर को मारा, लेकिन उसने उनके विचार को अमर कर दिया। वहीं, हमने उनके विचार को मारा, उन्हें नैतिक पटल पर विलेन बनाकर, ताकि हमारा हिंसक रास्ता न्यायसंगत ठहराया जा सके। यह आत्मग्लानि, आज मेरे लिए, सत्याग्रह (Satyagraha) के मार्ग पर चलने का सबसे मजबूत प्रमाण है। यह प्रायश्चित ही वह नैतिक बल है जो मुझे रचनात्मक मार्ग पर दृढ़ता से खड़ा रखता है।

हिंसा का यह परित्याग मेरे लिए मात्र राजनीतिक पलटाव नहीं था; यह साधन की शुद्धि के साथ साध्य को बचाने का दार्शनिक प्रायश्चित था। मैंने महसूस किया कि संघर्ष के मार्ग से अहिंसा के रचनात्मक मार्ग पर आना ही सच्ची क्रांति है। मैंने भारत के संविधान को आत्मसात किया है। संविधान मेरे लिए अब शोषण का औजार नहीं, बल्कि सभ्यता का सबसे बड़ा क्रांतिकारी दस्तावेज़ बन गया है। यह मानवीय गरिमा और सामाजिक परिवर्तन के लिए सबसे स्थिर, टिकाऊ और दार्शनिक ढाँचा है। यह वह परिपक्व ढाँचा है जो हमें बर्बरता के युग से बाहर निकालकर सभ्यता के मार्ग पर ले जाता है। संविधान की आत्मा संवाद, सहमति और कानून के शासन में निहित है, जो हिंसा के विपरीत, रचनात्मक कार्यक्रम को संभव बनाते हैं।

गांधी की अहिंसा का अर्थ निष्क्रियता नहीं है। यह वह सक्रिय, बौद्धिक और रचनात्मक शक्ति है जो विरोधी को भी नैतिक आधार पर झुकाती है। आज, मैंने विध्वंस के हथियार को त्याग दिया है; मेरा रचनात्मक साधन अब कलम है। मेरी लड़ाई अब जंगल में नहीं, बल्कि विचारों के मैदान में है। मेरा लेखन, मेरी किताबें और मेरी मीडिया परियोजनाएँ अब गांधी के रचनात्मक कार्यक्रम (Constructive Programme) का पालन करती हैं—जो समाज को तोड़ने के बजाय जोड़ने, शिक्षित करने और सशक्त करने का काम करती हैं।

मेरा जीवन अब इसी आत्मग्लानि और प्रायश्चित को समर्पित है, जहाँ मेरी प्रतिबद्धता हिंसा की शक्ति पर नहीं, बल्कि सत्य (तथ्यों), संवाद और अहिंसा के रचनात्मक बल पर है। असली आज़ादी और वास्तविक क्रांति विध्वंस के मार्ग से नहीं, बल्कि संविधान के भीतर रचना और अहिंसा के मार्ग से ही संभव है। यह मेरा जीवन है, और यह मेरी दार्शनिक समझ है।

विशेष धन्यवाद

गांधी जयंती के अवसर पर मैं उस महान शख्स को धन्यवाद देना चाहूंगा जिसने मुझे बहुत ही धीमी गति से इस हिंसक दुष्चक्र से छुटकारा दिलाया। वह एक जोगी की तरह मेरी जिंदगी में आए, मेरे विचारों का सम्मान करते हुए, मुझे साथ रखते हुए मेरा सारा जहर उतार दिया। उनके पास महात्मा ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फूले, महात्मा गांधी और अंबेडकर का एक जहरमोरा था। उसके पास भगत सिंह, बिस्मिल, आजाद, अशफाक की सच्ची विरासत की बीन थी, जो व्यक्तिगत हिंसा की बजाए रचनात्मकता, सृजनशीलता और साहित्य को साधन मानती थी। उनके पास बाबा बुल्ले शाह, नानक, कबीर से लेकर रविदास तक थे। उन्होंने मुझे वास्तविक दुनिया से रूबरू करवाया वह भी उस समय जब मैं हिमालय की वादियों में अज्ञातवास में भटक रहा था। वह शख्स हैं लब्ध प्रतिष्ठित संपादक (देसहरियाणा) और प्रोफेसर सुभाष सैनी और उनकी पूरी टीम। इसके अलावा मैं तहेदिल से आईजी श्री संदिप पाटिल, गडचिरोली एसपी श्री नीलोत्पल और आत्मसमर्पण सेल प्रभारी श्री नरेंद्र एस. पिवाल का आभार प्रकट करता हूं, उन्होंने मुझे नया जीवनदान दिया। 

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