ओमप्रकाश ग्रेवाल और आलोचकीय व्यवहार की भूमिका- आनंद प्रकाश

संस्मरण


सत्तर के दशक की शुरुआत में लिखे दो-तीन निबंधों से ही मार्क्सवादी आलोचना में ओम प्रकाश ग्रेवाल की स्पष्ट पहचान बन गई थी और मित्रों-सहकर्मियों के साथ-साथ विरोधियों  ने भी महसूस किया था कि इस आलोचना-स्वर को नजरअंदाज करना मुश्किल है। ओम प्रकाश ग्रेवाल की जिस चीज ने खासतौर पर ध्यान खींचा था वह थी उनकी रचना-पाठ के प्रति उत्सुकता। रचना पढ़ते हुए ग्रेवाल न केवल लेखकीय मंतव्य को ग्रहण करने में सफल होते थे, बल्कि वहां एक दृष्टिकोण का प्रतिफलन देखते थे। दृष्टिकोण और मंतव्य की अंतक्रिया को वे बहुत गहराई से परखते थे। तब निष्कर्ष तक पहुंचते-पहुंचते उनका तर्क एक साथ रचना  और उसके माहौल पर टिप्पणी बन जाता था। मुझे याद है कि ‘मतांतर’ त्रैमासिक के लिए अज्ञेय और सर्वेश्वर की कविता पर लिखे उनके लेख ने काव्य चर्चा को एकाएक गर्मा दिया था। मैं उन दिनों अपने मित्र् राज कुमार शर्मा के साथ मिलकर दिल्ली से ‘मतांतर’ निकाल रहा था और उक्त अंक के प्रकाशित होते ही मित्रें और लेखकों ने जानना चाहा था-‘यह ओम प्रकाश ग्रेवाल कौन है?’ रोचक यह है कि उक्त लेख को लिखते वक्त ग्रेवाल को हिन्दी का अभ्यास न था, लेकिन यह भी रोचक है कि इस लेख  के दौरान हिन्दी मुहावरे और वाक्य-विन्यास पर उनकी पकड़ एकाएक मजबूत हो गई थी। लेख के ड्राफ्ट को अंतिम रूप देते समय वह प्रयुक्त शब्दों और मुहावरों पर फिर से विचार करते थे और कई विकल्पों में से सबसे उचित को चुनते थे। इस प्रक्रिया में उनके धैर्य ने बहुत प्रभावित किया। लेख पढऩे के बाद आगरा से डा. रामविलास शर्मा का एक पंक्ति का कार्ड आया था-‘मुझे ओम प्रकाश ग्रेवाल का लेख बहुत पसंद आया।’

ओमप्रकाश ग्रेवाल से मेरा परिचय सन् 1963 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में हुआ था। वे कुछ ही साल पहले वहां अध्यापक बन कर आए थे और मैंने इस वर्ष अंग्रेजी एमए में दाखिला लिया था। जैसा कि होता है, पहुंचते ही मैंने होस्टल में ठहरे अपने सीनियर छात्रें से अध्यापकों के बारे जानकारी प्राप्त करनी चाही थी और सबने एकमत से तीन-चार अध्यापकों का नाम लिया था। मुझे खासतौर पर सुनने को मिला था कि युवा अध्यापकों में ग्रेवाल बहुत गंभीर ढंग से पढ़ाते हैं। संयोगवश अगले ही दिन टाइम टेबल के अनुसार उनकी लगातार दो कक्षाओं में बैठकर मुझे अचरज हुआ था-बाकी अध्यापकों की मानिद उन्हें प्रभावी अंग्रेजी बोलने का शौक न था, यद्यपि उनका शब्दोच्चारण सदा ठीक होता था-इसके बारे में वह बेहद सावधान रहते थे। वह जोश में  बोल रहे थे और स्वयं  को काफी दुहरा रहे थे। बीच में अटकते भी थे कि संभवत: अपनी बात को ठीक से न कह पा रहे थे, लेकिन जल्द ही पूरी क्लास के सामने वह स्थापित हो गया था कि ग्रेवाल पाठ के अनेक स्वरों को ग्रहण  करने में सक्षम हैं। यह मिल्टन की क्लास थी और ग्रेवाल ‘पैराडाइज लास्ट’ में अंतर्निहित नाटकीयता को विभिन्न स्तरों पर व्याख्यायित कर रहे थे। कभी-कभी वह सामान्य जीवन से उदाहरण चुनकर उनका अपने तर्क की पुष्टि में सटीक इस्तेमाल करते। अध्यापक की व्याख्या में वैचारिक डिबेट किस तरह आकार लेती है, वहां उलझे सवालों का सामना किस तरह किया जाता है, यह हम छात्रें ने उनकी क्लास में बैठकर देखा, लेकिन एक साल बाद 1964 में वे कुरुक्षेत्र छोड़ कर दिल्ली के किरोड़ीमल कालेज में चले गए। कुरुक्षेत्र में उनका जिक्र आता था, तो प्राय: मिल्टन के मन में ‘सेटन’ अर्थात शैतान के लिए कोई सहानुभूति नहीं है। कुछ छात्र उनसे असहमत होते तो अपने पक्ष के समर्थन में वह तर्कों का अंबार लगाते। लेकिन अंग्रेजी की ‘मिल्टन क्रिटिसिज्म’ इस पर पूरी तरह विभाजित थी और प्रसिद्ध कवि विलियम ब्लेक से लेकर बाद के अनेकानेक रचनाकार और आलोचक मानते थे कि मिल्टन अपने अवचेतन में शैतान के हमदर्द हैं। ग्रेवाल कहते कि यह गलत है, क्योंकि मिल्टन क्लासिकी धारा का कवि है, जहां अवचेतन जैसी चीज का जिक्र बेमानी है और पूरी गंभीरता से वह ईसाईयत का महाकाव्य लिख रहा है। निश्चय ही, मिल्टन के नजरिये को उन्होंने तत्कालीन स्थितियों और ईसाइयत की मूल अवधारणा के साथ मिलाकर प्रस्तुत किया था, लेकिन तब उन्हें फलसफे का नजरिया था, जहां अमूर्तन की मदद से कृति के विभिन्न पक्षों को उजागर किया जाता था।

ग्रेवाल ने अपने आलोचना लेखन की शुरुआत अमरीकी उपन्यासकार हैनरी जेम्स पर शोध के साथ की। जिस शीर्षक के अधीन उनका शोध प्रबंध काफी बाद में दिल्ली से प्रकाशित हुआ, वह था-‘हैनरी  जेम्स और संस्कृति की विचारधारा।’ इससे पहले वह केवल अध्यापक थे। हैनरी जेम्स के अकादमिक अध्ययन का काम उन्होंने 1967 से 1969 तक के लगभग तीन बरसों में अमरीका के रोचस्टर विश्वविद्यालय में किया। साठ के दशक में पश्चिमी यूरोप और अमरीकी साहित्य अध्ययन में सभ्यता समीक्षा का दौर था और इस तरह पूरे अंग्रेजी अध्ययन साहित्य में रेमंड विलियम्स का वर्चस्व कायम हो गया था। तब सभ्यता समीक्षा ने साहित्यिक व्याख्या में चिंतन और मूल्यांकन के नए द्वार खोले थे। इसका प्रमुख तर्क यह था कि साहित्य और समकालिक यथार्थ के बीच संस्कृति का विशिष्ट संसार होता है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। संस्कृति के इस आयाम ने अंग्रेजी आलोचना को  समाज की मूर्त सच्चाई की ओर मोड़ा और नीति, अध्यात्म, दर्शन जैसे विमर्शों से मुक्ति दिलाई। सभ्यता समीक्षा बतलाती थी कि नीति, अध्यात्म आदि का ठोस सामाजिक आधार होता है, उसी से निर्मित-निर्देशित होकर नैतिक मूल्य अपने वास्तविक संसार में क्रियारत होते हैं। इस समीक्षा के अनुसार जहां साहित्य में अभिव्यक्ति और रचना अर्थात ‘क्रियेटिविटी’ का महत्व प्रमुख होता है। वहां सामाजिक यथार्थ में आर्थिक और राजनीतिक चीजें प्रबल होती हैं, लेकिन इन दोनों पक्षों का परस्पर सामना साक्षात अथवा सीधे न होकर एक तीसरे पटल पर होता है और वह पटल है संस्कृति। ग्रेवाल ने अमरीका जाकर संस्कृति-पटल की विशिष्ट व्याख्या का गुण सीखा जो बाद में उनके लिए हिन्दी प्रवृतियों और कृतियों की व्याख्या के संदर्भ में बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। यह सांस्कृतिक व्याख्या का पक्ष उनके अध्ययन में निरंतर सक्रिय रहा। रेमंड विलियम्स प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में  उनके सतत् संदर्भ रहे।

जिस समय ग्रेवाल अपने अध्यापन काम पर दिल्ली लौटे, तब उनकी दिलचस्पी भारतीय राजनीति से जुड़े सवालों में नए सिरे  से जागृत हुई। इस संदर्भ की शुरुआत हम 1964-1965 से करें, जब वह दिल्ली के अध्यापकीय माहौल में नए-नए आए थे और अंग्रेजी साहित्य के सेमिनारों, गोष्ठियों और परिचर्चाओं में जमकर हिस्सा लेते थे। बाद के वर्षों में नक्सलवादी राजनीतिक अलग से पहचान बनने लगी थी, जिस कारण वाम से संबंधित सवालों पर संजीदगी से बहस होने लगी थी। इस बहस का आधार वाम राजनीति का 1964 में होने वाला विभाजन था, जिसने भारतीय समाज के प्रश्नों को विश्लेषण और विचार का मुद्दा बनाया था। इस वैचारिक उद्वेलन में आगामी वर्षों का वह उभार इंगित था, जिसने भारत के मध्य वर्ग को जीवन के मूलगामी पक्षों पर सोचने की प्रेरणा दी थी। इस दौर के प्रारंभिक वर्षों में केवल ‘दक्षिणपंथी’ भाकपा या ‘राइट सी.पी.’ और ‘मार्क्सवादी’ भाकपा अर्थात् ‘सीपीआई-एम’ के बीच विवाद चलता था। ये विशिष्ट संज्ञाएं पूरे सत्तर के दशक में भी प्रचलित रहीं। आगे चलकर नक्सलवादी राजनीति की पहचान से ‘मार्क्सवादी’ के साथ-साथ ‘लेनिनवादी’ और ‘माओवादी’ जैसी संज्ञाएं भी राजजनीति विमर्श में इस्तेमाल होने लगीं। मार्क्सवाद के प्रसंग में उन दिनों ‘ग्रास रूट’ पर किए जाने वाले काम का और ‘ग्रास रूट’ के स्तर पर विद्यमान यथार्थ का जिक्र भी होता था। ग्रेवाल ने भी ग्रास रूट को व्यापक तौर पर तरजीह देते हुए राजनीति के बारे में बहस करनी शुरू कर दी, जिसकी शुरूआत अमरीका जाने से पहले ही हो गई थी। इस सबका स्मरण इसलिए जरूरी है क्योंकि ग्रेवाल की संवदना और उनके चिंतन के निर्माण में किरोड़ीमल कालेज के स्टाफ रूम का बहस-तलब जमावड़ा अचानक महत्वपूर्ण हो गया था। उन दिनों के किरोड़ीमल स्टाफ रूम में नंद लाल गुप्ता, गिरीश मिश्र और रामाराव के साथ-साथ युवा विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे भाकपा समर्थकों का एक गुट था और प्रिंसीपल डा. सरूप सिंह, जो बाद में विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभागाध्यक्ष और वाईस चांसलर तथा गुजरात, केरल आदि के गवर्नर बने, के साथ-साथ प्रो. ठाकुर दास, आरके कोहली, मंगतराम और युवा बद्री रैना जैसे समाजवादियों, आधुनिकता-वादियों और उदारचेत्ताओं का ढीला-ढाला दूसरा गुट था। दोनों गुटों में दोस्ताना बातचीत के अतिरिक्त भिड़ंत भी होती। दोनों गुटों में ज्यादातर लोग उम्र में वरिष्ठ थे और सरूप सिंह तो ग्रेवाल के अध्यापक भी रहे थे। वरिष्ठों के साथ दिक्कत यह होती है कि उन्हें बाकी लोगों की निस्बत जिंदगी का अधिक अनुभव होता है और इस बल पर वे कनिष्ठों को दबाते हैं, लेकिन यहां स्थिति भिन्न थी। सरूप सिंह न केवल अच्छा मजाक करते थे, बल्कि दूसरों की सुनते भी थे। एक जमाने में  वे राम मनोहर लोहिया के करीब भी रहे थे। वे कभी भाकपाइयों का पक्ष लेते, कभी आधुनिकतावादियों का। सरूप सिंह का समाजवाद दोनों चीजों की आजादी देता था। ग्रेवाल ने इस वातावरण में राजनीति पर बहस करनी शुरू की जो उनके लिए नयी चीज थी। ध्यान रहे कि किरोड़ीमल कालेज में माकपा का घोषित पक्षधर संभवत: एक भी न था। ग्रेवाल का शुरुआती रुझान ग्रास रूट की अवधारणा के अधीन किंचित अतिवादी था, जो बाद में 1971-72 के दौरान पूरी तरह बदला।

इस वातावरण में बहस करते-करते ग्रेवाल की रुचि राजनीतिक सवालों के साथ-साथ गंभीर दार्शनिक सवालों में भी हुई।  उन्होंने मार्क्स की पुस्तकों का अध्ययन किया और जहां तक मुझे स्मरण है कि उन्होंने मार्क्स की ‘केपिटल’ का प्रथम खंड भी पढ़ा। लेकिन वे बहस में बार-बार मार्क्स की केवल एक पुस्तक ‘पावर्टी ऑफ  फिलासफी’ का जिक्र करते। यह पोलेमिकल किताब थी और उन्हें पसंद आई थी। साहित्य के अंतर्गत उन्हें जोजफ़  कोनरेड में रुचि हुई, जहां जाहिर है उन्हें कोनरेड के उपन्यासों में विद्यमान साम्राज्यवादी विमर्श से वैचारिक-संवेदनात्मक मुठभेड़ काफी अपीलिंग लगी। हैनरी जेम्स को भी उन्होंनेे किंचित करीब से तभी पढऩा शुरू किया। ग्रेेवाल को लेकर 1963-64 में कुरुक्षेत्र में मजाक चलता था कि उनके पास बैठो तो किताबों की बू आती है-‘ही स्मैल्स बुक्स’। दिल्ली में उनकी यह आदत बरकरार थी, बल्कि इसमें इजाफा हुआ था और अब वे ‘गैर साहित्यिक’ पुस्तकें पढऩे लगे थे। यह एक तरह से उनकी वैचारिकता का निर्माण काल बना, जब वे हैनरी जेम्स, जोजफ़  कोनरेड, मार्क्स, भारतीय वाम, आदि पर एक समन्वित नजरिये  का विकास करने लगे और तभी जैसा कि पहले कहा है, वे शोधार्थ चले गए।

जब  वह लौटे तो कुछ ही अरसे बाद किरोड़ीमल कालेज छोड़ कर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय वापस चले गए। दिल्ली में रहकर वह सदा कुरुक्षेत्र की याद किया करते थे। ग्रेवाल को संभवत: उन दिनों दिल्ली की निस्बत कुरुक्षेत्र का माहौल अधिक जीवंत और प्रेरणादायी प्रतीत होता था। यह सत्तर के दशक की शुरुआत थी। उस समय खास तौर पर हिन्दी कथा चिंतन में जार्ज लुकाच की आलोचना की गई थी, यद्यपि वह आलोचना लुकाच के राजनीतिक व्यवहार की अधिक थी। भैरव का मानना था कि व्यक्ति को उसके चिंतन से अलग नहीं किया जा सकता। भैरव का यह लेख ‘कथा’ के संभवत: प्रथमांक में छपा था। इसके अतिरिक्त भी लुकाच पर कुछ टिप्पणियां इधर-उधर प्रकाशित हुई थी। ओम प्रकाश ग्रेवाल ने तब लुकाच को तरतीब से पढ़ा-लुकाच के व्यापक  तर्क से उनका परिचय पहले से था ही। ‘प्रतिनिधिकता’ यानी ‘टिपीकैलिटी’ और यथार्थ की सम्पूर्णता अर्थात् ‘टोटैलिटी’ जैसी वैचारिक अवधारणाओं को तब उन्होंने निकट से समझा।  मार्कण्डेय के निर्देश पर ग्रेवाल ने लुकाच पर लंबा समीक्षा लेख ‘कथा’  के लिए लिखा। इसे साहित्यिक क्षेत्र में अच्छा मान मिला। लेकिन यह भी सच है कि लुकाच की अवधारणाओं के प्रयोग का अवसर ग्रेवाल को कम ही मिला, कारण कि उन्हें हिन्दी कथा के पक्षों पर लिखने की बजाए कविता पर लिखने को कहा गया, लेकिन जब भी उनहोंने कथा की प्रवृतियों पर लिखा, वहां उन्होंने स्थापित अवधारणाओं को लागू करने के साथ-साथ यह ख्याल भी रखा कि व्याख्या यांत्रिक न हो जाए। मसलन, शेखर जोशी की अस्सी के दशक की कहानियों में उन्होंने कुछ नयी प्रवृतियों को पहचाना और सार्थक प्रश्न उठाने शुरू किए, न कि पहले से सोचे उत्तरों को दोहराया।

साहित्य सिद्धांत के पक्ष पर ग्रेवाल के लेख उन दिनों पाठकों को दुरूह जान पड़ते थे, चूंकि विभिन्न विचार-बिदुओं की उनकी व्याख्या अमूर्तन लिए रहती थी। उन दिनों हिन्दी अध्ययन की दुनिया में आलोचना-संस्कार विकसित न था, बल्कि पचास और साठ के दशकों में मुख्यत: बुर्जवा लेखक प्राय: आलोचना कर छींटे कसते थे, कहते थे कि वह साहित्य के काम की नहीं है। कुछ तो आज भी आलोचना को रचना-विरोधी मानते हैं लेकिन साथ ही रचना का काम आलोचना के बिना चलता नहीं है, जिसका साक्ष्य इसमें मिलता है कि रचनाकार प्राय: किसी न किसी आलोचक द्वारा मिलने वाले प्रमाण पत्र की तलाश में रहते हैं। यह तब भी था। मैंने देखा कि रामविलास शर्मा के लेखों की नयी कविता पर केंद्रित तिकड़ी ‘धर्मयुग’ के पन्नों में छपी तो लगभग शोर की स्थिति थी-सबने उसे पढ़ा था, अपने बस्ते के किसी कोने में संजोकर रखा था और साथ ही रामविलास शर्मा को कुछ न कुछ बुरा कहा था। आलोचना-स्थिति के सम्मुख ओम प्रकाश ग्रेवाल ने सैद्धांतिक चिंतन का बीड़ा उठाया। उन्होंने हिन्दी में आलोचना की एक शैली विकसित की, जिसके अंतर्गत विचार-सूत्रें की लंबी व्याख्या का आधार तैयार हुआ। यह अध्यापकीय आलोचना से  अलग थी, क्योंकि इसमें निरंतर एक सजग राजनीति काम कर रही थी। इसके विपरीत अध्यापकीय आलोचना में स्टेंड लेने से निरंतर बचा जाता है, केवल अन्य पुस्तकों से लंबे उदारहण देकर  कुछ अतिप्रचलित सामान्य निष्कर्षों तक पहुंचा जाता है। प्रारंभ में ग्रेवाल के लेख मुश्किल इसलिए लगे, क्योंकि तब तक हिन्दी चिंतन में वैचारिक शब्दावली का प्रचलन शुरू हो गया। अब हम उन्हीं लेखों को फिर से पुस्तकाकार रूप में पढ़ते हैं। तो पाते हैं कि वे तर्क उतने भारी नहीं हैं बल्कि हमारी आलोचना-सोच का हिस्सा बन गए हैं कुछ तो पूरी तरह  साफ और सरल जान पड़ते हैं। सैद्धांतिक चिंतन में जो योगदान मार्क्सवादी आलोचकों ने पिछले लगभग चार दशकों में किया है और जिस कारण हिन्दी आलोचना हिन्दी रचना के समकक्ष पूरी ताकत से खड़ी हुई है, उसमें ग्रेवाल की भूमिका का रेखांकन आवश्यक है। चंद्रबली सिंह, रमेश कुंतल मेघ, शिव कुमार मिश्र, भगवान सिंह, सुरेन्द्र चौधरी, चंद्रभूषण तिवारी, विश्वनाथ त्रिपाठी, नित्यानंद तिवारी तथा मैनेजर पांडेय, श्याम कश्यप, राज कुमार सैनी, द्वारिकाप्रसाद चारूमित्र और अजय तिवारी की लंबी सामूहिक चिंतन पारी के अंतर्गत ओम प्रकाश ग्रेवाल का आलोचना लेखन भी बहुत  महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ है। इसके विपरीत पश्चिमी  नयी आलोचना के भटकावों से ग्रस्त सामान्य बूज्र्वा तथा आधुनिकतावादी आलोचना लेखन पर नजर डालें तो वहां मात्र  दुहराव और मुंहदेखी टिप्पणी की अगंभीरता देखने को मिलती है।

एक अन्य बिन्दू पर फिर भैरव प्रसाद गुप्त का स्मरण होता है कि आलोचक अथवा रचनाकार पर बात  करते वक्त उसके जीवन व्यवहार को नजरअंदाज करना अनुचित है। ओम प्रकाश ग्रेवाल के चंतन को ताकत कहां से मिली? वह मात्र अध्ययन का परिणाम न थी। ग्रेवाल की जिन्दगी बेहद सक्रियताधर्मी थी। इसमें वैचारिक चुनाव भी दिखता था कि कहां सक्रिय हुआ जाए। वे अपने जीवन के महत्वपूर्ण पड़ाव पर अंग्रेजी को छोड़कर हिन्दी में आए। उन्होंने अंग्रेजी में तभी लिखा जब किसी मित्र अथवा किसी अवसर, मसलन किसी आयोजन का दबाव रहा। वे मित्रता खूब निभाते थे। लेकिन पूरी तन्मयता से उन्होंने हिन्दी में ही लिखा-वैचारिक पक्ष पर, कविता पर, सांस्कृतिक सवालों पर अथवा कभी-कभार राजनीति से जुड़ी समस्याओं पर। उनके लेखन की प्रासंगिकता असल में उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक सक्रियता से आई। सत्तर के दशक में ही वे कुरुक्षेत्र चले गए थे और यदि डेढ़-दो साल का अंतराल छोड़ें, जब वे रोहतक के महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के विभागाध्यक्ष बन कर गए थे। तो वे पूरी उम्र कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में रहे। वहां उन्होंंने शिक्षकों के आंदोलन में भरपूर शिरकत की, इतनी कि सरकार की शिक्षा नीतियों के विरोध में अखिल भारतीय शिक्षक अभियान के तहत दिल्ली मेंं प्रदर्शन होता तो वे कुरुक्षेत्र के काफी बड़े शिक्षक-जत्थे में शामिल होकर आते और प्रदर्शन में हिस्सा लेते। एक बार जब वे बहुत जोरों से ‘रनिंग ग्रेड लेकर रहेंगे’ का नारा लगा रहे थे तो वे इन पंक्तियों के लेखक ने उनकी उत्तेजना को कम करने हेतु उनसे धीमे स्वर में पूछा-‘रनिंग ग्रेड जरूर ही लेंगे? मानेंगे नहीं?’ तो वे बहुत जोर से हंसे। गंभीर शिक्षक हस्तक्षेप के दौरान भी उन्होंने जल्द ही समझा था कि रनिंग ग्रेड अर्थवादी मांग है, लेकिन जाहिर है यह अवसर का तकाजा था और शिक्षकों के अभियान में बाकी लोगों की भांति वे पूरी शिद्दत से शामिल थे।

इस अभियान में पूरी सक्रियता से शामिल होने का ही परिणाम था कि रोहतक शिक्षक आंदोलन के एक बिंदु पर शिक्षक नेतृत्व को लगा कि आमरण अनशन की नैतिकता का पूरे नियमानुसार पालन किया। जब पुलिस ने जबरदस्ती करते हुए उन्हें कुछ पिलाने की कोशिश की तो वे विरोध में छटपटा रहे थे और गुस्से में थे। रोहतक विश्वविद्यालय के एक अन्य मौके पर अध्यापकों द्वारा सरकारी नीतियोंं के खिलाफ हुए प्रदर्शन के दौरान उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार किया और कुछ दिनोंं तक कारावास में रखा। उनकी सक्रियता से प्रभावित-विचलित होकर उन दिनों के प्रमुख हिन्दी कवि कुमारेन्द्र पारस नाथ सिंह दिल्ली के अन्य लेखकों के साथ उनसे जेल में मिलने गए थे।

लेकिन सक्रियता की इस दास्तान का मौन पहलू भी है। ओम प्रकाश गे्रवाल ने हरियाणा के मार्क्सवादी साथियों से मिलकर चिंतन के बदलाव का पूरा प्रारूप तैयार किया और पत्रिकाओं, गोष्ठियों, भाषणोंं, सेमिनारों, कांफ्रेंसों, रैलियों तथा संगठनात्मक गतिविधियों का लंबा क्रम शुरू किया। इसके लिए उनकी मदद में मित्रों के साथ-साथ पूर्व विद्यार्थियों का जिसमें वरिष्ठ सरकारी अफसर भी शामिल थे, बड़ा समूह खड़ा हुआ। यह कठिन होता है कि मार्क्सवादी चिंतन से प्रभावित पहल में  विश्वविद्यालयों के पूर्व उपकुलपति, अनेक प्रोफेसर तथा अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विद्वान, आईएएस तथा पुलिस के अफसर, महाविद्यालयों के प्रिंसीपल, प्रदेश पब्लिक सर्विस कमीशन के चेयरमैन, न्यायपालिका के अधिकारी आदि के साथ-साथ स्थानीय व्यापारी भी शामिल हों। ओम प्रकाश ग्रेवाल ने इस तरह की प्रेरणादायी गतिविधि को अंजाम दिया और यह मौन रह कर किया। संभवत: इसकी पूरी जानकारी हिन्दी जगत को नहीं है।

ग्रेवाल के जीवन की सार्थकता एवं गुणवत्ता की बदौलत उनकी मृत्यु से तीन महीने के भीतर ही ‘ओम प्रकाश ग्रेवाल अध्ययन संस्थान’ की स्थापना हेतु इस अप्रैल में बुलायी गई बैठक में एक घंटे के भीतर ही अनुदान के अप्रत्याशित वादे मिले। पिछले महीने एक व्यापारी से इस संस्थान के लिए कुरुक्षेत्र में जमीन का प्लाट खरीदने के संदर्भ में बात हुई तो उसका आफर था-मैं इस प्लाट का केवल वही मूल्य लूंगा जिस पर मैंने इसे कई साल पहले खरीदा था।’ प्रोपर्टी के दाम इन दिनों किस कदर बढ़े हैं, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। लेकिन उक्त व्यापारी ने कुरुक्षेत्र के लोगों से ओम प्रकाश ग्रेवाल के प्रतिबद्ध मानवीय व्यवहार और प्रेरणादायी चरित्र के बारे में सुन रखा था।

अस्सी के दशक में ओम प्रकाश ग्रेवाल की साहित्यिक सक्रियता का आयोजकीय स्वरूप देश के स्तर पर देखने को मिला, जब वह लेखन में किंचित हटकर जनवादी लेखक संघ की स्थापना-प्रक्रिया और उसकी गतिशील कार्यवाही का हिस्सा बने। उन्हें ऐसी यात्राओं से परहेज न था जिनका रिश्ता रचनाकारों के सम्पर्क में हो, यद्यपि मौसमों के बदलते तेवर, रेलयात्रा की मुश्किलों, बढ़ती उम्र में अन्य स्थान पर ठहरने की असुविधा आदि के चलते यात्राएं उनके स्वास्थ्य पर बुरा असल डालती थीं। उन्हें दिखता बहुत कम था और कभी-कभार पढऩे के लिए वह ‘मैग्नीफाइंग ग्लास’ का इस्तेमाल भी करते थे। बहस-मुबाहिसों और विस्तृत व्याख्यानों के दौरान उनका स्टेमिना देखते बनता था, जब वह थकान को दरकिनार करते हुए घंटों बोलते थे। घर से बाहर कभी उन्हें खाली बैठे, घूमते अथवा दिन में साते नहीं देखा गया, मानो वह घर से बाहर बिताये जाने वाले इस पूरे समय का अधिक से अधिक उपयोग करने का निर्णय ले चुके हों। यह व्यवहार-क्रम स्वत: स्फूर्त न था। इसके पीछे निजी नैतिकता का अनुशासन काम करता था। नए-पुराने लेखकों से बातें करके, उनकी अद्यतन रचनाओं को सुनकर ग्रेवाल उस यथार्थ का परिचय पाते थे जो रचनाकारों को अपने माहौल में प्रभावित-आंदोलित करता था। गे्रवाल इस तरह के सम्पर्क से अपना मानसिक विकास और वैचारिक आधार पुख्ता करते थे-सदा यह महसूस होता था कि वह विचारधारात्मक प्रसार और विकास को समर्पित व्यक्तित्व है। शुरू में वे जनवादी लेखक संघ की हरियाणा इकाई के सर्वाधिक क्रियाशील विचारक एवं अध्यक्ष रहे और बाद में जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव बने। तदोपरांत  वह  अपने प्रदेश की राजनीतिक जरूरतों के मद्देनजर जनवादी लेखक संघ के किंचित कम सक्रिय राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद पर आसीन रहे।

हैनरी जेम्स की विचारधारात्मक व्याख्या से शुरू करके ओम प्रकाश ग्रेवाल हिन्दी रचना में झलकने वाले विविध विचारधारात्मक बदलावों, स्खलनों एवं व्यापक  विकास के क्षेत्र में लंबे  समय तक हस्तक्षेप करते रहे। अंतत: वे विचारधारा-आलोचना के महत्वूर्ण आयाम को उजागर करने में सफल हुए। एक तरह  से उन्हें हिन्दी की विचारधारा-आलोचना-‘आइडियोलोजी क्रिटिसिज्म’-का महत्वपूर्ण स्वर भी कहा जा सकता है। इस तरह विचारधारा-आलोचना हिन्दी में ओम प्रकाश ग्रेवाल की पहचान बनी। इस आयाम के विकास में उन्हें जार्ज लुकाच, अंतोनियो ग्राम्शी, फ्रेंकफर्ट स्कूल के कुछ आलोचना-हस्ताक्षरों  के अध्ययन से आवश्यक मदद मिली। एडोर्ना, वाल्टर बैंजामिन आदि को लेकर उनकी आलोचनापरक राय यह थी कि वहां पूंजीवाद के आधुनिक स्वरूप की पहचान एवं समझ तो मिलती है, लेकिन पूंजीवाद के प्रति संघर्षधर्मी वैकल्पिक रवैया वहां अनुपस्थित है। साहित्य और समाज में विचारधारा की भूमिका और उसके महत्व की बात करें तो उनका दृष्टिकोण यह  था: ‘जहां तक प्रभुता-सम्पन्न वर्ग अन्य वर्गों से संबंध रखने वाले लोगों की चेतना को नियंत्रित कर  देता है, वहां तक उनकी चेतना में भी प्रभुता-सम्पन्न वर्ग की ‘छद्म चेतना’ के से विकार विद्यमान रहते हैं। उनके संदर्भ में भी कई बार चेतना की इन विकृतियों को ही उन पर पड़ने वाला विचारधारात्मक दबाव मान लिया जाता है। इसी प्रकार सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व स्थापित हो जाने के बाद सर्वहारा पार्टी के नेतृत्व में सामाजिक पुनर्निर्माण के लिए निर्धारित किए जाने वाले कार्यक्रम में यदि कुछ त्रुटियां दिखाई देती हों तो उन्हें भी कुछ मार्क्सवादी चिंतक  ‘विचारधारा-जनित दोष’ बताने लगते हैं। किन्तु विचारधरा को ‘छदम चेतना’ तक ही सीमित रखने और उसे ‘विश्व दृष्टिकोण’ से अलग करके देखने के इस प्रकार के प्रयासों से हम ऐसे भ्रांतिपूर्ण निष्कर्षों पर पहुंच सकते हैं जिनके कारण साहित्य के बारे में हमारा चिंतन दोषपूर्ण हो जाए। इसलिए विचारधारा को हमें वर्ग-दृष्टिकोण से  अलग नहीं समझना चाहिए।’ इस उदाहरण से स्पष्ट होता है कि वह विचारधारा के प्रभाव की बारीकियों का निरीक्षण करते हुए उसके गुण-दोष दिखलाते थे, उन पूर्वाग्रही चिंतकों के विपरीत जो विचारधारा को एक सिरे से साहित्य के लिए हानिकारक अथवा घातक मानते हैं। कारण कि हम वर्ग-दृष्टिकोण से अलग हटकर विचारधारा को केवल इतिहासजनित स्थापनाओं और चिंतन बिंदुओं का समुच्चय मानते हैं। तभी हम साहित्य में विचारधारा की बहुविध एवं परस्पर-विरोधी क्रियाओं को देख पाने में असमर्थ रहते हैं विचारधारा के हस्तक्षेप को लेकर हिन्दी में आज भी बहस चलती है, लेकिन अब धीरे-धीरे विचारधारा का नकार बंद हुआ है और इसके वास्तविक महत्व को आंकने-परखने की प्रवृति पहले की निस्बत काफी मजबूत हुई है। यह ओम प्रकाश ग्रेवाल जैसे चिंतकों के हस्तक्षेप की वजह से ही संभव हो पाया है।

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