टैक्सों का बोझ – चौधरी छोटू राम

चौ. छोटूराम

चौधरी छोटू राम, अनुवाद-हरि सिंह

किसान बड़ा मंदा भाग्य लिखवाकर पैदा हुआ है। दुनिया की जितनी अच्छी चीजें हैं, वे सब इससे दूर भागती हैं। जितनी बुरी और दुख देने वाली चीजें हैं, वे सब झूठ की तरह इस पर चिपट जाती हैं। इससे हम जिन्स-इसके देशवासी सब इससे बेरूखी बरतते हैं। हाकिम इससे रूठा हुआ सा रहता है और सबसे कठिन बात यह है कि तमाम हाकिमों का हाकिम भी इसको अपनी नामेहरबानियों का तखताए-मशक बनाए रहता है। बार-बार इस पर ही कहर ढाता है। कोई मुशीबत नपहीं जो इस पर न पड़ती हो। कोई दुख ऐसा नहीं जो इसको न सताता हो। इसका घर तमाम जमाने की विपत्तियों का कैंप है और इसका धंधा तमाम बलाओं का डाक-बंगला है।

दुनिया में मैं इस अनाथ का दुखड़ा कब तक सुनाऊं? ‘शबेकोताह किस्सा तूलानी’ वाला मामला है। (रात छोटी बात लंबी) इसके एक-एक किस्सा दुख पर दफ्तर के दफ्तर लिखे जा सकते हैं। यह सातवों सप्ताह गुजरता है, मगर यह दुखद कहानी अभी तक एक निहायत सादा ग्राम आम और खाके की शक्ल में पूरी तरह पेश नहीं हो पाई है। इसलिए दिल न चाहते हुए भी इस सिलसिले को जारी रखना ही उचित समझता हूं।

माल-गुजारी का तरीका और मामला जमीन का कानून ऐसा गोरख धंधा है कि किसान के लिए इससे छुटकारा हासिल करना आसान काम नहीं है। और अगर आज से नेकनीयती के साथ यह कोशिश शुरू हो कि किसान को इस गोरख धंधे से निकाला जाए तो इसकी रिहाई दिलाने में एक पीढ़ी से अधिक का समय लगेगा। पाठक देख चुके होंगे कि वर्तमान मालगुजारी का तरीका कितना कठोर है और इस प्रबंध के नीचे किसान के साथ कितना अन्याय जारी रखा गया है। और कोई टैक्स ऐसा नहीं, जिसको सरकार प्रशासकीय आदेश से बढ़ा सकती है। हर नए टैक्स के लिए हर मौजूदा टैक्सों को बढ़ाने के लिए सरकार को एक कानूनी मसौदा कौंसिल में पेश करना पड़ता है। कोंसिल में प्रजा के प्रतिनिधियों को काफी मौका मत प्रकट करने, विरोध करने और अपनी राय को प्रकट करने का मिलता है। मगर मामकला जमीन इंतजामिया हुक्म के जरिए बढ़ाया जा सकता है। तीन साल हुए कानून में संशोधन हुआ है जिसकी रूह से अफसर बंदोबस्त में निश्चित की हुई मालगुजारी के संबंध में कोंसिल को अपनी राय प्रकट करने का अवसर दिया जाया करेगा। लेकिन इस राय को महज एक सुझाव का दर्जा हासिल है। गवर्नमेंट इस पर अमल करने के लिए पाबंद नहीं है। मगर तीन वर्ष पहले यह अधिकार भी प्राप्त न था।

इंतजामिया हुक्म से टैक्स बढ़ा देने के अधिकार प्रजा के लिए बड़े हानिकारक हैं। एक मुट्ठीभर आदमियों को छोड़कर बाकी सब किसान वर्ग में अनपढ़ लोक और परलोक से बेखबर हैं। चुपके सेस टैक्स बढ़ा दिया जाता है। लोगों को कानों कान खबर भी नहीं होती। चुनाचे डेढ़-दो साल हुए चुपचाप पटवारी के निरीक्षण की फीस बढ़ा दी गई। माल की अदालतों और माल के अफसर के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया है कि पहले अपने आदेशों की तामील रजिस्ट्री डाक की मारफत करा के प्रत्येक व्यक्ति चार आने की जगह पांच आने तलबाना हो। पहले ज्यादा से ज्यादा तलबाना पांच रुपए होता था। अब यदि इन व्यक्तियों की संख्या जिन पर किसी सम्मन या नोटिस की तामील होती है ज्यादा हो तो फीकस पांच आने तलवाना देना पड़ता है, चाहे इस तरह के सायली को पांच रुपए खर्च करना पड़े। यदि शामलात देह की तकसीम का मुकद्दमा हो और किसी व्यक्ति को अपने हिस्से की जमीन अलग करानी हो तो चाहे इसके हिस्से की जमीन की कीमत दस रुपए हो, इसको केवल तलवाना में इस कीमत से कई गुना खर्च करना जरूरी हो सकता है। उदाहरण के तौर पर यदि गांव बड़ा हो औ इसमें हिस्सेदारान की संख्या आठ सौ हो तो इसको दो सौ पचास रुपया महज तलबाना में दाखिल करने के लिए बाध्य किया जा सकता है और जो उदाहरण मैंने ऊपर दिया है, उनसे जाहिर है कि इंतिजामिया हुक्म से किसान की किस कदर हानि हो सकती है और इस हानि की पूर्ति किस कदर कठिन है। लेकिन किसान को इस प्रकार के बहुत से नुक्सान पहुंचाए जा सकते हैं। मसलन दाखिल-खारिज की फीस इंतजामिया हुक्म से बढ़ाई जा सकती है और गवर्नमेंट की अपनी इच्छा और मर्जी के सिवाय और कोई कानूनी सीमा इस बढ़ोतरी की नहीं है। इसी तरह आबयाना भी महज इंतजामिया हुक्म से चाहे जिस कदर बढ़ाया जा सकता है। इसलिए 1924 में एक कलम से 75 लाख रुपए की बढ़़ौतरी कर दी थी। जहां नई नहर निकले वहां आबयाना के अलावा गवर्नमेंट शहैसयती के नाम से मामला जमीन में से भी बंदोबस्त की याद गुजारने से पहले ही काफी बढ़ौतरी कर सकती है। और इस बढ़ौतरी के लिए गवर्नमेंट को कोंसिल के सामने कोई मसौदा कानून पेश करके पास कराने की जरूरत नहीं। प्रजा के प्रतिनिधियों को अवसर बाजाबता आपत्तियां उठाने का नहीं दिया जाता। गवर्नमेंट को पूरा अधिकार है कि वह मनमानी कार्रवाई करे।

चाही रेट को देखिए। किसान अपना पैसा लगाता है, ईंट, चूना अपना खर्चा करता है। मजदूरी स्वयं करता है, बैल अपने जोतता है। अपनी मेहनत खर्च करता है। मगर गवर्नमेंट झट से चाही रेट लगा देती है। जमीन को अपनी सम्पति बताती है और किसान को किराएदार। खैर यह सबकुछ सही। मगर कुआं गवर्नमेंट की सम्पति नहीं। किसान को लहूपसीने की कमाई के रूपए से कुआं बनता है। फिर भी गवर्नमेंट आ धमकती है और कहीं नाल चाह के नाम से अधिक टैक्स लगा देती है और कहीं चाही रेट के नाम से किसान के सिर नया बोझ रख देती है। अगर कोई शिकायत करने का साहस करे तो किसान के दिमाग में खलल बताया जाता है। ठीक तो है। इस जमाने में सच्ची बात कौन कहता है? वही कह सकता है, जो सरकारी अफसरों और तमाम दफ्तरशाही को नाराज करके नुक्सान उठाने के लिए तैयार हो और आजकल की सही अकल का पैमाना है कि इंसान गवर्नमेंट को नाराज करने वाली सच्ची को बात को भी जुबान से न निकाले, चाहे इसके भाइयों का गला कटता हो, चाहे सच्चाई के छुपे रहने से अंत में गवर्नमेंट का भी बेड़ा गरक होता हो।

और एक छोटी सी बात लीजिए। देहात में तमाम लोगों से चौकीदारी वसूल की जाती है। इससे चौकीदारों को वेतन दिया जाता है। ये चैकीदार देहात वालों के कोई काम नहीं करते। इनको हटाना और नियुक्त करना सरकारी अफसरों के हाथ में है। सरकार का ही वह काम करते हैं, लेकिन इनकी वेतन का बोझ गरीब देहातियों पर डाला जाता है। सेवा सरकार की करें, दंड देहाती लोग भुगतें! वेतन का भार गांव वालों पर पड़े और नौकर रखने और हटाने वाले दूसरे लोग हों यह बोझ चूंकि 80 प्रतिशत किसान वर्ग पर पड़ता है। इसलिए शिकायत किसान के नाम औचित्य के साथ की जा सकती है! कहने को तो यह कहा जाता है कि चौकीदार रात का पहरा देते हैं, मगर जहां तक इलाका हरियाणा का अमल है, यह दावा कतई गलत है। यहां कोई चौकीदार पहरा नहीं देता।

लेकिन अगर बड़े-बड़े नगरों में नजर डालें, तो वहां के लोगों से पहरा चौकी की कोई रकम वसूल नहीं की जाती। इनकी रक्षा का प्रबंध पूरे तौर पर गवर्नमेंट के जिम्मे है। और जो कुछ इस रक्षा के नाम पर खर्च होता है, इसमें से गैर-जमींदार नगर-निवासी  एक कोड़ी भी नहीं देता। कोई गवर्नमेंट से पूछे कि यह कहां का न्याय है तो गवर्नमेंट के पास कोई उचित उत्तर नहीं। पहले तो देहात में चौकीदार पहरा नहीं देते और यदि पहरे को चौकीदार के कत्र्तव्य में दाखिल समझा जाए तो इस पहरे की कोई जरूरत नहीं। गरीब देहातियों के पास है ही क्या? जिसकी रक्षा की जरूरत हो? और यदि रक्षा की आवश्यकता हो तो वे अपनी रक्षा अपने-आप कर सकते हैं। वे चौकीदार की सहायता पर निर्भर नहीं है। इन बातों के बावजूद भी देहात की पहरा चैकी के बहाने से चौकीदारों के वेतन का बोझ देहातियों पर, परन्तु नगरों के पहरा-चैकी का बोेझ दूसरों पर। नगरों में दौलत होती है। शहरी स्वयं इस दौलत की रक्षा के योग्य नहीं होते। अंधेरे में घर से बाहर नहीं निकल सकते और घर में चोर घुस जाए तो भागते हुए भी जोर के खर्राटे लेने लगते हैं कि चोर को पूरा संतोष हो जाए कि तमाम घरवाले गहरी नींद सोए हुए हैं। परंतु इन सब बातों के बावजूद गवर्नमेंट नगरों की पहरा चौकी का बोझ शहरियों पर डालने को तैयार नहीं। इससे उल्टा यह और हुआ कि जहां पहले सिटी पुलिस का खर्च नगरों के जिम्मे था, वह भी गवर्नमेंट ने अपने जिम्मे ले लिया। अरी बहरी सरकार कुर्बान जाएं तेयरी न्याय और सिद्धांत प्रियता पर! नगरवालों की तो चांदी कर दी। चित्त भी उनकी और पट भी उनकी! और देहात वालों के साथ वो हुई कि मूए को मारे शाह मदार (मरे हुए को मारने वाला शाह मदार ही हो सकता है) मालूम होता है कि हमारी गवर्नमेंट के अंदर भी शहरी ही शहरी भरे पड़े हैं जिनको देहात वालों के साथ कोई सहानुभूति नहीं या जो देहातवालों की मुसीबतों को समझ नहीं सकते।

पाठकगण! हालत पर एक और सरसरी दृष्टि डालकर देखिए। प्रांत में टैक्सों की बोझ की तकसीम पर सरसरी नजर डालिए। पंजाब की सामूहिक सालाना आमदनी 12 करोड़ रुपए से कुछ कम है। इसमें से कोई पौने चार करोड़ रुपए की करीब मामला जमीन की आमदनी है। 6 करोड़ के करीब आबयाना की आमदनी है। यह सारा बोझ किसान के सिर पर है।

एक करोड़ के करीब आबकारी से आय होती है। लोग खूब समझते हैं इसमें से 90 प्रतिशत किसानों की जेब  से निकलता है। इस्टाम से भी करीब एक करोड़ रुपया सालाना हासिल होता है। जो लोग कचहरियों और मुकद्दमेबाजी के हालात से परिचित हैं। उनसे यह बातें छिपी नहीं कि इस्टाम की आय का ज्यादा भाग भी किसान के घर से ही निकलता है। इस प्रकार किसान टैक्सों से गूंद की तरह लथपथ है। इससे उल्टे शहरी लोग और गैर-जमींदार टैक्सों से बहुत बचे हुए हैं। आय-कर के अतिरिक्त और कोई टैक्स नहीं, जिसका बोझ सीधा गैर-जमींदार के सिर पर पड़ता हो। राज के खर्च की तकसीम सरासर अन्याय पर निर्भर है और इस बोझ को नए सिरे से तकसीम करने की आवश्यकता है। इस आवश्यकता की ओर गवर्नमेंट का ध्यान कब खिंचेगा यह कहना कठिन है।

आज हजरात जिनमें छोटे-बड़े सरकारी अफसर भी शामिल हैं, बड़ी लापरवाही के साथ यह कहा करते हैं कि मामला जमीन का भी क्या बोझ है? यह बोझ तो बड़ा हल्का है। कभी किसी हुकूमत के नीचे मालगुजारी का बोझ हल्का नहीं हुआ। किसान फिजूल खर्च स्वभाव का होता है। इस पर जो कर्जा है, इसकी जिम्मेदारी मामला-जमीन पर नहीं, बल्कि दूसरी प्रकार की फिजूल खर्चियों के कारण से है। किसान शादी, गमी और सामाजिक उत्सवों पर ज्यादा खर्च कर देता है और मुकद्दमेबाजी से बड़ा प्रेम रखता है। इसलिए वह ऋणी रहता है, मालगुजारी की वजह से नहीं। परन्तु ये हजारात दो बातों को बिल्कुल भूल जाते है। एक यह कि किसान फिजूलखर्ची उस समय करता है, जब फसल अच्छी होती है। उत्सवों को आगे-पीछे कर सकता है। जरूरयात और हालात के अनुसार खर्च को कम-फालतू कर सकता है। यदि हाथ में पैसा न हो और कर्ज भी न मिले तो बाज किस्म के खर्चों को बिल्कुल टाल सकता है। दूसरी बात यह है कि यद्यपि औसत दर्जे के सालों में मामला जमीन का बोझ बड़े और औसत दर्जे के किसान की हालत में कोई भारी नहीं है। लेकिन जिस किसान की पैदावार केवल उसके गुजारे के लिए काफी है या गुजारे के लिए काफी नहीं है, उसके लिए तो मालगुजारी का पैसा भी दूभर है। मिसाल मशहूर है, गरीबी में टके का हाथी भी महंगा होता है। इसी प्रकार जो किसान अपने कुटुम्ब का पेट पालने में बेबस है, उसके लिए तो एक एकड़ पर एक पैसा देना भी कठिन है और एक पैसा जो मालगुजारी के लिए दूसरे से लेता है, उसको कर्जे की दलदल में धकेल देता है। इसके अतिरिक्त मालगुजारी के मुतालबे को कोई टाल नहीं सकता। यह तो यम देवता की तरह सिर पर सवार होता है कि अपनी भेंट लेकर ही टलता है। कुर्की का डर, नीलामी का डर, अचल सम्पति खतरे में, चल सम्पति जोखे में, अपनी गिरफ्तारी का अंदेशा, जब्ती का खटका। जिस मुतालबे के पूरा न करने से इस कदर खौफनाक परिणाम हो सकते हैं। इसका तकाजा तो किसान के लिए मल्क उलमौत (यम दूत) के तकाजे से भी अधिक घातक है। और भी आश्चर्यजनक बात यह है कि चाहे पैदावार कैसी हो, मामला-जमीन की अदायगी लाजिमी है। माफी तो समझिए नफी के बराबर है। इलतवा रहमत नहीं। बल्कि अगले वर्ष के लिए टालना कई बार कष्टदायक बात सिद्ध होती है। बारानी इलाकों में चूंकि फसलें तीन साल में एक साल औसत या औसत से बेहतर होती हैं, इसलिए मामला जमीन किसान को कर्जे में डुबाने का सबसे बड़ा और सबसे गारतकर कारण है।

किसान की इन कठिनाइयों के जिक्र को सरकारी अफसर और सरकारी हजरात हंसी में टाल देते हैं। यदि शहर वालों को जरा तकलीफ हो तो आसमान को सिर पर उठा लेते हैं। अखबारों में शोर मच जाता है। प्लेटफार्म धुआंदार तकरीरों से गूंजने लगता है। गवर्नमेंट का इंद्र आसान हिल जाता है और तुरंत फर्जी और काल्पनिक शिकायत को भी दूर करने की फिक्र होने लगती है। शहरियों को संतुष्ट करने का प्रबंध होने लगता है। इनको शांत करने के उपाय निकाले जाते हैं, लेकिन किसान भूखा है, नंगा है, कर्जे के बोझ से उसकी कमर टूटी जाती है, लेकिन इनकी ओर से ध्यान खींचने का कष्ट कोई नहीं उठाता।

मेरे किसान भाई! क्या तूने सोचा कि तेरी इस कदर बेकारी किसलिए है? तू इस प्रकार टोटा क्यों ढो रहा है? बतलाऊं? तूने अपनी ताकत को नहीं पहचाना। तूरे अपनी शक्ति से काम नहीं लिया। तू अपने-आप को छोटा व हीन समझता रहा है। दूसरे भी तुझे छोटा समझते हैं। तू अपना संगठन कर। तू अपनी शक्ति के भंडार के द्वार खोल दे। बोदे विचारों और उत्साह हीन भावना से अपना दामन छुड़ा ले। फिर देख क्या होता है।

क्यों गिरफ्तारे-तिलिस्मे-हेच मिकदारी है तू?

देख तो पोशीदा तुझमें शौकते-तूफां भी है।।

(तू हीन भावना के जादू की पकड़ में क्यों जकड़ा जाता है? जरा अपने अंदर झांक। तेरे अंदर तो तूफान की शक्ति छिपी हुई है।)

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Author: सर छोटू राम

जन्म: 24 नवम्बर 1881, दिल्ली-रोहतक मार्ग पर गांव गढ़ी-सांपला, रोहतक (हरियाणा-तत्कालीन पंजाब सूबा) में       चौधरी सुखीराम एवं श्रीमती सिरयां देवी के घर। 1893 में झज्जर के गांव खेड़ी जट में चौधरी नान्हा राम की सुपुत्राी ज्ञानो देवी से 5 जून को बाल विवाह। शिक्षा: प्राइमरी सांपला से 1895 में झज्जर से 1899 में, मैट्रिक, एफए, बीए सेन्ट स्टीफेन कॉलेज दिल्ली से 1899-1905। कालाकांकर में राजा के पास नौकरी 1905-1909। आगरा से वकालत 1911, जाट स्कूल रोहतक की स्थापना 1913, जाट गजहट (उर्दू साप्ताहिक) 1916, रोहतक जिला कांग्र्रेस कमेटी के प्रथम अध्यक्ष 1916-1920, सर फजले हुसैन के साथ नेशनल यूनियनिस्ट पार्टी (जमींदार लोग) की स्थापना 1923, डायरकी में मंत्राी 1924-1926, लेजिस्लेटिव काउंसिल में विरोधी दल के नेता 1926-1935 व अध्यक्ष 1936, सर की उपाधि 1937, प्रोविन्सियल अटॉनमी में मंत्री 1937-1945, किसानों द्वारा रहबरे आजम की उपाधि से 6 अप्रैल 1944 को विभूषित, भाखड़ा बांध योजना पर हस्ताक्षर 8 जनवरी 1945। निधन: शक्ति भवन (निवास), लाहौर-9 जनवरी 1945। 1923 से 1944 के बीच किसानों के हित में कर्जा बिल, मंडी बिल, बेनामी एक्ट आदि सुनहरे कानूनों के बनाने में प्रमुख भूमिका। 1944 में मोहम्मद अली जिन्ना की पंजाब में साम्प्रदायिक घुसपैठ से भरपूर टक्कर। एक मार्च 1942 को अपनी हीरक जयंती पर उन्होंने घोषणा की-‘मैं मजहब को राजनीति से दूर करके शोषित किसान वर्ग और उपेक्षित ग्रामीण समाज कीसेवा में अपना जीवन खपा रहा हूं।’ भारत विभाजन के घोर विरोधी रहे। 15 अगस्त 1944 को विभाजन के राजाजी फॉर्मुले के खिलाफ गांधी जी को ऐतिहासिक पत्र लिखा।

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