30 दिसम्बर, 1803 को दौलत राव सिन्धिया ने सिरजी अंजनगांव की सन्धि द्वारा हरियाणा प्रदेश ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी को सौंप दिया। प्रशासन के लिए रेजिडेंट नियुक्त करके इसे बंगाल प्रेसीडेंसी में सम्मिलित कर दिया गया। यमुना के दायें तटीय प्रदेश का उपखण्ड, जिसमें उत्तर की ओर पानीपत, सोनीपत, समालखा, गन्नौर तथा हवेली पालम तथा दक्षिण में नूह, हथीन, तिजारा, भोरा, तपुकरा, सोहना, रिवाड़ी, इन्द्री, पलवल आदि के परगने शामिल थे, ‘समनुदेशित प्रदेश’ के रूप में सीधा रेजीडेंट के प्रशासन के अंतर्गत रखा गया तथा शेष प्रदेश का निपटारा विभिन्न मुखियों तथा सरदारों में कर दिया गया। उदाहरणार्थ, फर्रुखनगर के ईसा खां तथा बल्लभगढ़ के राजा बहादुर सिंह को स्थायी तौर पर जागीरें सौंप दी गई तथा फैज तलबखां तथा अहमद बक्श खां को क्रमशः पटौदी और लौहारू एवं फिरोजपुर झिरका के परगने दिए गए। रिवाड़ी परगना में 87 गांवों की एक जागीर अहीर सरदार राव तेज सिंह को सौंप दी गई। होडल तथा पलवल परगने मुर्तजा खां तथा मुहम्मद अली खां अफरीद को दे दिए गए। रोहतक, महम, बेरी, हिसार, हांसी, अग्रोहा, तोशाम, बरवाला तथा जमालपुर रोहिला सरदार बम्बू खां तथा अहमद बक्श के हिस्से में आए तथा फिर अब्दुस समद खां को दिए गए। करनाल के कुछ गांव मुजफ्फर नगर में नवाब मुहम्मद अली खां के हिस्से आये और सरधाना बेगम समरु को भी उस परगने के कुछ गांव मिल गये तथा कुंजपुरा का नवाब दिलेर खां, थानेसर का राजा भाग सिंह, कैथल का भाई लाल सिंह, लाडवा का गुरदत्त सिंह और शामगढ़ का सरदार अपने-अपने स्थानों पर ही अड़े रहे।
परन्तु यह व्यवस्था भी बहुत प्रयत्न से की गई। 1805 में कर्नल बर्न को अनेक सिक्ख सरदारों से युद्ध करना पड़ा। रोहतक तथा गुड़गांव की समस्या सैनिक कार्यवाही से सुलझानी पड़ी। हिसार भी एक गंभीर समस्या बना हुआ था। फतेहाबाद तथा रानिया के सरदार खान बहादुर खां तथा नवाब जबिता खां ने हिसार के नाजिम इलियास बेग को मार डाला था। अतः 1810 में एडवर्ड गार्डनर कर्नल जेम्स स्किन्नर के नेतृत्व में अश्वसेना लेकर व्यवस्था स्थापित करने के लिए आगे बढ़ा, रोहतक तथा हिसार में से होता हुआ भिवानी पर कब्जा कर लिया तथा फतेहाबाद और रानिया के हठीले शासकों को पराजित करके अनेक विखंडनजात शक्तियों का दमन किया। परन्तु ब्रिटिश कमाण्डरों एवं प्रशासकों ने प्रलोभन देकर अंततः सरदारों को शांत कर दिया तथा उपर्युक्त अनुसार उनमें से कुछेक को स्थायी तौर पर जागीरें सौंप दी।
उस समय हरियाणा में अराजकता फैली हुई थी। कुछ दशाब्दियों तक यहां कोई व्यवस्थित प्रशासन नहीं रहा था। मेटकाफ के अनुसार प्रत्येक गांव में चोरों का अड्डा बना हुआ था, जो दिल्ली तक छापा मारकर लूटमार करते रहते थे। (पर्सिबल स्पीयर, ‘ट्विलाइट आफ दी मुगल्ज’, पृ. 85-86) अतः पुनः व्यवस्था तथा सामान्य प्रशासन स्थापित करना सुगम नहीं था। स्पष्टतः यह युग अत्यधिक संघर्ष और असंतोष का युग था।
1819 में सिविल प्रशासन आयुक्त को सौंप दिया गया तथा समनुदेशित क्षेत्र तीन मंडलों में विभाजित कर दिया गया, जहां आयुक्त के सहायक कार्य चलाते थे। 1825 में सिविल प्रशासन पुनः रेजीडेंट को सौंप दिया गया, परन्तु चार वर्ष पश्चात फिर इसे दो भागों में बांटना पड़ा। 1833 में उत्तरी पश्चिमी प्रांत बना दिया गया, जिसका मुख्यालय आगरा में था। इसमें से छः मंडल थे, उनमें से एक दिल्ली मंडल था, जिसमें हरियाणा सम्मिलित था। इस मंडल को पुनः पानीपत, हिसार, रोहतक, गुड़गांव तथा दिल्ली जिलों में विभाजित किया गया। प्रत्येक जिले का कार्यभारी मैजिस्ट्रेट एवं कलैक्टर होता था। प्रत्येक जिले को तहसीलों में और तहसील को जैलों में बांटा गया। एक जैल में कई गांव होते थे, जहां नंबरदार तथा मुकद्दम पटवारियों की सहायता से राजस्व की वसूली करते थे।
साभार-बुद्ध प्रकाश, हरियाणा का इतिहास, हरियाणा साहित्य अकादमी पंचकूला, पृः 76