हरियाणा की पहचान का सवाल – सुभाष चंद्र

हरियाणा के गठन से ही जब-तब बुद्धिजीवी और राजनीतिज्ञ हरियाणा की पहचान ढूंढने की कवायद करते रहे हैं। लेकिन वे सर्वमान्य पहचान को चिह्नित करने में असफल ही रहे हैं। राजनीतिज्ञ अपना राजनीतिक नेतृत्व जमाने के लिए स्थानीयता का खास मुहावरा तलाशता है और अपनी छवि के साथ क्षेत्र-विशेष को जोड़ने की कोशिश करता है। राजनीतिक नेताओं की व्यक्तिगत महत्वकांक्षाएं जब इलाके की पीठ पर सवारी करने लगती हैं तो कहीं बांगर की चौधर का सवाल हो जाता है तो कहीं अहीरवाल का या बागड़ का। हरी, गुलाबी, केसरिया और पीले रंग की अपनी पगड़ियों के रंगों को ही हरियाणा की पहचान बताने लगता है। पर जब ये राजनीतिक पगड़ियां सत्ता के गलियारे में दम तोड़ने लगती हैं तो लोग भी पहचान की पगड़ी को तह करके अपनी कांख में दबा लेते हैं।

जब कोई बुद्धिजीवी हरियाणा की पहचान के सवाल से जूझता है तो वह हरियाणा के विभिन्न क्षेत्रों में कुछ सामान्य सूत्र ढूंढने के लिए मगजपच्ची करता है और सफलता हाथ नहीं लगती। असफलता का मुख्य कारण हरियाणा की विविधता का जश्न न मनाकर उनके बीच एकता को ढूंढ निकालने पर ही उसका जोर रहता है। एकता पर जोर होने से इसकी विविधता को हरियाणा की ताकत न मानकर कमजोरी ही समझा गया। एकता तलाश हुई भी तो उसके बाहरी स्वरूप में न कि उसके मूल्यों में। हरियाणवीपन आविष्कृत करने के उत्साह में स्थानीय विविधताओं की अनदेखी करना कतई उचित नहीं।

भारत की विविधताओं की तरह ही हरियाणा की संस्कृति में भी विविधताएं हैं, जिन्हें किसी एक निर्धारित सांचे में बिल्कुल फिट नहीं किया जा सकता। कृत्रिम हरियाणवीपन ‘इन्वेंट’ न करके ब्रज, मेवात, खादर, बांगर, बागड़ और अहीरवाल की विविधताओं के बीच आदान-प्रदान  की कड़ियों व प्रक्रियाओं को चिह्नित करने की जरूरत है। हरियाणा की विविध संस्कृतियों पर गंभीर विमर्श की आवश्यकता है, जिनकी समग्रता में ही हरियाणा की पहचान बनती है।

संस्कृति निरंतर परिवर्तनशील व प्रवाहमान है। संस्कृति को स्थैतिक रूप में नहीं बल्कि बदलावों की निरंतरता में ही समझा जा सकता है। संस्कृति कोई बनी-बनाई वस्तु नहीं है, जिसका हमें पालन और रक्षा करनी है, बल्कि वह सतत प्रवाह है, जिसमें हर पीढ़ी अपने अनुभवों को जोड़कर सांस्कृतिक मूल्यों को प्रासंगिक और पुनर्नवा करती है। इस तरह संस्कृति जोहड़ के ठहरे हुए पानी की तरह नहीं, बल्कि बारहमासी नदी की तरह है, जिसमें विभिन्न स्तरों पर समानान्तर रूप से अनेक प्रक्रियाएं घटित होती रहती हैं।

हरियाणवी संस्कृति के विमर्श में संस्कृति के बाह्य रूप यानी पुरानी वस्तुओं, ढांचों और रीति-रिवाजों को ही संस्कृति के पर्याय के तौर पर प्रस्तुत किया। कभी-कभी धर्म को ही संस्कृति का पर्याय मान लिया गया। मानो कि धार्मिक कर्मकांडों का निर्वाह करना ही सांस्कृतिक कर्म हो।

जीवन-मूल्यों के निर्माण-विघटन की प्रक्रियाओं और उनके सामाजिक आधार के विश्लेषण की सांस्कृतिक-विमर्श में केन्द्रीय जगह नहीं बनी, जबकि संस्कृति तो मूल्यों में ही निहित होती है। हरियाणा के सांस्कृतिक-विमर्श में संस्कृति के दस्तावेजीकरण पर बहुत जोर दिया गया। यद्यपि संस्थागत तौर पर विशेष काम नहीं हुआ, लेकिन व्यक्तिगत तौर पर इस दिशा में कुछ प्रशंसनीय काम जरूर किए गए हैं, परन्तु इसमें एक अतीतमोह की भावना थी। संस्कृति के नाम पर पुरातन को इस भाव से प्रस्तुत किया गया कि यह वर्तमान से बेहतर था और इसे पुनसर््थापित करना है। सही है कि किसी समाज के वर्तमान को समझने के लिए उसके अतीत को जानना जरूरी है, लेकिन उसको दोबारा कभी जिया नहीं जाता। भवनों-स्थापत्य आदि को संजोना निहायत जरूरी है, लेकिन अब उसकी नकल करके वैसा ही करना हास्यास्पद होगा। इतिहास का दोहराव पैरोडी बन जाता है। आज कोई शासक मुकुट पहनकर, तलवार लगाकर घोड़े पर चढ़कर आये या हाथी पर अपनी शोभायात्रा निकाले तो कितना हास्यास्पद व मनोरंजक दृश्य होगा। देवताओं सा रूप बनाकर बाजार में घूमने वाले बहुरूपियों के प्रति कभी श्रद्धाभाव जागृत नहीं होता, कोई उनमें देवताओं का रूप नहीं देखता। वर्तमान कभी भी अतीत को उसके मूल रूप में धारण नहीं करता, बल्कि मूल्य के रूप में वह वर्तमान का हिस्सा होता है।

हरियाणा के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में शास्त्रोक्त आचार-संहिताओं की बजाय लोक का ही प्राधान्य है। शास्त्रीयता जहां एक विशेष पद्धति व अनुशासन की अपेक्षा करता है, लोक में खुलापन व खुरदरापन होता है। अपने संकटकाल में लोक शास्त्रा की बजाए जीवन की व्यावहारिकता से ही निर्णय करता है, इस मायने में हरियाणवी संस्कृति ‘शास्त्रा’ की बजाय ‘लोक’ से संचालित है।

यहां के देवी-देवता व पूजा पद्धतियां भी लोक की हैं। गांव के स्तर पर बाहरली माता, बूढ़ी माता, अलखदाता और खेड़ा आदि देवता के तौर पर प्रतिष्ठित हैं। इन देवताओं का कोई सार्वभौमिक स्वरूप नहीं है, कोई विशेष आकार नहीं है। पूजा की भी विशेष पद्धति नहीं है। कुछ खील-पतासे, कच्चे अनाज के दाने, मीठे चावल आदि सामान लिया, हाथ जोड़कर जय हो का उच्चारण कर दिया। प्रार्थना इतनी सी कि निराकार देवता से दूध-पूत में वृद्धि मांग ली और हो गई पूजा संपन्न। कोई आरती नहीं, कोई मंत्र नहीं किसी पुजारी की जरूरत नहीं। न कोई भव्यता, न ताम-झाम। एकदम सहज। जाहर वीर गोगा पीर में यहां के लोगों की गहरी आस्था है। वह भी लोक का ही देवता है किसी शास्त्र का पात्र नहीं है, बल्कि लोक ने ही उसकी रचना की है। आज भी गोगा पीर की छड़ी पूरे प्रदेश में घूमती है। पौराणिक कथाएं जीवन से गायब तो नहीं हैं, लेकिन मुख्यतः लोककथाएं, लोकगाथाओं में ही हरियाणवी मानस रस लेता रहा है।

हरियाणा समाज रूढ़िवादी समाज नहीं रहा। यहां की परम्पराओं और लोकजीवन में बौद्ध धर्म, सूफी-परम्परा, संत- परम्परा और आधुनिक समाज के अपेक्षाकृत प्रगतिशील मत आर्यसमाज का प्रभाव रहा है। शास्त्रीय परम्परा के संवाहक यहां के पण्डित भी उनके यजमानों जैसे ही हैं। कोई विशेष अंतर नहीं रहा है। धार्मिक संकीर्णता-कट्टरता व संस्थागत-कर्मकाण्डी धर्म की बजाए लगातार धर्म की मानवीय शिक्षाएं व सहज पहलू ही यहां के जीवन का अंग रहे हैं।

पिछले कुछ समय में हरियाणा के गांवो-शहरों में लोक देवताओं की जगह बड़े-बड़े शिवाले-गुरुद्वारे आदि बने हैं, डेरे भी बने हैं और उनके अनुयायी भी बढ़े हैं, कांवड लेकर आने वालों की संख्या भी बढ़ी है, लेकिन आध्यात्मिकता, सहनशीलता, संयम, सच्चाई, ईमानदारी आदि मूल्यों का ह्रास हुआ है। यह जांच-पड़ताल का विषय है कि कर्मकांडी संस्थागत धर्म और आधुनिक उपभोक्तावादी संस्कृति में क्या संबंध है। उपभोक्तावाद-बाजारवाद की टीम-टाम बढ़ी और बाजार घरों में समाने लगा तो सहज धार्मिक जीवन में भी बाजार अपनी पैठ बनाने लगा। सत्यनारायण की कथाओं और देवी की कढाईयों के स्थान पर भव्य व महंगे जगरातों का नया     अध्याय शुरू हो गया। फिल्मी गीतों की धुनों के साथ मिलकर     धार्मिक-आध्यात्मिक भावना की पूर्ति विकृत रूप में हो रही है। कथा वाचन व आयोजन ने व्यवसाय का रूप धारण कर लिया। कितनी ही संस्थाएं व कथावाचक धन लेकर कथाएं करने के कारोबार में हैं और कथाओं के लिए कितना चंदा एकत्रित किया जाता है। स्वाभाविक है कि जहां बाजार की पैठ होती है, वहां विकृति आती है।

असल में बाजारवाद-उपभोक्तावाद मनुष्य को सांस्कृतिक तौर पर खोखला करता है और अपनी जगह बनाता है। मनुष्य एक सांस्कृतिक प्राणी है, संस्कृति उसकी मूलभूत जरूरत है। बाजार उसकी इस जरूरत को अपनी शर्तों पर पूरी करता है। जीवन से जो चीजें गायब हो रही हैं बाजार उनको कृत्रिम ढंग से पूरा करने की कोशिश करता है। मसलन मां-बापू से कोई ताल्लुक नहीं है, लेकिन कथित धार्मिक मां-बापू की सेवा में हर सप्ताह हाजिर हैं।

संस्कृति का काम-धंधों व प्राकृतिक वातावरण के साथ गहरा संबंध है। इनके बीच में ही वह बनती है। काम-धंधों के स्वरूप में बदलाव आता है तो संस्कृति के रूप व उसके मूल्यों में भी बदलाव निश्चित है। हरियाणा का समाज कृषक समाज है और इसकी संस्कृति किसानी संस्कृति है। किसानी जीवन का संबंध कड़ी मेहनत से है। मेहनती समाज में ईमानदारी, खुद्दारी, और साहस स्वतः ही पनपते हैं। जो समाज व व्यक्ति मेहनत से दूर होता जाता है उसमें विशेष किस्म की विकृति पैदा होने लगती है। बिना मेहनत किए प्राप्त करने की इच्छा से पाखण्डपूर्ण व अमानवीय जीवन का निर्माण होता है।

हरियाणा से कृषि संस्कृति समाप्त हो रही है और उसकी जगह बाजारवाद-उपभोक्तावाद स्थापित हो रहा है, तो चालाकियां, चालबाजियां, बेईमानियां और मुफ्तखोरी  जीवन में घर करते जा रहे हैं। जो समाज पारदर्शी था वह औपचारिकताओं व दिखावों से भरता जा रहा है। विवाह-शादियों हो, रस्म-पगड़ियां हों या धार्मिक कार्यक्रम दिखावे पर बहुत जोर है।

हरियाणा में हरित क्रांति की सफलता ने देश-दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा था, यहां की खेती को माडल माना जाता था। अब इसके दुष्प्रभावों को लेकर चर्चा शुरु हो गई है। पिछले कुछ वर्षों से दलित-उत्पीड़न के जघन्य-कांडों तथा इज्जत के नाम पर युवक-युवतियों की हत्याओं के कारण हरियाणा चर्चा में रहा है।  विश्व स्तर पर खेलों में उपलब्धियों के कारण भी कुछ चर्चा हरियाणा की होती है। पॉपुलर मीडिया भी हरियाणा की बोली को अपने व्यावसायिक हितों के लिए प्रयोग कर रहा है। बालीवुड के चोटी के अभिनेता यहां की पृष्ठभूमि पर फिल्में बना रहे हैं। लेकिन हरियाणा के समाज व संस्कृति के आन्तरिक अन्तविर्रोधों पर गंभीर मंथन अभी शेष है। देस हरियाणा पत्रिका इस बहस को चलाना चाहती है, इस बहस में आपसे सक्रिय हिस्सेदारी की उम्मीद है।

हरियाणा चाहे ऊपरी तौर पर आधुनिक दिखाई दे रहा है। एकदम आधुनिक फैशन व ब्रांड के कपड़े, यातायात के आधुनिक साधन हैं, अत्याधुनिक गैजेटस हैं। आधुनिक समाज की समस्त सुविधाएं यहां मौजूद हैं, लेकिन आधुनिक समाज की सोच, मूल्य व तौर-तरीके यहां दिखाई नहीं देते। महिलाओं व समाज के कमजोर वर्गों-वंचितों के प्रति नजरिया व व्यवहार कतई आधुनिक नहीं हुआ। अक्षर और पुस्तक की उपस्थिति आम आदमी के जीवन में आधुनिक समाज में ही संभव हुई है। लेकिन हरियाणा के सामाजिक व व्यक्तिगत जीवन में इनकी उपस्थिति बहुत कम है। शायद ही कोई घर होगा, जिसमें कि पुस्तकों के लिए अलग से कोई स्थान बनाया गया है। शहरों में साहित्य के लिए कोई दुकानें नहीं हैं। विचार-विमर्श के केंद्र नहीं हैं। मध्यवर्ग के अधिकांश लोगों से यही बात सुनने में आई कि उनके पास समय नहीं है, लेकिन वे किस कर्म में व्यस्त हैं। इस पर भी उनके पास बताने के लिए कुछ नहीं है।

‘देस हरियाणा’ पत्रिका का यही प्रयास है कि हरियाणा के समाज में पठन-पाठन की संस्कृति विकसित हो। लोग अपनी समस्याओं व जीवन की बेहतरी में आ रही बाधाओं पर तार्किक ढंग से विचार-विमर्श करें। उनके सामूहिक समाधान की ओर बढ़ें। लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि होती है, इसलिए उसका सचेत होना ही लोकतंत्र के विकास की गारंटी है। समाज के लोकतांत्रिकरण की प्रक्रिया से ही सबके प्रति सम्मान व बराबरी का भाव पैदा होगा।

इस अंक में

हरियाणा के वरिष्ठ, युवा व नवोदित लेखकों का साहित्य  कहानियां, कविताएं, गजलें, लघुकथाएं, रागनियां हैं। हरभगवान चावला की ‘किश्तियाँ’ कहानी हरियाणा की गंभीर समस्या को पूरी विश्वसनीयता व जटलिताओं को समाहित किए हुए है। ज्ञान प्रकाश विवेक की ‘फासला’ कहानी इस सत्य को स्थापित करती है कि सामाजिक-संबंधों का आधार श्रम-संबंध होते हैं। यदि ये सूत्र बीच से गायब हो तो सामाजिक-संबंध भी बिखर जायेंगें। सुनील ‘पागल’ युवा कवि हैं। उनकी कविताएं जीवन-संघर्ष में भरोसा जगाती हैं। हरियाणा की विरासत में रहबरे-आजम दीनबंधु सर छोटूराम महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं, जिन्होंने किसान एकता के जरिये हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए काम किया। उनका ‘भारत में मजहब’ लेख दे रहे हैं। मुंबईया फिल्मों में हरियाणा की छवि का विश्लेषण करता सही राम का विशेष लेख तथा ‘दशरथ मांझी द माऊंटेन मैन’ पर कमलानंद झा का महत्वपूर्ण आलेख  है। उस्ताद धूलिया खान सारंगी वादक थे। उन्होंने प्रसिद्ध सांगी लखमीचंद के साथ काम किया था। रोशन वर्मा का लेख उनके व्यक्तित्व से परिचित करवाता है। पश्चिम ने भारत को कैसे समझा विषय पर अमनदीप वसिष्ठ का महत्वपूर्ण आलेख ‘ज्ञान-पश्चिम-औपनिवेशिकता’ दे रहे हैं।  बजरंग बिहारी तिवारी का आलेख ‘दलित प्रेम का आशय’ गुरू रविदास के के अनछुए पहलुओं को उजागर करके दलित-विमर्श का आधार विस्तृत करता है। स्वयं प्रकाश का आलेख ‘उसी को देखकर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले’ विश्व साहित्य के बेहतरीन उपन्यासों  से परिचित करवाता हैे। अरुण तिवारी का ‘पंचायती राजःअस्तित्व में आने की कहानी’ लेख इस अर्थ में प्रासंगिक है कि हरियाणा में पंचायत चुनाव हो रहे हैं। हरियाणा ने इसमें जो नई अयोग्यताएं जोड़ी हैं उन पर खूब बहस चल रही है। जहां एक पक्ष इसे पंचायतों के आधुनिकीकरण व शिक्षा की महत्ता को उजागर करने के कदम के रूप में देख रहा है, वहीं दूसरा पक्ष इसे बहुत बड़ी आबादी के लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन के रूप में देखता है। प्रो. टी.आर. कुंडू का आलेख ‘हरियाणा का आर्थिक विकास और सांस्कृतिक पिछड़ापन’ हरियाणा की संस्कृति के सामाजिक आधार तथा आर्थिक विकास के अन्तर्विरोधों को समझने के सूत्र देता है। इस बार ‘देसा’ छुट्टियां मना रहा है, और वहां दूसरे प्रांतों की लोककथाएं हैं। हरियाणा की अभिव्यक्ति का खास मुहावरा रागनी, लोकगीत, कविताओं में हैं। अंक आपके हाथ में है। आपके सुझाव पत्रिका को समृद्ध करेंगे।

(देस हरियाणा अंक 3 का संपादकीय)

सुभाष चन्द्र

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