मंगलेश डबराल की पांच कविताएं

मंगलेश डबराल (16 मई 1948- 09 दिसम्बर 2020)

तानशाह कहता है

हमारे बिना तुम कुछ नहीं कर सकते 
तानाशाह कहता है
तुम उठ नहीं सकते सांस नहीं ले सकते
कहींआ जा नहीं सकते
हम न हों तो तुम भी नहीं हो सकते

देखो तुम्हारी झोपड़ियों के छप्पर
उड़ गए हैं
और कई रोज से तुमने कुछ नहीं खाया
तुम्हारी फसल कोई लूट ले गया है
तुम्हारे बच्चे रो रहे हैं
आसमान की ओर मुंह किये हुए

फिर भी तुम खुश रह सकते हो
अगर हमारे होकर रहो
हम तुहारे लिए ही आए हैं
कहता हुआ तानाशाह नेपथ्य से आता है
जो हमारा नहीं उसकी खैर नहीं
कहकर मुस्कुराता है

तानाशाह कहता है
धैर्य रखो धैर्य बड़ी चीज है
अपने दुःख के बारे में मत सोचो
और दुःख होगा
मुझसे देखा नहीं जाता तुम्हारा दुःख
देखो देखो कितना बड़ा है मेरा दुःख

तानाशाह चाहता है
तुम सिर्फ उसके दुःख के बारे में सोचो
और कुछ करना ही है
तो इतना करो
कि जब वह मरने लगे
तो खोज लाओ एक नया तानाशाह

अत्याचारी के प्रमाण

अत्याचारी के निर्दोष होने के कई प्रमाण हैं 
उसके नाख़ून या दांत लम्बे नहीं हैं
आँखें लाल नहीं रहती
बल्कि वह मुस्कुराता रहता है
अक्सर वह अपने घर आमंत्रित करता है
और हमारी और अपना कोमल हाथ बढ़ता है
उसे घोर आश्चर्य है कि लोग उससे डरते हैं

अत्याचारी के घर पुराणी तलवारें और बंदूकें
सिर्फ सजावट के लिए रखी हुई हैं
उसका तहखाना एक प्यारी सी जगह है
जहाँ श्रेष्ठ कलाकृतियों के आसपास तैरते
उम्दा संगीत के बीच
जो सुरक्षा महसूस होती है वह बाहर कहीं नहीं है

अत्याचारी इन दिनों खूब लोकप्रिय है
कई मरे हुए लोग भी उसके घर आते जाते हैं

गुजरात के मृतक का बयान

 पहले भी शायद मैं थोड़ा-थोड़ा मरता था 
बचपन से ही धीरे-धीरे जीता और मरता था
जीवित रहने की अन्तहीन खोज ही था जीवन
जब मुझे जलाकर पूरा मार दिया गया
तब तक मुझे आग के ऐसे इस्तेमाल के बारे में पता नहीं था
मैं रँगता था कपड़े तानेबाने रेशे
टूटी-फूटी चीजों की मरम्मत करता था
गढ़ता था लकड़ी के हिंडोले और गरबा के रंगीन डाँडिये
अल्युमिनियम के तारों से बच्चों के लिए छोटी-छोटी साइकिलें बनाता
इसके बदले में मुझे मिल जाती थी एक जोड़ी चप्पल एक तहमद 
अपनी ग़रीबी में दिन-भर उसे पहनता रात को ओढ़ लेता
आधा अपनी औरत को देता हुआ 
 
मेरी औरत मुझसे पहले ही जला दी गई
वह मुझे बचाने के लिए मेरे आगे खड़ी हो गई थी 
और मेरे बच्चों को मारा जाना पता ही नहीं चला।
वे इतने छोटे थे उनकी कोई चीख़ भी सुनाई नहीं दी
मेरे हाथों में जो हुनर था पता नहीं उसका क्या हुआ 
मेरे हाथों का ही पता नहीं क्या हुआ
वे अब सिर्फ जले हुए ढाँचे हैं एक जली हुई देह पर चिपके हुए
उनमें जो हरकत थी वही थी उनकी कला 
और मुझे इस तरह मारा गया
जैसे एक साथ बहत से दूसरे लोग मारे जा रहे हों
मेरे जीवित होने का कोई बड़ा मक़सद नहीं था
लेकिन मुझे इस तरह मारा गया
जैसे मुझे मारना कोई बड़ा मक़सद हो।
 
और जब मुझसे पूछा गया तुम कौन हो
क्या छिपाए हो अपने भीतर एक दुश्मन का नाम
कोई मज़हब कोई तावीज़
मैं कुछ कह नहीं पाया मेरे भीतर कुछ नहीं था 
नहीं सिर्फ एक रंगरेज़ एक मिस्त्री एक कारीगर एक कलाकार 
जब मैं अपने भीतर मरम्मत कर रहा था किसी टूटी हुई चीज़ की
जब मेरे भीतर दौड़ रहे थे अल्युमिनियम के तारों की साइकिल के नन्हे पहिए तभी मुझ पर गिरी एक आग बरसे पत्थर 
और जब मैंने आख़िरी इबादत में अपने हाथ फैलाए
तब तक मुझे पता नहीं था बन्दगी का कोई जवाब नहीं आता 
 
अब जब कि मैं मारा जा चुका हूँ मिल चुका हूँ
मृतकों की उस मनुष्यता में जो जीवित मनुष्यों से भी ज्यादा सच्ची ज़्यादा स्पंदित है
तुम्हारी जीवित बर्बर दुनिया में न लौटने के लिए
मुझे और मत मारो और मत जलाओ न कहने के लिए 
अब जबकि मैं महज़ एक मनुष्याकार हूँ एक मिटा हुआ चेहरा
एक मरा हुआ नाम
तुम जो कुछ हैरत और कुछ ख़ौफ़ से मेरी ओर देखते हो 
क्या पहचानने की कोशिश करते हो
क्या तुम मुझमें अपने किसी स्वजन को खोजते हो
किसी मित्र-परिचित को या खुद अपने को 
अपने चेहरे में लौटते देखते हो किसी चेहरे को। 

संगतकार

मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती
वह आवाज़ सुंदर कमजोर काँपती हुई थी
वह मुख्य गायक का छोटा भाई है
या उसका शिष्य
या पैदल चलकर सीखने आने वाला दूर का कोई रिश्तेदार
मुख्य गायक की गरज़ में
वह अपनी गूँज मिलाता आया है प्राचीन काल से
गायक जब अंतरे की जटिल तानों के जंगल में
खो चुका होता है
या अपने ही सरगम को लाँघकर
चला जाता है भटकता हुआ एक अनहद में
तब संगतकार ही स्थाई को सँभाले रहता है
जैसा समेटता हो मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान
जैसे उसे याद दिलाता हो उसका बचपन
जब वह नौसिखिया था
तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला
प्रेरणा साथ छोड़ती हुई उत्साह अस्त होता हुआ
आवाज़ से राख जैसा कुछ गिरता हुआ
तभी मुख्य गायक को ढाढस बँधाता
कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर
कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ
यह बताने के लिए कि वह अकेला नहीं है
और यह कि फिर से गाया जा सकता है
गाया जा चुका राग
और उसकी आवाज़ में जो एक हिचक साफ़ सुनाई देती है
या अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है
उसे विफलता नहीं
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए।

दिल्ली: दो

सड़कों की बसों में बैठक घरों में इतनी बड़ी भीड़  में कोई नहीं कहता आज मुझे निराला की कुछ पंक्तियाँ याद आईं. कोई नहीं कहता मैंने नागार्जुन को पढ़ा है. कोई  नहीं कहता किस तरह मरे मुक्तिबोध.

एक कहता है मैंने कर ली है खूब तरक्की . एक खुश है कि उसे बस में मिल गई है सीट. एक कहता है यह समाज क्यूँ नहीं मानता मेरा हुक्म. एक देख चूका है अपना पूरा भविष्य. एक कहता है देखी किस तरह बनाता हूँ अपना रास्ता.

एक कहता है मैं हूँ गरीब. मेरे पास नहीं है कोई और शब्द.

साभार- प्रतिनिधि कविताएँ, मंगलेश डबराल; राजकमल प्रकाशन २०१७

2 thoughts on “मंगलेश डबराल की पांच कविताएं

  1. Avatar photo
    Rishikesh Rajli says:

    तानाशाह तो तानाशाह होता है

    Reply
  2. Avatar photo
    हरपाल says:

    बडे कवियों को बिना पढे
    हम बहुत समय तक
    उनके बडप्पन से आतंकित रहते हैं
    फिर
    जब हम उन्हें पढते हैं
    तो काफि देर तक
    उनकी सरलता और सहजता की ओस से
    भीगते रहते हैं….

    Reply

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *