5 कविताएं- डॉ. पूनम तुषामड़

डॉ. पूनम तुषामड़

1.

सुनो देव!
मुझे नही चाहिए
तुम्हारे इस भव्य मंदिर
में प्रवेश।
नही चाहिए
तुम्हारा दर्शन और प्रसाद।
क्योंकि..
तुम पत्थरों की
इस सुंदर इमारत में रखे
गढ़े हुए पत्थर हो
और मैं पत्थरो के बीच
पत्थर नही होना चाहती।

2.

मुनिया और स्कूल
माँ सुबह -सवेरे
आवाज लगाती है।
उठो मुनिया!
स्कूल को जाना है,
कहकर झाड़ू उठाकर
काम पे जाती है।
मुनिया,उठती ,चलती।
आँखे मलती।
गिरती संभलती।
मुँह धोती,वर्दी पहनती
बस्ता उठाकर स्कूल को
चलती।
गलियों बस्तियों,रेलवे
लाइनों से गुज़रती
'हाथ मे मोर का पंख धरती'

मुनिया स्कूल पहुंचते ही
सहम जाती है।
मोर के पंख वाली मुट्ठी
ओर जोर से कस जाती है।
डरते,झिझकते,मनोति करते
कक्षा के द्वार पर आती है।

अध्यापिका कक्षा में
बच्चों को बालदिवस पर
भाषण देती हुई बताती है।
चाचा नेहरू कहते थे
"बच्चे देश का भविष्य हैं".

दूसरे ही पल
अध्यापिका की नज़र
मुनिया पर जाती है।
वह देखते ही मुनिया को
ज़ोर से चिल्लाती है
तुम..!
आज फिर देर??
तेज़ तमाचे की आवाज़
के साथ अध्यापिका
अनुशासन का पाठ
पढ़ाती है।
तपती धूप में मैदान के
चक्कर कटवाती है।
मुनिया थककर गिर जाती है।
मुझे चाचा नेहरू याद हो आते हैं।

3.

मैं नदी हूं।
रोकने से कब किसी के
मैं रुकी हूं।
बन के निश्छल धार
जल की मै बही हूं।
मै नदी हूं।

जंगल और पर्वत शिखर
को चीरकर ।
मैं धारा की गर्वीली
पुत्री बानी हूं।
में नदी हूं।

मैं नही किसी देव के
केशों से निकली
मै नही फूटी किसी के
तीर से।
मत बनाओ मुझे
किसी तीर्थ की देवी
कर सको ,शीतल करो मन
मेरे निर्मल नीर से।
मैं प्रकृति की सुता ,
में धरा की बालिका बनकर
पाली हूं।
मैं किसी भी ईष्ट के आधीन
बनकर कब रही हूं।
में नदी हूं।

मैं हूं गंगा,मैं ही यमुना।
मैं  ही सतलुज, मैं नर्मदा।
में ही रावी,में ही जेहलम।
टेम्स,वोल्गा ओर अमेज़न ।

मेरे ही तट पर बसे हैं
शहर सारे।
मैं न जाति-धर्म में
बांधकर रही हूं।
आश्रय पाते हैं सब
मेरे किनारे।
में विषमता में भी क्षमता
की छवि हूं।
देश और विदेश तक
फैली हुई हूं।
कब किसी के हाथ से
मैली हुई हूं।

मैं बहा ले जाती  हूं
दुख-दर्द सारे।
मैं चली हूं बन गति
तोड़े किनारे।
बंधने से बंधनो में।
कब बंधी हूं।
तोड़ सारे बांध में
बढ़ बन आगे बढ़ी हूं।
मैं नदी हूं।

मैं हूं यौवन
मैं ही सावन
मैं ही हूं हर पर्व पावन
मैं हूँ ममता
मैं समर्पण।
मैं तेरे कर्मो की
एकल साक्षी हूं।
में नदी हूं।

मैं हूँ सुर
और मैं ही संगम
मैं हूँ जीवन ।
में समागम।
मैं ही अश्रुधार बनकर
आंख से जग की बही हूं।
मैंने सींचा मन को सबके
प्रेम प्रवाह मै बनी  हूं।
मैं नदी हूं।
में हुन शक्ति
में ही आशा ,मैं हूं तो
कैसी निराशा।
में तेरे खेतों में बहती
शीत जल प्रवाहिनी हूं।
बांध जब मुझपर बने तो
दामिनी हूं।
जो करोगे प्रेम तो मै
रागिनी हूं।
झूठी मर्यादाओं में
न मैं बंधूगी।
परांपरा ओर संस्कृति के
नाम पर न मैं दबुंगी।

मैं हूँ निश्छल धार
निष्छल ही रहूंगी।

संत और सूफी बसे
मेरे किनारे
प्रेम और विद्रोह का
संदेश लेकर जो पधारे
उनके मस्तक की छुवन हूं।
उनकी वाणी की गवाह हूं।
उनके काव्य की सजग
जनवाहिनी हूं।
में नदी हूं।

बादलों ने  मुझपे
निर्बल जल लुटाया।
पर कभी भूले न
अपना हक जताया
बांधने की भूल न की
खुद कभी पर्वत शिखर ने।
ना कभी रोके रुकी हूं
मैं किसी गांव शहर में।

मैं किसी न कि बपौती
भी नही हूं।
मैं हूँ खुद ही स्वामिनी
स्वतंत्र चिर हूं।
मैं नदी हूं।

नित किये  उपक्रम तुमने
स्वार्थ हित को साधकर
आहत प्रकृति को किया
जान पर निशाना साध कर
इन आपदाओं के हो
उत्तरदायी तुम ही
मैं नही हूं।
में नदी हूं।

मेधा के संघर्ष का आह्लाद
हूं मैं।
शोषित पीडित जन की
आवाज़ हुन मैं
संत हेत संघर्ष का आह्लाद हूं मैं।
कब किसी शासक के आगे
मैं झुकी हूं।
लेके जन का साथ मैं
आगे बढ़ी हूं।
मैं नदी हूं।

गर कभी रोके तुम्हारे
मैं कहीं रुक जाऊंगी
तोड़ दूंगी, डैम वहीं
सड़ गल ,के ठहरा जल बनी।
सूख जाऊंगी या फिर
मिट जाऊंगी।
मैं तुम्हारे काम की फिर
क्या भला राह जाऊंगी।
मेरा जीवन ही गति है।
रुकना मेरा ध्यय नही है।
मैं सागर का अंग।
सागर से ही मैं
मिलने चली हूं।
मैं नदी हूं।

4.

लोकतंत्र की धूल
देखा आज रास्ते में
एक जीवित नर कंकाल
हाथों की हड्डियों में
कुछ थाम कर खाता हुआ।

चिलचिलाती धूप में
नंगे पांव,ट्रैफिक के बीच
दौड़ता हुआ बचपन
अखबार! अखबार!
आवाज़ लगाता हुआ।

तभी..
पास से गुजरती
सर सर करती
पसीने से तर- ब- तर
हांथों में थमी
लंबी झाड़ू
अपना काम कर जाती है।
मेरी  आँखों पर पड़ी
'लोकतंत्र' की धूल को
साफ कर जाती है।

5.

चांद मुझे है भाए अम्मा
रोज शाम को लिए रोशनी
मेरे घर मे आए अम्मां
चाँद मुझे है ,भाए अम्मा।

जब सांझ थोड़ी सी
ढल जाती है।
सब घर बत्ती जल जाती है
तब मेरी सुनी कुटिया में
बनकर बत्ती आए अम्मा।
चाँद मुझे..

चाँद न पूछे जाट कभी भी।
छुआ छूत  की बात कभी भी।
जैसा पंडित -ठाकुर के घर
मेरे घर भी आए अम्मा।
चांद मुझे है भाए अम्मा।

नही जानता भेद भाव यह
सबसे मिलता प्रेम भाव से
नहीं कहीं है,ऊंच नीच।
ये सब को समझाए अम्मां।
चांद मुझे..

मुझे भूख जब लग जाती है।
और तू रोटी न लाती है।
तब चंदा बनकर रोटी
मेरा जी ललचाए अम्मां।
चाँद मुझे है भाए अम्मां।

पर ये मेरी समझ न आए।
जो सब को रोशन कर जाए
उसकी अपनी ही काया में
किसने इतने दाग बनाए?

जब भी देखूं उसे गौर से
आंख मेरी भर आए अम्मा
चाँद की काया के जख्मों में
जीवन अपना दिख जाए अम्मा
चांद मुझे..

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