आजकल करतारपुर कॉरिडोर खुल चुका है और गुरु नानकदेव जी की 550वीं जयन्ती के उपलक्ष्य में रोजाना हज़ारों श्रद्धालु पाकिस्तान जा पा रहे हैं. कहा जाता है कि गुरुनानक जी की 1539 में मृत्यु के बाद उनके शरीर के अंतिम क्रियाकर्म के लिए हिंदू और मुसलमानों में विवाद पैदा हो गया था लेकिन जब चादर उठाई गई तो उसके नीचे केवल फूल ही मिले जिनको आधा आधा बाँट कर हिंदू और मुस्लिम दोनो रिवाजों के हिसाब से अंतिम संस्कार कर दिया गया था.
गुरु नानक जी की शिक्षा ऊँच-नीच और धार्मिक असहिष्णुता के ख़िलाफ़ रही है और यही वजह है कि उनकी बहन बेबे नानकी के बाद दूसरा सिक्ख तलवंडी का मुस्लिम नवाब राय बुलार भट्टी था. मर्दाना भी मुसलमान था जो पूरी उम्र गुरु नानक जी के साथ रबाब बजाते हुए, गीत गाते हुए घुमता रहा.
गुरु जी का जन्मस्थान लाहौर के पश्चिम में 68 किलोमीटर की दूरी पर स्थित राय भोइ की तलवंडी में हुआ था जिसे बाद में ननकाना साहिब के नाम से जाना जाने लगा.
राय बुलार भट्टी के वंश का इतिहास जैसलमेर के भट्टी शासकों से जुड़ता है. सन 1156 में भट्टी क़बीले के रावल जैसल ने जैसलमेर की स्थापना की थी. सन 1294-95 में सुल्तान अलाउद्दीन खल्ज़ी ने जैसलमेर पर हमला किया और 9 वर्षों तक इस पर अपना कब्जा बरक़रार रखा. इस दौरान भट्टी ख़ानदान के काफ़ी लोग इधर उधर बिखर गए थे और यह माना जाता है कि एक हिस्सा लरकाना (सिंध) चला गया जहाँ उन्हें भुट्टो कहा जाने लगा तो दूसरे उत्तरप्रदेश, भटिंडा, सिरसा के अलावा उपरोक्त तलवंडी के शासक बन गए. हालाँकि जेम्स टॉड के अनुसार भट्टी गज़नी और सियालकोट से आये थे. अकबर के समय से जैसलमेर मुग़ल साम्राज्य का हिस्सा बन गया और आपसी शादी ब्याह के रिश्ते भी शुरू हो गए. उधर अनेक भट्टी और भुट्टो पहले से ही मुसलमान हो गए थे.
राय बुलार भट्टी ने अपनी ज़मीन का आधा हिस्सा 757 मुरब्बे (18,750 एकड़) गुरु नानक जी को भेंट कर दिए थे जिसे गुरु नानक जी ने क़ाश्तकारों में बाँट दिया था. वर्तमान में वो सारी प्रॉपर्टी Evacuee Trust Property Board of Pakistan के अधीन है. यहीं पर अब इंटर्नैशनल गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी की नींव रखी गई है. चर्चा यह भी है कि अब ननकाना साहिब को 6वें तख़्त का रुतबा दिया जा सकता है.
आज भी राय बुलार भट्टी की 19वीं पुश्त कायम है और उनका ख़ानदान लगातार गुरुद्वारा जन्मस्थान ननकाना साहिब के रखरखाव में रुचि लेता रहा है. इसी परिवार के राय हुस्सैन ने सन 1947 में बँटवारे के वक़्त व्यक्तिगत रूप से क़रीब एक हज़ार सिक्ख परिवारों को सुरक्षित रूप से हिंदुस्तान भिजवाने की व्यवस्था की थी. गुरु नानक जी की 500 जयन्ती के मौक़े पर राय बुलार की 17वीं पीढ़ी के राय हिदायत खान ने सिक्खों के जलूस की अगवाई की थी. उल्लेखनीय है कि ननकाना साहिब में गुरुद्वारा जन्मस्थान के अलावा 8 और गुरुद्वारे भी हैं. गुरु नानक जी के पोत्र बाबा धर्मचन्द ( लखमीचंद के पुत्र) ने यहाँ कभी सन 1600 के आसपास एक स्मारक बनाया था जिसे कालू का कोठा कहा जाता था. उल्लेखनीय है कि कालू गुरु नानक जी के पिताजी का नाम था. बाद में महाराजा रणजीत सिंह (1780-1839) के द्वारा अकाली फूला सिंह और गुरु नानक जी के वंशज बाबा साहब सिंह बेदी के कहे अनुसार इसे एक बड़ी इमारत का रूप दे दिया गया.
फ़रवरी 1921 में ननकाना साहब गुरुद्वारा के महंत नारायण दास ने पठानों के हाथों 139 सिक्खों को (थॉर्नबर्न ICS के अनुसार) या तो ज़िन्दा जलवा दिया था या मरवा दिया था क्योंकि उसे शक था कि वे उसे गद्दी से हटाना चाहते थे.
भगत सिंह भी वहाँ गए और वापस आकर गुरमुखी सीखनी शुरू कर दी. अपनी बहन अमर कौर (प्रो. जगमोहन सिंह की माँ) से गुरु ग्रन्थ साहब पर चर्चा करते थे और उनकी याददाश्त के अनुसार भगत सिंह ने इस दौरान उन्हें कबीर का ये दोहा सुनाया था:
‘चाहे रख लाम्बे केश, चाहे घरड़ बना, नितारा अम्ला ते होणा’. मार्च 1921 में गांधी जी भी वहाँ गए थे और उन्होंने निर्दोष सिक्खों को मारे जाने की घटना को दूसरा जलियाँवाला काण्ड की संज्ञा दी थी.
अंत में इतना ही कि आज जहाँ धर्म का दुरुपयोग नफ़रत और हिंसा फैलाने के औज़ार के रूप में देखने में आ रहा है वहाँ धर्म की उस सकारात्मक विरासत को आगे बढ़ाने की चुनौती हमारे सामने खड़ी है जो प्रेम और मेल मिलाप की भावना को मज़बूत करे.