मनु ने बोए आरक्षण के बीज

लेख


दीपंचद्र निर्मोही

आरक्षण की अवधारणा का जन्म जातियोंं के जन्म से ही जुड़ा लगता है। जाति-प्रथा के अंकुर वैदिक-काल में ही फूटते देखे जा सकते हैं। ऋग्वेद के पुरुष सुक्त का ऋषि घोषणा करता है-
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य:कृत:।
ऊरू तदस्य यद्धैश्य: पद्भ्याम् शूद्रो अजायत।।
अर्थात् उस समाज में ब्राह्मण का स्थान मुख के सदृश है, क्षत्रिय का बाहु बनाया गया है। वैश्य ऊरु के समान है और पद अर्थात् सेवा अैर निराभिमानत्व से शूद्र उत्पन्न होता है।
बात साफ है कि उस समय समाज को वर्णों में बांट दिया गया था, तभी समाज में सबका स्थान निर्धारित किया गया। मनु ने अपने समय में प्रथम तीन वर्णों को जस का तस रहने दिया और कुछ सीमित कार्य उनके लिए निर्धारित कर दिए। शेष सभी श्रम को शुद्रों में बांट दिया और कहा कि ऐसी व्यवस्था स्वयं परमात्मा ने की है-
सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थ स महाद्युति:।
मुखबाहूरुपज्जानां  पृथक्कमण्यिकल्न्पयत्।।   मनु, प्रथम अध्याय, श्लोक 87
अर्थात् उस महातेजस्वी ने इस सब सृष्टि की रचनार्थ ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्रों के कर्मों को पृथक-पृथक बताया।
मनु ने ब्राह्मणों के लिए सुविधाजनक और सम्मानित कार्य आरक्षित कर दिए। पढऩा-पढ़ाना, यज्ञ करना-कराना, दान देना-लेना बस। शारीरिक श्रम का कोई भी कार्य उनके लिए निर्धारित नहीं किया। इन कार्यों में भी दान देने की आवश्यकता उसे नहीं पड़ती थी। इसलिए कि अन्य तीनों वर्णों के लिए दान लेना वर्जित कर दिया था। यज्ञ कराने की स्थिति भी उसके लिए कभी ही उत्पन्न होती थी। शूद्रों को ये सभी काम करने कां अधिकार उन्होंने नहीं दिया और यज्ञ करना और दान देना शेष दो वर्णों के कार्यों में सम्मिलित कर दिया। ब्राह्मण केवल पढ़े-पढ़ाए, दान ले। यज्ञ करे न करे उसकी मर्जी, क्योंंकि समाज में उनका स्थान सर्वोपरि था।
प्रजा की रक्षा और पढऩा, दान देना व यज्ञ करना, क्षत्रिय के कार्य निश्चित किए। वैश्य खेती करे, व्यापार करे, ब्याज ले, दान दे, यज्ञ करे। यानी ये ही विशेष कार्य क्षत्रिय और वैश्य के लिए आरक्षित कर दिए गए।
मनु ने यह भी कहा कि ब्राह्मण सम्पूर्ण जात का धर्म से प्रभु है, क्योंकि वह धर्मार्थ उत्पन्न हुआ है, मोक्ष का अधिकारी है। जो कुछ जगत के पदार्थ हैं, वे सब ब्राह्मण के हैं। ब्रह्मोत्पत्तिरूप श्रेष्ठता के कारण ब्राह्मण सम्पूर्ण को ग्रहण करने योग्य है। (मनु, अध्याय एक, श्लोक 100)
इस प्रकार बेहतर जीवन जीने के जो भी साधन हो सकते थे, उन साधनों के सभी स्रोत मनु ने ब्राह्मण के लिए आरक्षित कर दिए और शेष रहे क्षत्रिय और वैश्य के लिए आरक्षित किए।
तीनों उच्च वर्णों के लिए आरक्षित किए कार्यों को करने का अधिकार शूद्रों को नहीं दिया गया। उनके लिए वे काम आरक्षित कर दिए गए, जो ऊंचे वर्णों की सुख-सुविधाएं जुटाने के लिए आवश्यक थे, यथा-उनके लिए भवन बनाना, कपड़े बुनना, कपड़े सीना, कपड़े धोना, कल-पुर्जे तैयार करना, आभूषण गढऩा, संगीत से मनोरंजन करना, उनके घरों की साफ-सफाई करना आदि। इन कामों के आधार पर उनकी जातियां भी निश्चित कर दी गईं और यह कहा गया कि ये जातियां कभी नहीं बदल सकतीं, क्योंकि इनका निर्धारण परमात्मा ने स्वयं किया है-
यं तु कर्मणि यस्मिन्स न्ययुङक्त प्रथम प्रभु:।
स तदेव रूवयं भेजे सृज्यमान: पुन: पुन:।।   मनु, प्रथम अध्याय, श्लोक 28
अर्थात् उस प्रभु ने सृष्टि के आदि में जिस स्वाभाविक कर्म में जिसकी योजना की उसने पुन:-पुन: जब-जब उत्पन्न हुआ, स्वयं वही स्वाभाविक कर्म अपने-आप किया।
साथ ही अछूतेपन का आरक्षण भी उनके लिए किया। मनु ने आदेश दिया कि उक्त कार्यों को करने वाले अर्थात बढ़ई, निषाद, लोहार, दर्जी, धोबी, रंगरेज, सुनार, बांस का काम करने वालों आदि का अन्न अन्य वर्ण ग्रहण न करें-
कर्मारस्य निषादस्य रंगावतारकस्य च। सुवर्णकर्तुवणस्य शस्त्रविक्रयिणस्तथा।।
श्ववतां शौण्डिकानां च चैलनिणेजकस्य च।रंजकस्य नृशंसस्य यस्य चोपपतिगृहे।।   मनु, चतुर्थ अध्याय, 215-216
इनका अन्न क्यों नहीं ग्रहण करना चाहिए, इसके लिए भी मनु का फतवा है-
स्वर्णकार का अन्न आयु, चमार का अन्न यश, बढ़ई का अन्न संतति, धोबी का अन्न बल का नाश करता है।
मनु, अध्याय चार, श्लोक 218, 219, 229
मनु ने शूद्रों के लिए उच्च वर्णों को हिदायत दी कि शूद्र को बुद्धि और उच्छिष्ट (जूठन) हविष्कृत अर्थात् होमशेष (हवन का प्रसाद) का भाग न दें और उसको धर्म-उपदेश न करें और व्रत भी न बतावें। शूद्र से तो सेवा ही करावें, वह शूद्र खरीदा हुआ हो या न खरीदा हुआ हो। क्योंकि ब्रह्मणादि की सेवा के लिए ही ब्रह्मा ने उसे उत्पन्न किया है।
मनु, अध्याय आठ, श्लोक 413
इतना ही नहीं समाज  को विघटित कर घृणा उपजाने के जितने भी उपाय हो सकते थे, उन्हें करने में मनु ने कोई कसर नहीं छोड़ी। यह निर्धारण किया कि ब्राह्मण की मेखला (तागड़ी) तिलड़ी और चिकनी सुखस्पर्श वाली मूंज की और क्षत्रियों की दूब के तिनकों से बनी हुई एवं वैश्य की सन की डोरे से बनी हुई होनी चाहिए। इसी प्रकार ब्राह्मण के लिए जनेऊ कपास से बना ऊपर को बंटा हुआ तीन लड़ वाला,  क्षत्रिय के लिए सन के डोरे और वैश्य के लिए भेड़ की ऊन से बना हुआ होना चाहिए। शूद्रों को तागड़ी और जनेऊ पहनने का अधिकार मनु ने नहीं दिया। वे औरों की तरह हाथ में दण्ड (लाठी) लेकर भी नहीं चल सकते थे।
ब्राह्मण के लिए आरक्षण में मनु ने पूरी उदारता बरती। उन्होंने नियम निर्धारित किया कि दस वर्ष का ब्राह्मण और सौ वर्ष का क्षत्रिय हो तो उन्हें पिता-पुत्र के समान जानें और ब्राह्मण उनमें पिता के समान है।
मनु, अध्याय दो, श्लोक 36
ब्राह्मण की सुख-सुविधा और मौज मस्ती का कोई अवसर मनु ने छूटने नहीं दिया। कहा कि शूद्र को शूद्र की कन्या से, वैश्य को वैश्य की कन्या से, क्षत्रिय को शूद्र, वैश्य और क्षत्रिय की कन्या से, ब्राह्मण को शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण की कन्या से विवाह करना बुरा नहीं है।
मनु, अध्याय 3, श्लोक 13
मनु ने मुर्दों को ले जाने वाले रास्ते भी अलग-अलग किए। आज्ञा दी कि शूद्र के मूर्दे नगर के दक्षिण द्वार से, वैश्य के पश्चिम, क्षत्रिय के उत्तर और ब्राह्मण के मुर्दे पूर्व द्वार से निकलें।
मनु, अध्याय 5, श्लोक 92
मनु स्त्रियों को तो शूद्रों के समकक्ष भी नहीं ठहराते। सभी सामथ्र्य वाले कार्य उन्होंने पुरुषों के लिए आरक्षित कर दिए। छोटे से छोटे जीव-जन्तु भी विपत्ति आने पर अपनी रक्षा स्वयं करते देखे जा सकते हैं, परन्तु मनु की दृष्टि में स्त्री नितान्त सामथ्र्यहीन है। इसलिए वे घोषणा करते हैं कि स्त्री स्वतंत्रता के योग्य नहीं है-
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने। रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति।।
मनु, अध्याय 9, श्लोक 3
मनु के द्वारा विधवा विवाह की व्यवस्था नहीं की गई। बाल-विवाह का प्रचलन होने पर बाल विधवाओं को सिर मुंडवा कर घर में दासियों की भांति नरकतुल्य जीवन जीने के लिए बाध्य किया गया। किसी शुभ काम के समय उनकी उपस्थिति प्रतिबंधित कर दी गई। इस कुरीति के अवशेष आज भी वृंदावन में विधवा आश्रमों में देखे जा सकते हैं, जबकि विधुर पुरुषों के लिए सब सुख-सुविधाएं आरक्षित रखी गई।
आज़ादी के इतने वर्ष बाद भी स्त्रियों की परतंत्रता नहीं टूट सकी। देहातों में आज भी स्त्रियां चौपालों में नहीं जा सकतीं। चौपालों के सामने से गुजरते समय उनके लिए परदा करना अनिवार्य है, जिससे चौपाल को वे देख तक न सकें। चौपाल, जहां निर्णय लिए जाते हैं, का उपयोग करना पुरुषों के लिए आ��क्षित है।
मनु ने ऐसी व्यवस्था निर्मित की जिसमें समानता, स्वतंत्रता, सद्भाव, मैत्री और भाईचारे का कोई स्थान नहीं हो सकता था। उस सामाजिक व्यवस्था ने हिन्दू समाज में ऐसी जड़ जमाई कि समय-समय पर सुधारकों के प्रयासों के बावजूद उसकी गति कम नहीं हो सकी। परिणाम यह हुआ कि उस व्यवस्था में उपजी पीड़ा को भोगने के लिए समाज का बड़ा हिस्सा आज भी विवश है।
इस व्यवस्था के परिणामस्वरूप आदमी और आदमी के बीच उपजी खाई निरन्तर गहरी होती गई। शूद्रों में अछूत घोषित कर दी गई जातियों को बस्तियों से बाहर बसने के लिए बाध्य कर दिया गया। शूद्रों को पूरी तरह निष्कासित नहीं किया जा सकता था, क्योंकि उनके बिना काम नहीं चलता। सवर्णों को घर, चारपाई, कपड़ा, औजार, मिट्टी और धातुओं के बरतन, उनकी सफाई, कपड़ों और घर की सफाई, मनोरंजन, आभूषण, सभी कुछ की जरूरत थी। ये सब काम शूद्रों के लिए आरक्षित थे। इतना ही नहीं अछूत घोषित कर दी गई जातियों के धर्मशास्त्र सुनने और सवर्णों के सामने पडऩे पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। भूलवश किसी अछूत ने धर्म चर्चा सुन ली तो शीशा पिघला कर उसके कान में डाल देने जैसी अमानवीय सजा उसके लिए निर्धारित की गई। सवर्णों के घर काम  के लिए जाते समय अछूत के लिए आवश्यक था कि वह अपने गले में घंटी और पीठ पर झाडू बांध कर चले, जिससे उनके आने पर सवर्ण लोग उन्हें देखने से बच जाएं। उनके चलने पर जमीन पर बने निशाना झाडू फिरने से साफ हो जाएं। पेट भरने के लिए जूठन और बासी रोटियां उन्हें मिलती थीं, जो उन्हें काम निबटा देने के बाद हर घर जाकर स्वयं लानी पड़ती थीं। पहनने के लिए पुराने कपड़े मिलते थे, जिन्हें फट जाने तक धो लेने की सुविधा नहीं थी। पीने के पानी के लिए कुएं के समीप जा, घड़ा धरती पर टेक, किसी सवर्ण के आ जाने की उन्हें घंटों प्रतीक्षा करनी पड़ती थी, जो उनके बर्तन में दूर से पानी डाल दे।
कैसी विडम्बना रही कि किसान का हाली (खेती करवाने वाला नौकर) जो अक्सर चमार जाति का होता था, गन्ने की बिजाई, निराई, गुड़ाई से लेकर कोल्हू में गुड़ बनवाने तक सारा काम करता था, फिर उस गुड़़ को टोकरे में भरकर मालिक के घर के ओसारे में ले जाकर रखता था, पर उसके बाद वह इस गुड़ को छू भी नहीं सकता था, इसलिए कि वह अछूत था। वह मूंज से, सन से रस्सियां बंटता, फिर उससे मालिक की खाट भरता, पर उस पर बैठने का अधिकार उसे नहीं था। मालिक के सामने नए कपड़े, नई जूती पहनने का साहस वह कभी नहीं जुटा पाता था। यदि कभी ऐसा हुआ तो बकायदा उसे हिदायत दी जाती कि जब तुम ऐसी ही जूतियां पहनोगे तो फिर हम क्या पहनेंगे? खबरदार अगर फिर कभी ऐसी हरकत की। आज भी देश के कई भागों में दलित-दुल्हा घोड़ी पर बैठकर सवर्णों के दरवाजे के सामने से नहीं गुजर सकता, उनके जैसी पगड़ी नहीं बांध सकता। विशेष ढंग से पगड़ी बांधना, दूल्हे का घोड़ी पर चढऩा सवर्णों के लिए आरक्षित है।
कुछ ऐसे क्षेत्र हैं, जहां गैर सरकारी स्तर पर शत-प्रतिशत आरक्षण है। धनपति के लिए हरक्षेत्र आरक्षित है। बिना मैरिट पेडसीट के माध्यम से महत्वपूर्ण संस्थानों में प्रवेश लिया जा सकता है। पैसे के द्वारा नौकरी और पदौन्नति मिल सकती है। विधायक, सांसद और मंत्री बना सकता है। बिना पैसे कितना भी योग्य व्यक्ति चुनाव के मैदान में उतरने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। पैसे के माध्यण्म से मनचारी बेहतर शिक्षा की हर सुविधा उपलब्ध की जा सकती है।
बाप करोड़ों का उद्योग उस बेटे को सौंप जाएगा जो उसके बारे में क ख ग तक नहीं जानता और वह बिना कोई श्रम करे पूरा जीवन इस उत्तराधिकार के सहारे मौज-मस्ती में गुजार सकता है। मंत्री का बेटा मंत्री, सांसद का बेटा सांसद, विधायक का बेटा विधायक, महंत का बेटा महंत, पुजारी का बेटा पुजारी, सेठ का बेटा सेठ, नंबरदार का बेटा नंबरदार, मुखिया का बेटा मुखिया, आखिर यह आरक्षण नहीं तो और क्या है?
आज व्यक्ति जूतों की दुकान करता है, ढाबा चलाता है, आढ़त की दुकान उसने बनाई है, चाट का खोमचा लगाता है, लोहे के पूर्जे बेचता है, फर्नीचर बनाता है, दवाइयां बेचता है, किसी दफ्तर में चपरासी का काम करता है। इसके बावजूद पहले पंडितजी है, चौधरी साहब है, लाला जी है, ठाकुर है। एक व्यक्ति पढ़-लिखकर अध्यापक हो गया है, हवाई जहाज उड़ाता है, वैद्य बन गया है, कंप्यूटर चलाता है, हवाई जहाज उड़ाता है, पुलिस में अधिकारी है, पुस्तकें लिखता है, उपदेश देता है, पुस्तकें छापता है, मंत्री हो गया है, फिर भी वह ओढ़ है, कुम्हार है, चमार है, लुहार है, बढ़ई है, भंगी है। आरक्षण के अतिरिक्त इसे और किस तरह देखा जा सकता है?
यद्यपि दयानंद ने ऋग्वेद के पुरुष सूक्त के बारहवें मंत्र का भाष्य करते हुए लिखा कि वर्ण जन्म के आधार पर नहीं, कर्म के आधार पर बनाए जाते हैं, परन्तु ऐसा किसी भी समय में व्यवहार में आया नहीं दिखता। यदि कर्म के आधार पर वर्ण तय किए जाते तो देवकाल में जातिगत आरक्षण का विरोध कर अन्तर्जातीय विवाह रचाने वाली देव कन्या पार्वती को आत्महत्या और नागगण के अधिपति शंकर को देवताओं के श्रेष्ठ होने के अहं को तोडऩे के लिए उनके साथ निर्णायक युद्ध करने के लिए विवश न होना पड़ता। परशुराम अपने समय के अजेय योद्धा होने के बावजूद क्षत्रिय नहीं हो सके। वे उस समय भी ब्राह्मण थे और आज भी ब्राह्मण हैं। जनक को विद्वान तो कहा पर ब्राह्मण किसी ने नहीं कहा। यदि कर्म से व्यवस्था होती तो एकलव्य की गणना क्षत्रियों में होती और द्रोणाचार्य की भी और फिर एकलव्य को शायद अपना अंगूठा न गंवाना पड़ता। यदि कर्म से ही वर्ण तय होते तो मनु को जन्मना जातिगत व्यवस्था की पुष्टि की जरूरत ही क्यों पड़ती?
आरक्षण की मंत्र रट रहीं आज की सरकारें देश के नागरिकों के पिछड़ेपन को समाप्त करने की दिशा में ईमानदार नहीं लगतीं। न ही वह अछूतों, पिछड़ों के सिर पर थोप दिए गए जातियों के जन्मजात कलंक को हटाना चाहती हैं। इसलिए वह उन्हें सौंप दिए गए आरक्षण के कटोरे को उनके हाथ से अलग करने की परिस्थितियां निर्माण करने के प्रति कार्य नहीं करतीं। कोई भी सरकार गैर बराबरी के कारकों को समाप्त नहीं करना चाहती। गैर बराबरी जाति के नाम पर हो या सम्प्रदाय के नाम पर, धर्म के नाम पर हो या अगड़ों-पिछड़ों के नाम पर, गरीब-अमीर के नाम पर हो या स्त्री-पुरुष के नाम पर। यदि समाज से गैर बराबरी के रूप समाप्त करने हैं तो आदमी के द्वारा आदमी के शोषण की प्रणालियों को समाप्त होना होगा। शोषण समाप्त हो जाएगा तो सुखी, समृद्ध और समतावादी समाज का निर्माण होगा, इसमें संशय का कोई कारण दिखाई नहीं देता।
पिछड़ी और अनुसूचित जातियों के जागरूक सदस्य अब आरक्षण के रास्ते नहीं, बल्मि सामाजिक परिवर्तन के आधार पर काम प्राप्त करने के पक्ष मेंं है। इस स्थिति को वे और नहीं भोगना चाहते। डा. आम्बेडकर को यहां बार-बार दोहराना चाहिए-हम सामाजिक परिवर्तन चाहते हें। हम सम्मानपूर्वक जीवन जीना चाहते हैं। उन्होंने कहा, ‘क्या आपको लगता है कि हम संविधान द्वारा प्रदत्त सहूलियतों के लिए सदा-सदा के लिए अछूत बने रहें? हम मनुष्यत्व पाने का प्रयत्न कर रहे हैं। क्या संविधान द्वारा दी गई विशेष सहूलियतों के लिए ब्राह्मण लोग अछूत बनेंगे?’
समाज से गैर बराबरी और आरक्षण के सभी रूपों का प्रभाव समाप्त हो इसका एक सीधा और पुख्ता समाधान है कि सबके लिए शिक्षा और रोजगार के समान अवसर उपलब्ध कराए जाएं और श्रम संबंधों में परस्पर-उपयोगिता की प्रणाली को व्यवहार में परिवर्तित किया जाए।
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (जनवरी-अप्रैल, 2018), पेज- 30  से 33