शब्द और अर्थ के भेद को पाटना होगाः उर्मिलेश

रिपोर्ट – अरुण कुमार कैहरबा


कुरुक्षेत्र हरियाणा से मैं वाकिफ हूं। चंडीगढ़ में दो साल तक एक अखबार के ब्यूरो में मैंने काम किया है। कुरुक्षेत्र में किसी संगोष्ठी या किसी कार्यक्रम में बोलने का मेरा यह पहला मौका है। इससे पहले हरियाणा में कुछ जगहों पर मैं गया हूं। भाई परमानंद जी ने कहा कि मैं पत्रकार हूं, ठीक है। मैं लेखक हूं, वह भी ठीक है कि मैंने थोड़ा बहुत लिखा है। लेकिन मैं ना तो सामाजिक कार्यकर्ता हूं और ना ही चिंतक। हम तो पत्रकार हैं, ब्रोडकास्टर हैं वह भी छोटे से।

आज भारत के राष्ट्र राज्य की बुनियादी समस्या राजनैतिक समस्या नहीं है। सब लोग चीखते-चिल्लाते हैं कि राजनीति इतनी खराब हो गई है। यह तो बाहरी आवरण है ना बाहर से देख रहे हैं कि राजनीति इतनी खराब हो गई है। लेकिन जिन आधारों पर भारत की राजनैतिक सत्ता व संरचना खड़ी है, उसमें सैद्धांतिक कोई बड़ा खोट नहीं है। हमारे राष्ट्र राज्य की जो वैचारिकता है और संवैधानिक स्थिति है, वह दुनिया के अनेक राज्यों से बेहतर है। हमारे पास दुनिया के बेहतरीन संविधानों में एक संविधान है। दुनिया के प्रौढ़ लोकतंत्रों के पास भी इतना खूबसूरत संविधान नहीं है, जितना हमारे पास है। दुनिया में जितने भी लोकतांत्रिक राज्य हैं, उन मुल्कों में भारत की तरह इतने कानून नहीं हैं। हमारे पास संसद है, कार्यपालिका है, न्यायपालिका है। संरचना में कोई कमी नहीं है।

डेनमार्क को दुनिया की बेहतरीन डेमोक्रेसी कहा जाता है, नार्वे व स्विटजरलैंड को भी डैमोक्रेसी के स्तर पर याद किया जाता है। लेकिन इनमें कईं मुल्क हैं, जिनमें राजा और रानी अभी भी हैं। इसके बावजूद डेमोक्रेसी है और खूबसूरत डेमोक्रेसी है। इतनी बेहतरीन डेमोक्रेसी है कि वहां का एक अदना सा पत्रकार जिसके पास एक्रिडिएशन कार्ड हो, वो इस कार्ड से वहां की संसद में जाकर उसका दरवाजा खोल लेता है और अपने विदेशी मेहमान को दिखा सकता है। लेकिन हम इस कार्ड को लेकर थाने जाएं तो थानेदार हमें हड़काकर बाहर कर सकता है।

हमारी संरचना की बुनियादी समस्या यह है कि हमारा शासन ना तो पारदर्शी है और ना जवाबदेह है। हमारे देश का शासन आईएएस, पीसीएस, आईएफएस या सांसद नहीं चला रहे हैं, अदृश्य शक्तियां चला रही हैं और प्रशासनिक व राजनीतिक लोग उनके कारकूनों की तरह काम कर रहे हैं।

मैं एकबार 2005 में संसद में बैठा था। पार्लियामेंट में एसईजेड (स्पेशल इकोनोमिक जोन) का एक बिल आया। स्पेशल इकोनोमिक जोन बहुत बड़ा विधेयक था। इसके जितने प्रभाव थे, वे बहुत बड़े थे। इससे पहले इस तरह का बिल कभी नहीं आया था। जानते हैं कुछ मिनटों में यह बिल पास हो गया। उस समय मौजूदा सरकार नहीं थी। पिछली सरकार जो अपने को बेहतर मानती थी। उस दौरान पक्ष और विपक्ष में कोई चर्चा नहीं। कुछ वामपंथी खेमे के सदस्यों ने कुछ सवाल उठाए थे। लेकिन कांग्रेस और भाजपा की मिलीभगत से बिल सर्वसम्मति से पास हो गया।

सबसे बड़ा तो यूआईडी था। अब सबके पास आधार कार्ड होना जरूरी है। यूआईडी का कानून भारत में संसद की मंजूरी के बिना लागू कर दिया गया। भारत की संसद की कोई अनुमति भी नहीं ली गई। दुनिया में कौन सा ऐसा देश होगा, जहां पर संसद व राज्यों की विधानमंडलों की सहमति के बगैर पूरे देश की ऊपर से नीचे की संरचनाओं, मूल्यों और पद्धतियों को प्रभावित करने वाला कानून बना दिया जाए, लेकिन हमने किया और वह यूआईडी है।

दुनिया में लोकतंत्र व गणतंत्र का ऐसा कोई मॉडल नहीं है, जो आज भारत में आजमाया जा रहा है। हम कहते हैं कि भारत में निरंकुशता व फासीवाद आ रहा है। उसकी बुनियाद कहां है। तो इसकी बुनियाद राजनैतिक संरचना में नहीं है। हमारे पास पार्लियामेंट है बहुत ही शानदार। हमारे पास संविधान है बेमिसाल, जिसे बाबा साहब डॉ. अंबेडकर ने बनाया। संविधान को देश की जनता को सुपुर्द करते हुए प्रारूप कमेटी के चेयरमैन डॉ. भीमराव अंबेडकर  ने कहा था-

’26जनवरी, 1950 को हम अन्तर्विरोधों के जीवन में दाखिल होने जा रहे हैं। राजनीति के स्तर पर तो हमारे  यहां समानता होगी, लेकिन सामाजिक-आर्थिक जीवन में असमानता होगी। राजनीति में एक व्यक्ति एक वोट का सिद्धांत लागू रहेगा, परंतु सामाजिक जीवन में इसे खारिज किया जाता रहेगा। हमें अपने समाज के इन अन्तर्विरोधों को जल्दी से जल्दी खत्म करना होगा, वरना असमानता के शिकार लोग एक दिन हमारी ऐसी संचरना को ध्वस्त करने में जुटेंगे।’

मैं तकलीफ के साथ कहता हूं कि अंबेडकर का यह सपना अभी तक पूरा नहीं हुआ। जनता ने ऐसी अन्याय पर टिकी सामाजिक संरचना को ध्वस्त करने की कोशिश तेज अब तक नहीं की है। क्योंकि रूलिंग एलीट ने बाबा साहब की चेतावनी का पालन नहीं किया। इसके बावजूद यह ढांचा चल रहा है।

हमारी संरचना की बुनियादी समस्या यह है कि हमारा शासन ना तो पारदर्शी है और ना जवाबदेह है। हमारे देश का शासन आईएएस, पीसीएस, आईएफएस या सांसद नहीं चला रहे हैं, अदृश्य शक्तियां चला रही हैं और प्रशासनिक व राजनीतिक लोग उनके कारकूनों की तरह काम कर रहे हैं। मैं यह नहीं कह रहा कि उनमें अच्छे लोग नहीं है। अच्छे लोग हैं। लेकिन अच्छी व्यवस्था नहीं है। वे व्यवस्था में अच्छे व्यक्ति हैं। लेकिन वे संपूर्ण रूप में सिस्टम के प्रतीक नहीं हैं। अनेक उद्योगपतियों एवं पूंजीपतियों ने एनपीए के नाम पर जो लूट की है। जनता की गाढ़ी कमाई को जिस तरह से सेंध लगाई है।  इसकी अगली प्रक्रिया या तार्किक परिणति यह है कि तमाम लोग बैंकों में लूट का एक ही इलाज बता रहे हैं कि बैंकों को डीनेशनलाईज कर दिया जाए यानी प्राईवेटाईज कर दिया जाए। बड़े-बड़े स्तंभकार निजीकरण की पक्षधरता कर रहे हैं। एक विमर्श तैयार किया जा रहा है कि बैंकों में फ्रॉड को रोकने के लिए इन्हें निजी हाथ में दे दो। नेताओं को हवाई जहाज तो अंबानी, अड़ानी व अन्य पूंजीपति ही उपलब्ध करवाते हैं, तो उन्हें तो बैंक भी चाहिएं। इसलिए निजीकरण के पक्ष में माहौल बनाया जा रहा है।

रायगढ़ जिला है महाराष्ट्र में। मुंबई के बगल में। वहां पर रिलायंस कंपनी की एसईजेड थी। रिलायंस मतलब इस देश के राजाओं का राजा। उस कंपनी के एसईजेड के विरोध में वहां की जनता ने प्रोटेस्ट किया और ऐलान कर दिया- नहीं देंगे अपने खेत। महाराष्ट्र की सरकार सरेंडर कर चुकी थी। केन्द्र की सरकार खामोश थी। लेकिन जनता के प्रतिरोध के बाद वहां एक कलेक्टर बैठा था। वहां एक ऐसा कलेक्टर बैठा था कि जो किसी की भी सुनने वाला नहीं था। उसके बाद कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया गया। कलेक्टर ने जनता की राय लेने की बात की और अंत में कलेक्टर ने रायगढ़ में रिफ्रेंडम करवा दिया। जनता ने पूरी तरह से नकार दिया एसईजेड को। लोगों के प्रतिरोध के बाद एसईजेड को स्क्रैप करना पड़ा था।

एक कंपनी का नाम है वेदांता। एक कंपनी का नाम है एस्सार। इन तमाम बड़ी-बड़ी कंपनियों ने उड़ीसा के एक इलाके में जमीन को हड़प लिया। अधिग्रहण करा लिया सरकार की सहमति से। तमाम वकीलों और सिविल लिबर्टी ओरगेनाईजेशन ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि 12 गांवों में रिफ्रेंडम करवाया जाए। सभी गांवों ने रिजेक्ट कर दिया। आज तक तमाम बड़ी कंपनियों को जमीन वहां नहीं मिली। हमारे पास भी एचीवमेंट हैं छोटे-छोटे स्तर पर। हम इन्हें राज्य व क्षेत्रीय स्तर पर क्यों नहीं कर सकते।

अगर हम प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों की विदेश यात्राओं, गाडिय़ों, घोड़ों, भोजों पर देश की गाढ़ी कमाई का इतना रूपया खर्च कर सकते हैं तो रायशुमारी पर हम इतना खर्च क्यों नहीं कर सकते। आधार एक ऐसा विषय था, जिस पर सभी विपक्षी पार्टियों को खड़ा होकर कहना चाहिए था कि बिना रायशुमारी के हम यह नहीं होने देंगे।

दूसरा भागीदारीपूर्ण लोकतंत्र को बढ़ाने के लिए पारदर्शिता की जरूरत है। हमारा लोकतंत्र भागीदारी वाला नहीं है, बल्कि यह तो तानाशाही से भी गया गुजरा है। नाम है संसदीय लोकतंत्र। लेकिन तय करते हैं एक या दो लोग। नोटबंदी का फैसला कैबिनेट ने भी नहीं किया था। क्या संसदीय लोकतंत्र में ऐसा होना चाहिए। भारतीय संविधान के अनुसार कैबिनेट जवाबदेह होती है और प्रधानमंत्री भी कैबिनेट का एक भाग है। प्रधानमंत्री पहला है। जैसे सुप्रीम कोर्ट के जजों में मुख्य न्यायधीश पहला है। लेकिन नोटबंदी कैसे हुई। नोटबंदी का फैसला तो नॉर्थ ब्लॉक को भी नहीं मालूम था, जहां पर वित्त मंत्रालय गृह मंत्रालय है। इसका विकल्प है भागीदारीपूर्ण लोकतंत्र। शासन को गुणात्मक रूप से बदल देने वाला मॉडल और उसके लिए हिस्सेदारी की पहल बढ़ानी पड़ेगी। जो अपने देश में बिल्कुल नहीं है। तो अत: राजनैतिक संरचना हमारे यहां उतनी बड़ी समस्या नहीं है, जितनी बड़ी समस्या है उसका मकैनिज्म और विधि।

नेशनलिज्म एक राजनैतिक-सामाजिक धारणा है, एक ऐसे राजनैतिक-आर्थिक तंत्र की सोच है, जो लोगों के हितों के लिए एक स्वतंत्र व सार्वभौम सेल्फ गवर्नैंस की प्रणाली को  विकसित करती है। लेकिन अपने यहां जो नेशनलिज्म है – क्या वह प्रो पीपल है। क्या वह प्रो-ह्यूमन है? क्या वह प्रो-पोलिटिकल-सोशल चेंज है? अगर नहीं है तो इसे आप नेशनलिज्म भी नहीं कह सकते। फिर ये जिंगोइस्टिक है, कम्यूनल, जातिवादी, प्रो-कारपोरेट है।

हमारे यहां असल समस्या सामाजिक व आर्थिक है। सामाजिक-आर्थिक समस्याओं के कारण ही हमारी राजनीति में यह विरूपता आई है। भारत के वामपंथियों-समाजवादियों ने समझने का दावा तो किया, लेकिन अमल कहां किया? अमल ही नहीं किया। पुस्तकों का वामपंथियों पर बहुत ध्यान होता है। विमर्शों पर बहुत ध्यान होता है। वे थियोरी और प्रैक्टिस को मिलाने की बात करते हैं। भारत और नेपाल को छोड़ कर कौन सा ऐसा मुल्क है, जहां इस तरह की जातीय व्यवस्था है। जो नफरत, हिकारत, सम्मान दबदबा सारा कुछ जिस पर निर्भर है, उसका नाम वर्ण व्यवस्था है। उसका नाम जाति व्यवस्था है। नेशनलिज्म क्या है। इसके बारे में वे लोग बात करते हैं जो जानते ही नहीं कि नेशन क्या है और नेशनलिज्म क्या है। जो अज्ञान के आनंद लोक में जीते हैं। इस समय अज्ञान के आनंद लोक का दिल्ली पर कब्जा है।

नेशनलिज्म एक राजनैतिक-सामाजिक धारणा है, एक ऐसे राजनैतिक-आर्थिक तंत्र की सोच है, जो लोगों के हितों के लिए एक स्वतंत्र व सार्वभौम सेल्फ गवर्नैंस की प्रणाली को  विकसित करती है। लेकिन अपने यहां जो नेशनलिज्म है – क्या वह प्रो पीपल है। क्या वह प्रो-ह्यूमन है? क्या वह प्रो-पोलिटिकल-सोशल चेंज है? अगर नहीं है तो इसे आप नेशनलिज्म भी नहीं कह सकते। फिर ये जिंगोइस्टिक है, कम्यूनल, जातिवादी, प्रो-कारपोरेट है।

अंबेडकर बार-बार कहते हैं कि जाति राष्ट्र विरोधी है। हमारे बहुत से वामपंथी दार्शनिक विचारक हैं, तमाम तरह के उदारवादी, कंजरवेटिव। जब तक अंबेडकर जीवित रहे, तब तक वे उनकी किताबों व पत्रिकाओं को नहीं पढ़ते थे। देश के वामपंथी और उदारवादी लोगों ने उनकी रचनाओं को नहीं पढ़ा। अंबेडकर की ‘मूकनायक’ को नहीं पढ़ाया गया कि मूकनायक में क्या लिखते हैं अंबेडकर। सिर्फ अंबेडकर की बिरादरी को वे जानते थे कि वो टोपी लगाने वाला, वो टाई लगाने वाला, वोट सूट लगाने वाला, वह अमुक जाति का है। और इसके आधार पर अंबेडकर का मूल्यांकन करते थे। यह संयोग नहीं कि जब तक अंबेडकर जीवित रहे, उनकी बातों को अखबारों ने पहले पेज पर क्या, आठवें पेज पर भी कभी ठीक से नहीं छापा। अंबेडकर को पूरे जीवन में क्या आप यकीन कर सकते हैं कि जो आदमी दुनिया के बेहतरीन विश्वविद्यालयों से पढ़ा हो। उसे अपने जीवन में पांच-पांच लघु पत्रिकाएं निकालनी पड़ी। आप आज लघु पत्रिकाएं निकाल रहे हैं, आपको विज्ञापन भी मिल रहा है, उसको कुछ नहीं मिलता था। अंबेडकर लीडर, जनता व मूकनायक जैसी पत्रिकाएं निकालते रहे। पर्चे निकालते रहे। भीख मांगते रहे। हमारे देश की जो धारणा है वह यह होनी चाहिए। उनके जीते जी मीडिया ने कभी उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। अंबेडकर को जातिवाद का प्रतीक मान लिया गया।

जब मैं बड़ा हो रहा था तो मैं जेएनयू में जाने से पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ता था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के बाहर सड़क पर दोनों ओर तमाम किताबों के भंडार लगे होते थे। वहां चेखव थे, गोर्की थे, टॉलस्टाय थे, कालीदास थे, सूरदास थे, कबीर दास थे, महावीर, बुद्ध, उपनिषद, ऋगवेद थे। सब कुछ था किताबों की दुकानों पर लेकिन अंबेडकर नहीं था। 1978 तक हिन्दी क्षेत्र में अंबेडकर की किताबों को नहीं देखा जाता था। वह तो महाराष्ट्र में दलित पैंथर आंदोलन की वजह से, रिपब्लिकन की वजह से, दलित आंदोलन की वजह से उन्हें जाना जाने लगा। महाराष्ट्र में भी अंबेडकर का मतलब केवल दलित। वहां अंबेडकर केवल मराठी में आ सके थे। क्यों?

भगत सिंह के साथ भी वही हुआ। जगमोहन और चमन लाल के लिखने से पहले भगत सिंह को कितने लोग जानते थे? मैं बचपन से ही भगत सिंह पर फिदा था। वह मेरे नायक थे। मेरे हीरो थे। मगर बगैर पढ़े। हम सिर्फ यह जानते थे कि भगत सिंह बहादुर था, एक योद्धा था। उसने बम पटक दिया अंग्रेजों को भगाने के लिए। जिसने अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी। लेकिन यह  नहीं जानते थे कि भगत सिंह कितना महान प्रतिभाशाली था। कितनी कम उम्र में वह ड्रीमलैंड जैसा लेख लिखता था। मुझे तो यह तब पता चला, जब जगमोहन व चमनलाल की किताबें आईं। जेल डायरी उनकी आई। आखिर कम्यूनिस्टों ने क्या किया था?

भारत में कम्यूनिस्ट आंदोलन 1925 के आस-पास इमर्ज कर चुका था। आरएसएस भी उसी समय बना था। एक ऐसा ओरगेनाइजेशन जो अज्ञान के आनंद लोक को सिंबोलाइज करता है। लेकिन आप तो ज्ञान के पुंज थे महाराज। आप तो द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से लेकर दर्शन दिगदर्शन तक जानते थे। लेकिन अंबेडकर और भगत सिंह को क्यों नहीं रिकोगनाईज किया। आपने कितना उनकी बातों को सामने लाया। आप हीगल हमें बताते रहे। फायरबाख हमें बताते रहे। हम समझ नहीं पाते थे कि ये कौन लोग हैं। और माफ कीजिएगा। महाराष्ट्र, कर्नाटक, तामिलनाडू में तो संभव था। वहां पेरियार थे, वहां फुले थे, वहां अंबेडकर थे। लेकिन होम ट्रेडिशन जो भारत के वामपंथी आंदोलन से कनैक्ट होनी चाहिए थी। पूरे हिन्दी बेल्ट से गायब थी। यहां तक कि पूरे बंगाल से भी। मैं बंगाल भी जानबूझ कर कह रहा हूं। जहां कम्यूनिस्ट आंदोलन मजबूत था उन दिनों। आज बेचारा बना हुआ है। इस पर कोई शोकगीत लिखिए बंगाल में कम्यूनिस्टों के खात्मे पर। लेकिन सहानुभूति मत प्रकट कीजिए। वे इसी लायक थे। क्योंकि लैंड रिफार्म के बाद उन्होंने कोई ऐसा काम नहीं किया, जिससे वे नई पीढ़ी को जोड़ सकें। और जब मैं यह बात कह रहा हूं तो बड़े दुख के साथ कह रहा हूं। आप यह मत समझिए कि मैं केवल ताली बजा रहा हूं। मैं अंदर से दुखी हूं कि वामपंथी क्यों इतनी गलतियां करते रहे।

अगर हिन्दी बेल्ट में एक कांशी राम नाम का आदमी ना हुआ होता तो अंबेडकर पूरे हिन्दी बेल्ट में मारे जा चुके थे। मैं बसपा का समर्थक नहीं हूँ। मैं बसपा की विचारधारा में यकीन नहीं करता हूं। लेकिन यह सच है महाराज। मैं 1978 में इलाहाबाद से पढ़ा आदमी। अंबेडकर को तभी समझ पाया, तभी पढ़ पाया, तभी किताबें हिन्दी में निकलने लगी, जब कांशी राम भारत के उत्तरी हिस्से की राजनीति में अवतरित हो चुके थे। अंबेडकर को जीवित कर दिया। यह कमाल है कांशी राम का। लेकिन हम कांशीराम को भी गाली देते रहे। हमने कांशीराम को भी कास्टिस्ट कहा। आज तो उनकी पार्टी भी उन्हें रिजेक्ट कर रही है। मेरा मतलब है कि प्रैक्टिस में तो रिजेक्ट ही कर रही है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि अंबेडकर, पेरियार या फूले की तरह महान दार्शनिक थे। वे एक्जिक्यूटर थे। एक ऐसे व्यक्ति थे जो प्रैक्टिस कर रहा हो। फुले, पेरियार व अंबेडकर दार्शनिक हैं। विचारक हैं। बदलाव की संस्कृति को सींचने वाले बड़े सृजनकर्मी हैं। लेकिन उसके बाद क्या हुआ। उसके बाद यह हुआ कि जो हमने जो बदलाववादी राजनीति है। हमने आरक्षण के सवाल पर। आरक्षण के सवाल पर पूरे वामपंथी आंदोलन ने समझा ही नहीं। मैं स्वयं उन दिनों स्टूडेंट फैडरेशन ऑफ इंडिया को पदाधिकारी था। मुझे बार-बार कहा जाता था कि सामाजिक-आर्थिक कहो। सामाजिक-आर्थिक आरक्षण की बात करो। अरे भारत के संविधान में तो सामाजिक-आर्थिक कहीं है ही नहीं। भारत के संविधान में सामाजिक-शैक्षिक पिछड़ापन पर आरक्षण है। आरक्षण क्रांति के लिए नहीं है। आरक्षण अर्थतंत्र में बदलाव के लिए नहीं है। आरक्षण समाज में बदलाव के लिए है। और अंबेडकर को यदि आप पढ़ेंगे तो समझेंगे कि आरक्षण क्यों जरूरी था।

बहुत से ओबीसी के लोग कहते हैं कि आरक्षण तो अंबेडकर ने दलितों के लिए किया, हमारे लिए क्या किया। इसलिए कि नादानी है। अंबेडकर ना होते तो धारा-340 ना होती। संविधान की धारा 340 अंबेडकर और उनकी तरह के लोगों के प्रयासों का परिणाम है। उसी धारा 340 से ओबीसी का आरक्षण सामने आया। यह तो आप सभी जानते हैं, लेकिन इसे कौन बताए। यदि आप रोज अज्ञान, मूर्खता और पैसे का सर्बत पी रहे हों और आप को सिर्फ पैसे कमाने से ही मतलब हो तो आप कैसे चिंगारी लगाएंगे।

मुझे लगता है कि भारत के वामपंथी आंदोलन को अंबेडकर और भगत सिंह की विचारधारा का एक मिलाजुला मॉडल खड़ा करना चाहिए। इसके बगैर भारत में बदलाव की संस्कृति व राजनीति का कोई और दूसरा मॉडल नहीं है।

आज चिंगारी की जरूरत है, जो भारत को बदल सके। जो शिथिल पड़े सिस्टम में एक नई ऊर्जा ला सके। इसलिए मेरा मानना है। मैं बार-बार कहता हूं कि भारत के वामपंथी आंदोलन के पास। आंदोलन ना कहिए, वामपंथी दलों के पास बेहतरीन लोग हैं। संसद में आज भी आप देखिए वामपंथी सबसे समझदार हैं। कुछ एक अपवादों को छोड़कर। लेकिन वो कौन है, उनका कनैक्ट कितना है? असल समस्या यही है। मैं निंदा नहीं कर रहा। आलोचना कर रहा हूं। मुझे लगता है कि भारत के वामपंथी आंदोलन को अंबेडकर और भगत सिंह की विचारधारा का एक मिलाजुला मॉडल खड़ा करना चाहिए। इसके बगैर भारत में बदलाव की संस्कृति व राजनीति का कोई और दूसरा मॉडल नहीं है। जब मैं यह कह रहा हूं तो मेरा मतलब यह नहीं है कि आप भगत सिंह और अंबेडकर पर फूल चढ़ाईये, उनकी मूर्ति बनाईये। बिल्कुल नहीं। मैं अंबेडकर के अध्येता के तौर पर मानता हूं कि अंबेडकर ने गलतियां भी की हैं। भगत सिंह को तो गलतियां करने का मौका ही नहीं मिला। उनकी उम्र ही इतनी कम लेकिन यदि अंबेडकर ने कुछ गलतियां भी की हैं तो हम उनकी गलतियों को भी एक महान चिंतक, महान क्रांतिदर्शी की गलतियां कहते हैं। वे गलतियां क्या हैं, उन पर चर्चा फिर कभी। जो लोग आज बदलाव की बात कर रहे हैं, उन्हें इन दो लोगों के दार्शनिक चिंतन पर जरूर विचार करना चाहिए।

अब मैं अर्थतंत्र पर आ रहा हूं। सामाजिक स्थिति पर मैंने बोल दिया। जो अर्थतंत्र हमारा है। अंबेडकर ने उस वक्त कहा था-1950 में। एक व्यक्ति-एक वोट है। लेकिन अर्थतंत्र में क्या हिस्सेदारी है। आज भागीदारी यह है- एक वर्ष में अर्जित संपदा में भारत के एक प्रतिशत का 73 फीसदी हिस्सा है। बांगलादेश में इतना नहीं है। श्रीलंका में इतना नहीं है। पाकिस्तान में हो सकता है। क्योंकि पाकिस्तान की नेशनल एसेंबली में सारे भूस्वामी, जमींदार, सारे एलीट दिखाई पड़ते हैं। वहां बैठी हुई महिलाएं, वहां बैठे हुए सारे पुरूष, सारे ऐसा लगता है कि एक बहुत ही खुशहाल मुल्क के लोग हों। जबकि पाकिस्तान एक बहुत ही फटेहाल मुल्क है। इतनी बुरी स्थिति है जनता की, सिर्फ पंजाब के कुछ इलाके की अच्छी स्थिति है। हमारे देश की एसेंबली को भी कुछ-कुछ ऐसा ही बनाने की कोशिश हो रही है। कि यहां सिर्फ बड़े ही लोग आएं। राज्यसभा में एक समय में बड़े-बड़े विचारक आते थे, अब सिर्फ कारपोरेट आते हैं तो एक फिसदी लोगों का 73 फीसदी पर हिस्सा है। 1991 में दस प्रतिशत के पास 52फीसदी और 1952 में दस प्रतिशत के पास 92फीसदी संपदा थी। 2012 में हो गई 73 फीसदी। आर्थिक सुधार। क्या खूबसूरत नाम है-आर्थिक सुधार। तो आर्थिक सुधार हैं या आर्थिक विध्वंस हैं या सुधार। यह इंडियन एक्सप्रैस या टाइम ऑफ इंडिया के एडिटोरियल से समझ नहीं आएगा, जो खुलेआम आर्थिक सुधारों की वकालत करते हैं। यही कारण है कि वे डिनेशनलाईजेशन व प्राईवेटाईजेशन के पक्ष में खड़े हैं। कभी-कभी अच्छी खबर दे देते हैं तो हम खुश हो जाते हैं।

‘नई कैपिटल’ लिखने वाले दुनिया के महानतम अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने कहा कि 1922 में पहली बार इंकम टैक्स कानून अंग्रेजी सरकार ने भारत में लागू किया। उस समय से इस समय बहुत अधिक आर्थिक असमानता है आजाद भारत में। कितनी असमानता है भारत में? इस मामले में हम 180 मुल्कों में 135वें नंबर पर हैं। उन्होंने कहा कि असमानता का जब इंडेक्स जारी हुआ था तो भजन मंडलियां लेकर बैठे टेलीविजन चैनलों ने इस पर बहस करवाने की जरूरत भी नहीं समझी। 180 मुल्कों में हम 135वें नंबर पर हैं। 1922 से भी गई गुजरी स्थिति है। तो हम क्यों आजाद हुए थे। हमारी आजादी में हमारी जिजीविषा, हमारी इच्छा, हमारा मकसद क्या था? यह सोचने की बात है।

अंत में मैं यह कहूंगा कि नेहरू युग की जब देश में बात होती है तो उनका देश में बहुत बड़ा योगदान है। कम से कम उन्होंने लोकतंत्र के ढ़ांचे को जारी रखा। लेकिन नेहरू युग की वजह से हमको यह महान दिन देखना पड़ रहा है।

अपने यहां जो समस्याएं पैदा हुई और उन्हें संबोधित नहीं किया गया, उस युग में थी – दो। पहली शिक्षा और दूसरी स्वास्थ्य। अगर उसी समय भारत की आजादी के बाद सबको समान शिक्षा का एक बिल आ गया होता, तो आज जो बौद्धिक, सांस्कृतिक स्तर, मूल्यों के स्तर पर जो असमानता की समस्या पैदा हुई है, वे ना हुई होती। आज सामान्य स्तर के व्यक्ति भी वे बातें करते हुए देखे जा सकते हैं, जो अंबानी अपने कमरे में कहता होगा। वे वह बातें सोचते हैं, जो अदानी साहब करते हैं। उनको नहीं मालूम कि वे क्या कह रहे हैं। उन्हें नहीं पता कि वे अपनी ही संततियों के सामने गंभीर संकट खड़ा कर रहे हैं। तो यह कारण है समान शिक्षा का, जो नहीं हुई। मैं दुनिया के सारे मुल्क नहीं गया हूं, लेकिन सारे महाद्वीप गया हूं। लेकिन मुझे जिन-जिन बेहतर देशों में जाने का मौका मिला और बेहतर लोकतंत्र को देखने का मौका मिला, वहां मैंने पाया कि शिक्षा।

बरमिंघम में मैं छह संपादकों के डेलीगेशन का हिस्सा था। हम लोग ब्रिटिश सरकार के मेहमान थे। वहां एक स्कूल में अध्यापक ने बताया कि यह भारतीय मूल का है। पता चला कि वह एक ड्राईवर का बेटा है। उसी स्कूल में अध्यापक ने बताया कि दूसरा बच्चा केबिनेट मंत्री का बच्चा है। मंत्री और उसके ड्राईवर दोनों के बच्चे एक स्कूल में थे। यह है डेमोक्रेसी। क्या हम ऐसा सोच सकते हैं। हम जिनके इतने साल गुलाम रहे, हमने उनकी अच्छी चीजें नहीं सीखी। बहुत सारे कथित विचारक अंग्रेजों को महान बताकर उनकी आलोचना नहीं करने की बात कहते हैं। अंग्रेज महान थे, अपने लिए, हमारे लिए नहीं। हमारे लिए उन्होंने हिन्दू-मुसलमान के झगड़े करवाए।

हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या है – शब्द और कर्म का भेद। कर्म और शब्द का भेद इस देश की बुनियादी समस्या है।

मुगलकाल में हिन्दू-मुसलमान का झगड़ा नहीं था। खिलजी काल में भी नहीं था। अधिकतर उन्हीं मंदिरों पर हमले हुए, जहां पर धन था। मैं अपवाद की बात नहीं करता। साम्प्रदायिक विभाजन सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजों की देन है। तो मेरा यह कहना है कि सभ्यतागत मूल्यों को बदलने का शिक्षा एक जरूरी औजार है। उस क्षेत्र में काम नहीं होना, इस देश के संकट का एक बड़ा कारण है। दूसरा कारण हैल्थ केयर है। हम डर के मारे अस्पताल नहीं जाते हैं कि कहीं कोई बड़ा रोग ना निकल जाए। अभी सरकार ऐसी हैल्थ पोलिसी लेकर आई है वह इतनी फालतू इंस्योरेंस पोलिसी है कि आप कल्पना ही नहीं कर सकते। वह पोलिसी कितनी दिखावटी, कितनी नकली और कितनी निरर्थक है और वह कारपोरेट और इंस्योरेंस कंपनियों को मदद करने के लिए है। तो हैल्थ केयर और शिक्षा में यदि बेहतर प्रयोग हुए होते तो हमारे देश में इतनी खराब हालत ना हुई होती, जो आज है।

अंत में यही कहूंगा कि अगर आप कुछ देश के लिए सोचते हैं तो प्लीज आप उसे सिर्फ कागज पर शब्दों में मत रखिये। आप उसको अमल कीजिए। हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या है – शब्द और कर्म का भेद। कर्म और शब्द का भेद इस देश की बुनियादी समस्या है।

मीडिया में जो कुछ आप देख रहे हैं। वे अलग से नहीं है। मीडिया में जितने संपादक आज मृदंग मंडली के नेता हैं, उनमें से एक को छोड़कर पहले कांग्रेस की डफली बजा रहे थे। इनके सारे परिवारों के लोग बिहार और पूर्वी यूपी में हैं। ज्यादातर बिहार और पूर्वी यूपी के ज्यादातर टेलीविजन चैनलों के संपादक व प्रोड्यूसर हैं। अच्छी बात है कि आप आईएएस बनना चाहते थे, लेकिन नहीं बन पाए तो संपादक बन गए। इनके सारे लोगों के परिवार कांग्रेस से बीजेपी की तरफ स्थानांतरित हो गए

ऐसा नहीं है कि भारत की सवर्ण जातियों के जो लोग हैं, वे सभी सवर्णवादी हैं। इस देश में स्वर्ण जातियों में पैदा हुए लोगों ने दलितों के लिए अपनी जिंदगी कुरबान कर दी। केरल में दलितों के लिए एक बड़ी लड़ाई ई.एस. नंबूदरीपाद ने लड़ी। जब दलित लड़कियों को शादी के बाद ऊपर कपड़ा पहनने की अनुमति नहीं थी। नंबूदरीपाद से पहले भी लोगों ने लड़ाई लड़ी। नंबूदरीपाद ने तो अग्रहारम के निरंकुश आचरण को रोका। केरल के कोचीन व दूसरे इलाके में अग्रहारम उन्हें कहते थे, जो शुद्ध ब्राह्मण नंबूदरीपाद के घर थे। दलित लड़कियों की शादी के बाद उन परिवारों का लड़का उनके साथ पहली रात बिताता था। नंबूदरीपाद ने उनके खिलाफ लड़ाई लड़ी। केरल में वामपंथी आंदोलन यदि टिका हुआ है तो उसकी वजह है कि उसका सामाजिक आधार मौजूद है। वीएस अच्यूतानंदन जैसा व्यक्ति वहां पैदा हुआ, जो अभी जीवित है। यह बात जरूर कहूंगा कि आप लोग शब्द और अर्थ के भेद को पाटिए।

स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (मई-जून 2018), पेज -43-47